मंगलवार, 16 जनवरी 2024

कविताएँ- 1-मिट्टी का चूल्हा 2-अभी 3-सह-अनुभूति - सुश्री कमलेश कुमारी


1-मिट्टी का चूल्हा

 

प्रवासी लौट जाते हैं, प्रवासी पक्षियों की भाँति;

प्रवास के नि:शेष चिह्नों में छूट जाता है,

लिपा-पुता मिट्टी का चूल्हा ...

 अपने आस-पास बैठकर

रोटी खाते लोगों के तृप्त-दीप्त चेहरे,

आधी रोटी हाथ में लिए, बच्चों की किलकारियाँ

रोटी सेकने वाली के हृदय की ऊष्मा, कंगन की खनक;

मानो, सब याद करता हुआ...

धीरे-धीरे होना चाहता है ठंडा!

 घर उजड़ जाते हैं, लोग उजड़ जाते हैं

छूट जाते हैं कच्चे आँगन, पेड़,

पशुओं की खोर में छूटा चारा,

उखड़े खूँटे, सूनी खूँटियाँ…

कुछ दिन शोक मनाती हैं नल से टपकती बूंदें,

सूख जाता है कुंआ!

किंतु...

अपने सीने में धधकती आग लिए,

लंबे समय तक कान लगाए रहता है,

 सूनी ड्योढ़ी पर पदचापों की प्रतीक्षा में ...

मिट्टी का चूल्हा, अपने मिट्टी होने तक!

 2-अभी

 सर्वत्र, संभाषण में सीधी बात नहीं कह सकी स्त्री;

हृदय की उठती हूक-सी कविताएँ देंगी वाणी ‘विमर्श’ को...

अभी शेष है विमर्श, नि:शेष रहेगी कविता

कविता की प्रकृति है स्त्री, स्त्री की प्रकृति है कविता।

 परजीवी मान्यताओं, कलुषित कुप्रथाओं के

ताबूत में नहीं ठोक सकी वह आखिरी कील,

ताकि बना कर उसकी नाव, पार कर जाए हर धारा;

और जीवन के सब घाटों पर रहे उपस्थित उत्सव-सी!

 बनानी होंगी उसे कविता लिखे कागज़ों की नौकाएं

बैठा कर उनमें अपने सपने, तैराना होगा दसों दिशाओं में...

भले ही गल जाए, घुल जाए कागज़ की नाव

उठती-गिरती लहरों में;

किंतु रहेगी शाश्वत गूँज अक्षरों की

 गुंजित होंगे अक्षर-जल से धारे और किनारे

लौटेगी ‘अनुगूँज’ उस किनारे तक भी,

 जिस पर करती है ‘वह’ दीर्घकाल से प्रतीक्षा,

सपनों के मस्तक पर करने सूरज का अभिषेक।

 

3-सह-अनुभूति

हृदय में गड़ा रहता है दुःख फांस-सा

और पीड़ा की अनुभूति से बिंध जाते,

जीवन के सब कोमल अंग !

 किसी संवेदना की सुई

नहीं निकाल सकती इसे जड़ से,

संपूर्ण हृदय ही उखड़ता ऐसे अभ्यास में...

फिर संवादों की नोक से कुरेदना

क्या रहता है श्रेयस्कर?

 जाने किस ग्रंथिवश,

वे तो निकाल लेना चाहते हृदय ही

ओह... कितनी पीड़ा

 कदाचित वहीं कोई सह-अनुभूति का साधक

करता है स्पर्श वेदना का अपनी आत्मा से”

 वह रोक लेता आँसुओं को भी,

 गिरने से इसकी जड़ में;

कि कहीं किसी

सूखे हुए रुधिर-कोंपल का रंग

हो जाए न हरा!

 


 

कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...