मानवतावाद की प्रासंगिकता
"मानवतावाद उत्तना ही प्राचीन है जितना
इतिहास। सभी युगों में मानववाद की यही मान्यता रही है कि मानवीय मूल्य अन्य सभी
वैचारिक सीमाओं में ऊपर हैं तथा मानवीय व्यक्तित्व का विकास हो जीवन का उद्देश्य
है। इतिहास की समझ और विज्ञान के अध्ययन ने मानववाद को सशक्त बनाया है और अब वह
पुराने पूर्वाग्रहों तथा अन्तर्विरोधों से मुक्त हो रहा है। इसलिए हम इसे
नवमानववाद या वैज्ञानिक मानववाद कहते हैं।" यह बात एम.एन. राय ने 1951 के
अखिल भारतीय नवमानववाद अधिवेशन में कही थी। बेशक, चाहे
प्राचीन यूनानी-रोमन दार्शनिक हों अथवा नवजागरण कालीन यूरोपीय विचारक, मध्यकालीन सूफीसन्त और कबीर, दादू, रैदास परम्परा के कवि हों अथवा बीसवीं सदी के वैज्ञानिक चिंतक, सभी ने अपने- अपने समय के ज्ञान-विज्ञान की सीमाओं के अनुसार मानव को वर्ण,
वर्ग, जाति, धर्मान्धता,
कट्टर राष्ट्रीयता, अंधविश्वास, नस्लवाद, मूढ़ परम्पराओं और आस्थाओं से छुटकारा
दिलाकर तर्कसंगत वैज्ञानिक चिंतन के आधार पर स्वतंत्रता, समता,
बंधुत्व का मार्ग दिखाया है।
मानववाद मनुष्य को केन्द्र मानकर चलता है।
समस्त दर्शन, राजनीतिक चिन्तन और व्यवस्थाएं, सामाजिक संगठन, न्याय प्रणालियां, आर्थिक गतिविधियां और सिद्धान्त, रीति-रिवाज और
नैतिक मापदण्ड मनुष्य के व्यक्तित्व विकास और उसकी स्वतन्त्रता को दृढ़ करने के
उद्देश्य से ही विकसित होने चाहिए। हजारों वर्षों से आदमी के व्यक्तित्व को कुंठित
करने के लिए उसे कई प्रकार की बेड़ियों में जकड़ दिया गया है। मसलन, मानव जाति आज भी सैकड़ों राष्ट्रीयताओं, संगठित
धर्मों, आस्थाओं, नस्ल सम्बन्धी
पूर्वाग्रहों के कारण अपनी सार्वभौमिकता एवं स्वतन्त्रता से काफी हद तक महरूम है।
पृथ्वी के किसी विशेष भाग में विशेष सीमा रेखाओं के भीतर कोई विशेष राष्ट्रीयता
वाले लोग रहते हैं और उन सीमाओं से बाहर आते ही कोई अन्य राष्ट्रीयता शुरू हो जाती
है। प्रत्येक राष्ट्रीयता अन्य राष्ट्रीयताओं से अधिक श्रेष्ठ और गर्वान्वित महसूस
करती है। हर राष्ट्र के लोग अपने अतीत का गुणगान करते हैं,अपने
पूर्वजों को महान् मानते हैं और अपनी संस्कृति, धर्म,
परम्परा आदि को ही मानव सभ्यता का केद्र घोषित करते हैं तथा अपने
राष्ट्र को ही विश्वगुरु समझते हैं। अपने राष्ट्र की महानता को तभी सिद्ध किया जा
सकता है जब अन्य राष्ट्रों को हीन और घटिया स्तर का ठहराया जा सके। अपने राष्ट्र
में एकता तभी कायम रखी जा सकती है जब अन्य राष्ट्रों से सीमा विवाद हो या शत्रुता
रखी जाए। यहीं से संघर्ष का जन्म होता है। अंध राष्ट्र-भक्ति इस प्रकार निराधार
घमंड, अतीत गौरवगान और पूर्वाग्रहों को जन्म देकर मनुष्य के
स्वतंत्र और तथ्यपरक चिंतन को बाधित कर देती है।
संगठित धर्मो का भी ऐसा ही दुष्परिणाम होता
है। सभी धर्म तर्कसंगत चिंतन के विरुद्ध आस्था पर जोर देते हैं। जहाँ बिना संदेह
और जिज्ञासा के केवल श्रद्धा और विश्वास की नींवों पर मान्यताओं के महल बनते हों,वहाँ वैचारिक स्वतंत्रता और प्रवीन चिंतन के लिए कोई जगह नहीं होती।
परम्पराओं से चली आ रही बातों को जस का तस मानते रहने पर मानव का विकास ठहर जाता
है। इसी से धार्मिक असहिष्णुता और कट्टरता का विकास होता है और आदमी का
चिंतन-"यह मेरी आस्था का प्रश्न है, आप इस पर सवाल न
उठाएं।" में सिमट जाता है; फिर शुरू होते हैं ऐसे
मूर्खतापूर्ण तर्क "जहाँ जाकर विज्ञान ठहर जाता है वहाँ से धर्म शुरु होता
है।" संगठित धर्म अपनी विशिष्टता बनाये रखने के लिए अपने अनुयायियों को अलग
वेशभूषा और कर्मकांड अपनाने की प्रेरणा देते हैं। सभी जानते हैं कि धर्मो और सम्प्रदायों
ने मानवसमाज के इतिहास में कितना वैमनस्य पैदा किया है।
नवमानववाद कोई निष्क्रिय रोमांटिक स्वप्न
नहीं है बल्कि तर्कहीन, अंधश्रद्धा, अवैज्ञानिक
आस्था, मानवेतर दिव्य शक्ति में विश्वास, भाग्यवाद, कर्मकांड, धर्मराज्य,
तानाशाही, शोषण, ऊँच-नीच,
अंधराष्ट्रीयता, नस्लवाद और लिंगभेद पर आधारित
अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करने की एक सतत प्रेरणा है। यह हमें समस्त दुराग्रहों
और पूर्वाग्रहों से मुक्त करके मानवकल्याण के लिए वैज्ञानिक तर्कसम्मत चिंतन करने
की आजादी देता है। यह एक नए मानवसमाज और नए लोकतंत्र की उद्घोषणा है। एम.एन. रॉय
ने नए लोकतंत्र के लिए कुछ सूत्र प्रस्तुत किए हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1.व्यक्ति के विकास से ही अंततोगत्वा समाज का विकास
होगा अत: पहले व्यक्ति का विकास होना चाहिए।
2. मानव विकास की भूल उत्प्रेरणा है स्वतंत्रता और
सत्य का ज्ञान
3.स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति के चिंतन और
विचारों को बाधित करने वाली बातों से छुटकारा प्राप्त करना।
4. मनुष्य की इच्छाशक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता ही
हमारा लक्ष्य है।
5. विचार दैहिक प्रक्रिया है जो वातावरण के प्रति
चैतन्य से उत्पन्न होती है।
6. क्रांति को आर्थिक पुनर्गठन से आगे ले जाकर एक नई
स्वतंत्र विश्व व्यवस्था का विकास करना होगा।
7. सामूहिक स्व के लिए व्यक्तिगत स्व को कुर्बान
नहीं किया जा सकता।
8. उत्पादन के साधनों पर लोकशाही का नियंत्रण हो।
मात्र राजकीय नियंत्रण शोषण से मुक्ति नहीं दिला सकता।
१. तानाशाही स्वयं को स्थायी करने की तरफ
प्रवृत होती है।
10. मनुष्य विवेकशील है इसलिये वह नैतिक भी है।
11. सत्ता का स्थानान्तरण विधायिका को नहीं किया
जाये। लोकसमितियां ही सत्ता का अधिकार रखें।
12. सभी कार्य मानव-केन्द्रित हों।
भारतीय संदर्भ में मानववाद जाति एवं वर्ण
व्यवस्था का विरोध करता है क्योंकि ये बातें मानवीय समता और गरिमा को बाधित करती
हैं और स्वतंत्रता एवं बंधुता पर चोट करती हैं। औरत मर्द की गैर बराबरी एक दूसरी
बुराई है। राजनीतिक क्षेत्र में हम उन दूषित प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं जो एक
सच्चे लोकतांत्रिक, धर्म निरपेक्ष, मानवाधिकार
सम्पन्न समाज की स्थापना में रुकावटें खड़ी करती हैं और साम्प्रदायिक वैमनस्य की
सीढ़ियों पर चढ़कर सत्ता प्राप्ति का प्रयास करती हैं। हमारा प्रयत्न यह होना
चाहिये कि सरकारें ऐसी आर्थिक नीतियों पर चलें जिससे शोषण, गरीबी,
बेरोजगारी और गैर-बराबरी दूर हो सके। समाज के कमजोर वर्गों के लिए
सरकार द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करायी जानी चाहिये। मानवववादी
आंदोलन वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में साम्प्रदायिक घुसपैठ का विरोध करता
है क्योंकि इसके द्वारा शिक्षा का वैज्ञानिक, तर्कसंगत,
धर्मनिरपेक्ष चरित्र बदल कर इसमें ज्योतिष, कर्मकांड,
पुरोहिताई और धार्मिक नफरत को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमारा प्रयास
होना चाहिये कि यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ,
कर्मकांड, ज्योतिष, वास्तु
शास्त्र इत्यादि अंधविश्वासों की तरफ जा रहे समाज को वैज्ञानिक चिंतन की तरफ
मोड़ें और स्वतंत्रता, समता एवं विश्व बंधुत्व का विकास
करें।
1 टिप्पणी:
शानदार आलेख ,पढकर मन प्रसन्न हो गया
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