एम.असलम
टोंक स्थिति इबादुल्लाह खां की
कचहरी के आगे, खातियों का घेर, काली पलटन
टोंक में पैदा हुए।
एम.ए. एवं बीजेएमसी करने के बाद
पत्रकारिता के क्षेत्र में पिछले करीब 23 साल से
कार्यरत।
प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक
पुस्तक से पहले शान-ए-बनास प्रथम व द्वितीय प्रकाशित।
पुस्तक
समीक्षा..काव्य संग्रह - साहित्य सुगंध
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जिसके मन-मस्तिष्क
में देश, समाज,
कला-संस्कृति
व संस्कारों के साथ ही मानवता की रक्षा करने की फिक्र होती है,
वाे
कहीं कवि, शायर तो कहीं
साहित्यकार के रुप में प्रकट जरुर होते हैं। वो अपने शब्दों के माध्यम से अपने
मनोभाव अभिव्यक्त करते हैं। अपनी रचनाओं के जरिए समाज, देश
को एक दिशा देने की उनमें ललक होती है। ये बात भी शाश्वत सत्य एवं सही कहीं जा
सकती है, कि वो जिस
परिप्रेक्ष्य, वातावरण व संगत में
गुजर-बसर करता है, मन-मस्तिष्क
में भी उसके वैसे ही भाव आते है। कोई किसी राजनीतिक सोच के साथ अपनी भावनाएं प्रकट
करता है, तो कोई सामाजिक
ताने-बाने से ओतप्रोत होकर अपनी हदे निर्धारित कर कविताएं, कहानियां,
लेख
आदि लिखता है। किसी की एकतरफा सोच होती है, तो
काेई बहुआयामी सोच के साथ अपनी रचनाओं को गति देता है। लेकिन लिखता वहीं है,
जिसको
शब्दों की पहचान होती है, शब्दों
के महत्व व असर का जिसको आभास होता है। स्व. श्री देवीलाल पंवार दादा के पुत्र कवि
प्रदीप पंवार ने भी अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से कुछ ऐसा ही आभास कराया है। जब
एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने मुझे (एम.असलम) एक गुलाब के फूल के साथ 13
अगस्त 2023 को अपनी पुस्तक
साहित्य सुगंध सप्रेम भेंट की, तो
उसका कवर पेज देखते हुए उसमें लिखी भाषा शैली एवं प्रेमभाव आदि का बखूबी आभास हो
गया। हालांकि अभी मैंने उसको पूरी तरह समझकर पढा नहीं है। लेकिन उन्होंने बैला,
गुलाब,
जूही,
चंपा,
चमली
की तरह जो शब्दों की सुगंध बिखेरी, विविधता
में एकता के जाे रंग समाहित किए, जिनको
जितना सराया जाए, उतना
कम है। बहरहाल प्रदीप जी ने अपनी काव्य रचना के माध्यम से मैं,
को
हम, की ओर ले जाने का भी सार्थक
प्रयास किया है। बस, जरुरत
उसको सकारात्मक सोच के साथ पढने व समझने की है।
तुम और मैं...
तुम और मैं मिल जाते
हैँ, त हम हो जाते हैं
पर तुम तो तुम हो,
और
मैं, मैं हूं,
मैं,
मेरी
मैँ, में रह जाता हूं,
और
तुम तुम्हारी मैं, मैं
इसलिए आजकल तुम और
मैं
मिल नहीं पाते हैं,
हर तरफ ऐसा ही हो रहा
है
सोचता हूं,
मैं,
काे
बाहर निकालूं
और तुम को अंदर ले
जाऊं
तो शायद मैं और तुम
मिल जाए
हम बन जाए....
कवि प्रदीप पंवार की
सुगंधित रचना..साहित्य सुगंध में वीर रस का जोश, श्रृंगार
रस की कोमलता, एवं हास्य की
फुलझड़ियां मन-मस्तिष्क को अपने रंग में रंगती नजर आती है। हिंदी,
उर्दू,
फारसी,
अरबी
सहित कई भाषाओं के शब्दों को प्रदीप जी ने अपनी कविताओं में जिस तरह चुन-चुन कर
काव्य माला व गुलदस्ता तैयार किया है। वो निश्चित रुप से अपनी महक छोड़ता
रहेगा। उनके पिता भी कवि थे,
उनकी
लिखी एक मशहूर काव्य पक्ति...
आईने में देखकर उलटे
हरफ,
ऐतेबारे आईना जाता
रहा....।
साहित्य सुगंध काव्य
संग्रह को प्रदीप पंवार ने अपने माता-पिता को समर्पित करते हुए उनके महत्ता को भी
काव्य के रुप में इस तरह अभिव्यक्त किया है...पिता के लिए... परिवार के हर संकट
में, जो पहले टकराता है,
अपना
सब कुछ अर्पित कर के, वो
पिता कहलाता है। मां के लिए...जिसकी गोद से शुरू, ज़िंदगी
का सफ़र होता है, एक
रिश्ता है मां का जो अमर होता है। और देशभक्ति से ओतप्रोत समर्पित पक्तियां..जिनका
हर गौरव मातृभूमि पर बलिदान है, तिरंगा
जिनके लिए मान-सम्मान व स्वाभिमान है, मेरी
कविता का शब्द-शब्द उन पर न्यौछावर है, जिनकी
दौलत शोहरत इबादत हिन्दुस्तान है। अपनी पुस्तक में उन्होंने राजनीतिक,
सामाजिक
एवं मानवीय पहलुओं से ओतप्रोत काव्य रचनाएं की है। पुस्तक में 61
रचनाएं समाहित की गई है।
प्रदीप जी को साहित्य
सुगंध काव्य संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई। आगामी रचनाओं के इंतजार के साथ
शुभकामनाऐ..
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