शनिवार, 27 जनवरी 2024

कबूतर जैसा जीवन- मिथिलेश श्रीवास्तव


 कबूतर जैसा जीवन

यह कथा कबूतरों की है जो

अपने साथ पूरी गृहस्थी अपने सिर पर उठाए उड़ान भरते हैं

घोंसले के बारीक तिनके चोंच में दबाए

पहले मुंडेरों पर आते हैं जैसे वह शहर का रेलवे स्टेशन है

धीरे धीरे शहर के भीतर आमाते

थोड़ी सी सुरक्षित जगह की तलाश करते

और कहीं भी टिक जाते हुए

कई बार उन्हें हम बोल-बोल कर हुल्काते हैं

हुल्काना कोई अच्छी क्रिया नहीं है

इसमें शामिल रहता है डराना अधमरा करना और उजाड़ देना

कई बार ताली बजा बजा कर उड़ाते हैं

ताली बजाना कोई अच्छी क्रिया नहीं है

डराना अधमरा करना और उजाड़ देना

कई बार थाली पीट पीट कर भगाते हैं

थाली पीटना कोई अच्छी क्रिया नहीं है

डराना अधमरा करना और उजाड़ देना

वे उड़ते चले जाते हैं ऐसे जैसे फिर लौटकर नहीं आएंगे

एक दिन फिर वे लौट आते हैं उसी जगह चुपचाप

अपनी गृहस्थी के साथ

चोच में तिनके दबाए

भूले हुए कि पिछली बार कई तरह से भगाए गए थे

विकास की आंधियों ने कबूतरों को यही जीवन दिया है

कबूतरों की अपनी एक भाषा है उनके लिए सरल

लेकिन हमारे लिए जटिल

हम उनकी भाषा समझने की कोशिश करते नहीं हैं

हम उनकी सफ़ेद मुलायम पाखियों पर मुग्ध रहते हैं

हम उनकी घोंसले बनाने की कारीगरी पर मुग्ध रहते हैं

हम उनकी मासूमियत और सरलता पर मुग्ध रहते हैं

श्रम करने की उनकी महान इच्छा पर मुग्ध रहते हैं

इस बात के लिए भी मुग्ध होते हैं कि वे

सरकार के आगे भिक्षापात्र लिए सर झुकाए खड़े नहीं होते

 वे आश्रम नहीं बनाते लेकिन आश्रमों में आश्रय बना लेते हैं

जहां से वे दुत्कारे भी जाते हैं

हम जब मुग्ध होते हैं तो कबूतरों को कबूतर नहीं समझते

मुंडेर पर मुंह में तिनके दबाये अपना कोई भाई होता है कहता हुआ

कि आपके आश्रय में अपना आश्रय बना लूं

एक बहन कहती है मांग में सिंदूर ढ़ोते-ढ़ोते थक गयी हूं

यहीं विश्राम कर लूं एक मां कहती है शहर ले चलो

बेहतर इलाज़ की ख़ातिर

मुग्धता टूटती है

मुंडेर पर चोच में तिनके दबाये कबूतर ही कबूतर दिखते हैं|

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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