सोमवार, 15 जनवरी 2024

मुनव्वर राना ने भी माना था टोंक की शायरी का लौहा - एम.असलम| टोंक


 

मुनव्वर राना ने भी माना था टोंक की शायरी का लौहा

 

एम.असलम| टोंक

 

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती, बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती..। हां, ये उसी अज़ीम शायर मुनव्वर राना का अशआर है, जो आज बरबस ही लोगों की ज़बां पर आ गया। 26 नवंबर 1952 में पैदा हुए मुनव्वर राना 14 जनवरी की देर रात इस दुनिया से रुख़सत हो गए। जिसने तवायफ के कोठे से ग़ज़ल को घसीट कर मां के तलवे तक पहुंचाया। आज वो भले ही इस दुनिया में नहीे रहे है, लेकिन मां को लेकर की गई उनकी शायरी सदियों अदब से पढी जाएगी। रियासत कालीन टोंक महोत्सव में 15 नवंबर 2015 को मुनव्वर राना टोंक आए थे। उन्होंने इस मौक़े पर विश्व विख्यात अरबी-फारसी शोध संस्थान में अपना कलाम पेश किया। इस मौक़े पर उन्होंने कहा था कि मेरे बच्चों के लिए सआदत की बात होगी कि उनके पापा ने टोंक में ग़ज़ल सुनाई। मुनव्वर राना की टोंक के प्रति इस टिप्पणी से पता चलता है कि टोंक का शायरी में क्या मुकाम रहा हैं। गौरतलब है कि टोंक में अख़्तर शीरानी, मुश्ताक़ अहमद यूसुफी, बिस्मिल सईदी, मख़्मूर सईदी, जगन्नाथ शाद, उत्तमचंद चंदन जैसे कई बा -कमाल शायरों की सरज़मीं रही है। बहरहाल उन्होंने टोंक में करीब एक घंटे तक अपना कलाम पेश किया था। जहां उस समय अपने एक बयान से अपनी मां के खफा होने की बात कहते हुए उन्होंने मां एवं बाप का सम्मान करने का अपनी शायरी के मध्यम से इस तरह पैगाम दिया।

 

हम को दुनिया ने बसा रखा है दिल में अपने,

हम किसी भी हाल में बेघर नहीं होने वाले।

और कुछ रोज यूही बोझ उठा लो बेटे,

चल दिए हम तो फिर मय्यसर नहीं होने वाले।

 

मुनव्वर राना ने अपनी कामयाबी का राज़ बताते हुए कहा कि आज में जो भी हूं वो मां की बदौलत हूं। मैंने मां को टूटकर चाहा। यहीं मेरी कामयाबी है, मेरा कोई कमाल नहीं है।

 

चलती फिरती आंखों से अजां देखी है,

मैंने जन्नत तो नहीं देखी मां देखी है।

 

मुशायरें में उन्होंने देश की महत्ता एवं मुहाजिरों की पीड़ा को इस तरह बयान कर खूब दाद पाई थी।

 

मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,

तुम्हारे पास जितना है उतना छोड़ आए हैं।

भतीजी अब सलीके से रूपट्टा औढती होगी,

वहीं, झुले में जिसको हुमकता छोड़ आए हैं।

 

मुशायरे में उन्होंने बेटी की महत्ता एवं हालातों को इस तरह प्रतिपादित किया-

 

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा,

अगर बहने नहीं होंगी तो राखी कौन बांधेगा।

ये बाजारे सियासत है यहां खुदारियां कैसी,

सभी के हाथ में कासा है मुट्टी कौन बांधेगा।

 

उल्लेखनीय है कि शायर मुनव्वर राना का दिल का दौरा पड़ने की वजह से 14 जनवरी देर रात इंतेक़ाल हो गया। उन्होंने 71 साल की उम्र में लखनऊ में अंतिम सांस ली। उन्हें लंबे समय से किडनी की बीमारी थी। वे मां पर लिखी गईं अपनी शायरी की वजह से खूब लोकप्रिय रहे। शान-ए-बनास भाग दो पुस्तक में भी राना के बारे में रोशनी डाली गई है।

 

इतना सांसों की रफाकत पे भरोसा न करो

सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं ।

 

मां पर लिखी उनकी शायरी -

 

मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाए,

हम इस ग़ज़ल को कोठे से मां तक घसीट लाए।

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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई

मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।

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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

मां बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।

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दावर-ए-हश्र तुझे मेरी इबादत की कसम

ये मेरा नाम-ए-आमाल इज़ाफी होगा

नेकियां गिनने की नौबत ही नहीं आएगी

मैंने जो मां पर लिखा है, वही काफी होगा।

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26नवंबर 1952में मुनव्वर राना रायबरेली में पैदा हुए थे। उनका बचपन कोलकाता में गुजरा। उनकी जिंदगी विभाजन के कारण काफी, उतार-चढ़ाव भरी रही। बताया जाता है कि मुनव्वर को कोलकाता के बाद लखनऊ शहर पसंद आया। यहीं उनकी मुलाकात शायर वली असी से हुई।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ,

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर ने पहली बार दिल्ली के एक मुशायरे में अपनी नज़्मों को पेश किया।

1993 में रईस अमरोहवी और 1995 में दिलकुश पुरस्कार से सम्मानित किया गया, 1997 में सलीम जाफ़री पुरस्कार और 2004 में सरस्वती समाज पुरस्कार, 2005 में ग़ालिब, उदयपुर पुरस्कार और 2006 में उन्हें कविता के कबीर सम्मान उपाधि, इंदौर में प्रदान की गई। 2011 में पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी द्वारा मौलाना अब्दुल रजाक मलिहाबादी पुरस्कार से नवाजा गया। 2014 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उर्दू साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भविष्य में सरकारी पुरस्कार नहीं लेने का ऐलान किया। बैटी के लिए वो लिखते हैं -

घरों में यूं सयानी बेटियां बेचैन रहती हैं

कि जैसे साहिलों पर कश्तियां बेचैन रहती हैं

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है

कहीं भी शाख़े—गुल देखे तो झूला डाल देती है

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया

उड़ गईं आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया।

आज जब वो दुनिया से रुखसत हो गए। अल्लाह उनकी मगफिरत फरमाएं -आमीन

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...