डॉ.प्रकाश चंद जैन
भारत की सांस्कृतिक परम्परा
पांच
भारतीय संस्कृति की जीवटता का
कारण इसका खुलापन और लचीलापन ही था। ग्यारहवीं सदी के दक्षिण भारत के रामानुज ने
आदि शंकाराचार्य के दार्शनिक धर्म की बजाय ईश्वर-प्रेम और ईश्वर-भक्ति का रास्ता
अपनाकर हिन्दू धर्म को जन-जन का धर्म बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
उन्होंने ईश्वर भक्ति को लोकप्रिय बनाते हुए इसे एक संगठनात्मक स्वरूप प्रदान किया
और दैनिक पूजा और वार्षिक मन्दिर उत्सवों के माध्यम से लोगों को आपस में जोड़ा।
रामानुज ने मन्दिरों की आधिकारिक भाषा संस्कृत की बजाय स्थानीय भाषा तमिल में भजन
गाने की परम्परा भी विकसित की, जिन्हें
आलवार या अझवार कहा जाता था। हिन्दू दर्शन को सरल भजनों और आरतियों के माध्यम से,
जो सुनने वालों के कानों और हृदयों में भक्ति रस घोल देते थे,
जन-जन तक पहुँचाने का यह काम अपने-आप में एक बड़ा आध्यात्मिक
आन्दोलन था, जो आगे चलकर 'भक्ति
आन्दोलन के रूप में खूब फला-फूला। एक तरह से रामानुज को इस आन्दोलन का जनक कहा जा
सकता है। भक्ति आन्दोलन दक्षिण भारत से शुरू होकर धीरे- धीरे उत्तर भारत की तरफ
बढ़ा। तमिलनाडु में बहुत पहले शुरू हो चुकी इस परम्परा में आंडाल जैसी कई भक्ति रस
की कवयित्रियाँ भी शामिल थी। भक्ति आन्दोलन ने स्थानीय भाषाओं में भजन, गीत और आरतियाँ रचकर एक तरह से भक्तों और भगवान के बीच की दूरी कम कर दी,
जो पहले सिर्फ संस्कृत के प्रयोग के कारण स्त्रियों और निचली
जातियों के अनेक भक्तों के लिए बाधा स्वरूप थी। 24 भक्तों ने
मुक्ति के लिए ईश्वर की वैयक्तिक भक्ति पर जोर दिया। जाति के आधार पर हो या धर्म,
नस्ल, वंश, या धन के
आधार पर, वे मनुष्यों के बीच हर प्रकार के भेदभाव के विरोधी
थे। उन्होंने प्रेम की ऐसी असाधारण उँचाईयों को छू लिया, जो
जाति और धर्म की सीमाओं समेत तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करती थी। जाति और धर्म से
परे ये भक्त हर एक का अपने दल में स्वागत करते थे।
बारहवी शताब्दी से बड़ी संख्या
में सूफी संत भारत में आते रहे, उनकी
ईमानदारी, धर्मपरायणता, गरीबी का जीवन,
ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण, अहंकार रहित
आचरण जैसी जीवन शैली से जनमानस में सूफी परम्परा का प्रचार प्रसार हुआ। ये सूफी
संत अपने उपदेशों से समानता और भाईचारे के इस्लामी विचारों को फैलाते रहे। सूफी मत
और सूफी संत हिन्दू-मुस्लिम समन्वय और सामाजिक समरसता और सहिष्णुता का बड़ा आधार
थे, मुझ्नुद्दीन चिश्ती से चिश्ती सूफी संतों की शुरू हुई
परम्परा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फरीद, हजरत निजामुद्दीन औलिया, नसीरूद्दीन चिराग देहलवी,
गेसू दराज से होती हुई फिरदौसी और कादरी परम्परा के संतों तक
पहुंची। प्रो० एन० फारूकी अपनी पुस्तक सूफीवाद' में लिखते
हैं :- यद्यपि कई मुसलमान उलेमा और अनुयायी सूफीवाद के वास्तविक स्वरूप पर संदेह
करते हैं। वे मानते हैं कि सूफीवाद का जन्म संतों की पूजा करने वाले ईसाईयों की
मूर्ति-पूजक प्रथाओं से तथा सर्वेश्वरवादी ग्रीक दर्शनशास्त्रियों के धर्म विरोधी
सिद्धांतों से हुआ है। उनका विश्वास है कि सूफियों का उद्देश्य केवल कब्रगाहों की
पूजा करना, हिन्दुओं से लिए गये विधर्मी संगीत बजाना तथा
भोले-भाले श्रद्दालुओं को लूटना मात्र है। कुछ भी हो सूफी संतों के व्यापक
दृष्टिकोण और उदार चित्त वृत्ति बिना किसी धार्मिक धारणाओं के विपरीत मानवीय सेवा
के प्रति प्रतिबद्धता, देशी धर्म और सांस्कृतिक परम्पराओं के
प्रति सम्मान की भावना, सामान्य जन के प्रति अनुराग एवं
सम्भ्रान्त वर्ग से दूर रहने की प्रवृति, सादगी, त्याग, तपस्या, अहंकार एवं
द्वेष रहित आचरण, करूणा, धर्मपरायणता,
तथा जातिगत एवं वर्ग भेदभावों से रहित विचारों के कारण इस्लाम सारी
सीमाएं तोडकर पूरे भारत में फैला। भारत में बारहवीं सदी से लेकर अठारवीं सदी तक
भक्ति एवं सूफी आन्दोलन अपने चरम शिखर पर रहा और इन आंदोलनों ने विभिन्न भाषाओं
एवं विभिन्न क्षेत्रों में अनेक महान भक्तों एवं सूफी संतों को पैदा किया।
भक्ति-सूफी आन्दोलन की विस्तृत चर्चा अगले अध्याय में करेंगे।
चार सौ वर्ष पूर्व अकबर जैसा
धर्मनिरपेक्ष शासन भारतीय इतिहास में एक मिसाल है। यूरोप में तो उन दिनो ईसाई
धर्मपरीक्षा का युग चल रहा था और रोम में धर्मविरोधियों को जिंदा जलाया जा रहा था।
जैसे जिओर्दानी ब्रूनो को रोम में धर्मविरोधी करार देकर कैद किया गया और आखिरकार
उसको 1600 ई. में जिंदा जला दिया गया था। भारत की
धर्मनिरपेक्ष परंपरा को सबसे अधिक प्रशासनिक समर्थन अकबर से ही मिला था। अकबर ने
अपने मित्र उस समय के संस्कृत, अरबी, और
फारसी के प्रकांड विद्वान अबुल फजल को कहा था-केवल तर्क का अनुसरण ही परंपरा को
नकारने का स्वयंसिद्ध उपाय है, इस विषय में किसी बहस की
आवश्यकता नहीं है। यदि परंपराएं ही उचित
होती तो पैगंबर नये संदेश नहीं
लाते, वे अपने बुजुर्गो का ही अनुसरण करते रहते। हम शेष
दुनिया की प्रत्येक बात को इसीलिए अस्वीकार करते चले जाए कि यह हमारे ग्रंथों में
नहीं है,, तो फिर प्रगति कैसे होगी। अकबर अपनी धर्मसभाओं में
हिंदू, इस्लाम की तीनों प्रमुख धाराओं-शिया, सुन्नी और सूफी के साथ-साथ ईसाई, यहूदी, पारसी और जैन मतावलंबियो को भी सहयोगी बनाता था। चार्वाक के अनास्थावादी
शिष्यों को भी। उनके दरबार में मुसलामानों के साथ-साथ हिन्दू कलाकार, संगीतकार, चित्रकार, विद्वान
भी थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा बहुत ही प्रबल थी जो आज के परिप्रेक्ष्य
में अनुकरणीय भी है। 25 अपनी प्रजा के सामने धर्म-निरपेक्षता
का सच्चा आदर्श पेश करने के लिए अकबर अपनी दाढ़ी साफ करता है, अपने पुश्तैनी लिबास को उतारकर चौबन्दी बाँध लेता है, सिर पर पगड़ी चढ़ा लेता है, जनेऊ डालकर और तिलक
लगाकर दरबार में हाजिर होता है, सूर्य के एक हजार नामों का
जप करता है, सूर्य के सामने दंडवत लगाता है, अपने शासन के अंतिम दिनों में 'रामसीय' सिक्का जारी करता है। 20 अकबर ने अपने महल में कृष्ण
मंदिर भी बनवा रखा था। हिन्दूओं के सभी त्योहारों में हिस्सा लेता था। जन्माष्टमी
के दिन भगवान कृष्ण को झूला भी झूलाता था। अकबर ने जैनियों के कर्मकांड की आलोचना
की, किंतु शाकाहार विषयक उनके तर्को को स्वीकार कर शाकाहारी हो
गया था। अनेक अवसरों पर कट्टरवादी मुसलमानों ने अकबर के विरूद्ध बगावत भी की (ऐसा
प्रायः हर महान, उदार और सुधारवादी विचारकों
/ शासकों के साथ होता है) किंतु वह अपने 'राहे अक्ल’ विचारशीलता के सिद्धांत पर
अडिग रहा और खुले संवाद का पक्षधर बना रहा। 'दीन-ए-इलाही'
नाम से एक नये धर्म को भी चलाने का असफल प्रयास क़िया। अकबर के शासन
काल में ही आगरा में आयोजित सर्वधर्म महासम्मेलन में भी चार्वाक के अनुयायियों का
प्रतिनिधित्व हुआ था। इसी महासम्मेलन की दो विशिष्टताओं को भी यहाँ जान लेना जरूरी
है। पहली 'बहुलता की स्वीकारोक्ति अर्थात विभिन्न विचारों और
विश्वासों की विद्यमानता को स्वीकार करना। दूसरी-विभिन्न विचार-विश्वास वालों के
बीच वाद-संवाद के लिए प्रतिबद्धता । अकबर ने अपने शासन काल में फरमान जारी करवाया
था कि धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाए और प्रत्येक
व्यक्ति को अपने मनचाहे धर्म का अनुसरण करने का अधिकार हो, अकबर
भारतीय विविधतापूर्ण सहिष्णु समाज के लिए तर्कशास्त्र को महत्व देते है। उनके
अनुसार व्यक्ति को अंधभक्ति के बजाय अपने विवेक के सहारे (राहे-अक्ल) अपने धर्म का
चुनाव करना चाहिए। भारत की पंथ निरपेक्ष परम्परा तो अकबर के बहुत पहले से ही चली आ
रही सहिष्णु और बहुलवादी चिंतन परम्परा से जन्मी है। उदाहरण
के लिए, चौदहवीं शती के अमीर खुसरो की रचनावली हो या
पंद्रहवीं में कबीर की साखियाँ या नानक के पद अथवा चैतन्य आदि की रचनाएँ-सभी में
सदभाव का संदेश भरा है। किन्तु इस परम्परा को सबसे अधिक प्रशासनिक समर्थन अकबर से
ही मिला था। उसने अपने उपदेश को स्वयं पर भी लागू किया। गैर-मुस्लिमों पर लगने
वाले भेदभावपूर्ण कर बंद कर दिए, अनेक हिन्दू विद्वानों,
कलाकारों को उसने अपने दरबार में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्रदान किया।
एक प्रकार से अकबर राज्य की पंथ निरपेक्षता के उस विचार को विधिवत व्यापक रूप
प्रदान कर रहे थे, जिसे कहीं व्यापक और सामान्य स्वरूप में
अकबर से भी दो हजार साल पहले भारत सम्राट अशोक ने प्रतिपादित किया है। 27
अकबर के उदार एवं सहिष्णुता के
उच्च आदर्श, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी सभी धर्मों पर आधारित थे। उन्हीं आदर्शों को आगे बढ़ाने की क्षमता
अकबर के प्रपौत्र शाहजहाँ के पुत्र शाहजादा दाराशिकोह में ही थी। अकबर ने हिन्दुओं
से राजनीतिक सम्बन्ध और धर्म के स्तर पर समन्वयवादी नीति अपनाई थी। शाहजादा दारा
शिकोह हिन्दू धर्म की गहराई और दर्शन से अत्यंत प्रभावित था। दाराशिकोह ने सभी
धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और एक मानव धर्म को ढूँढने का प्रयास किया।
दाराशिकोह संस्कृत के ज्ञाता थे उनके गुरू पंडित जगन्नाथ थे। हिन्दू दार्शनिकों और
पंडितों से मिलना जुलना था। उन्होंने हिन्दू धर्म दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखी थी।
दारा ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया, इन्हीं अनुवादों
से ही पश्चिमी देशों को उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त हुआ। दारा शिकोह जिस सहजता से
मस्जिद चले जाते थे उसी तरह निःसंकोच मंदिर में भी चले जाते थे। उन्होंने सत्य की
खोज के लिए मन्दिर और मस्जिद में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। दाराशिकोह का मानना था
कि 'सभी धर्मों के मूल तत्व एक ही है, सत्य
किसी एक धर्म की बपौति नहीं है और ईश्वर तक पहुंचने के अनेक रास्ते हैं।"
दाराशिकोह अलौकिक शक्ति पर अगाध विश्वास रखते थे। दारा हिन्दू-मुसलमानों के
धार्मिक चिन्तन के मध्यबिंदु को सदैव तलाशते रहे। उन्होंने मानव समाज को प्रेम के
बंधन में बांधकर एक अनोखा समाज बनाने का सपना देखा था। दारा शिकोह कादरी सूफी
परम्परा के संत हजरत मियां मीर के मुरीद थे। सातवें सिख गुरु हरिराय दारा के मित्र
थे इसके अतिरिक्त बाबा लालदयालु वैष्णव दारा को उपदेश देते थे। दाराशिकोह संकीर्ण
साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर व्यवहार करते थे। दारा शिकोह आधुनिक भारत के राजा
राममोहनराय, विवेकानंद, महात्मा गांधी,
टैगोर, नेहरू और मौलाना आजाद के पथ प्रदर्शक
थे। कट्टरपंथी मुल्लाओं ने दारा को धर्मद्रोही घोषित कर उसके और औरंगजेब के युद्ध
को उत्तराधिकार का कम और इस्लाम की रक्षा का युद्ध ज्यादा माना है। मुस्लिम
राजनीति में दाराशिकोह जैसा उपेक्षित चरित्र कहीं नजर नहीं आता। उसका जीवन धर्म,
दर्शन, कुटिल राजनीति, सत्ता
की लोलुपता, षडयंत्र, गद्दारी, घृणा और धर्मोन्माद युद्ध में ही लड़खड़ाता रहा। कुरूक्षेत्र के युद्ध के
बाद इतिहास का भाइयों के बीच अंतर्कलह, मारकाट और सबसे बड़ा
खूनी संघर्ष शाहजहाँ के पुत्रों के बीच हुआ। औरंगजेब और दारा शिकोह के युद्ध में
औरंगजेब की विजय इतिहास की एक बड़ी घटना थी। यदि इस युद्ध में दारा विजयी होते तो
हिन्दुस्तानी एक बार फिर अकबर के भारत के संस्करण को देखते ।
सुलतानों के शासनकाल में भी
मध्यकालीन भारत में स्थिति बुनियादी, तौर पर अलग नहीं थी। अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी रूखाई से काजी मुगीसुद्दीन
से कहा था कि वह नहीं जानता कि कानूनी और गैर-कानूनी क्या है, परन्तु जो भी स्थिति अथवा राज्य की भलाई के लिए जरूरी है, उसी के मुताबिक वह आदेश देता है। इस दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि
इतिहासकार जियाउद्दीन जैसे कट्टर व्यक्ति ने भी यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में एक
सही इस्लामी राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता था। 28
भारत की सहनशीलता और तर्कशीलता
की परम्परा को हमेशा ही याद रखे जाने की आवश्यकता है। दरअसल सत्रहवीं सदी के
हिन्दू बलशाली नेता शिवाजी भी दूसरे धर्मों के प्रति बहुत आदर का भाव रखते थे।
उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता के मामले में अकबर की सहिष्णुता की नीति के मद्देनजर
औरंगजेब को पत्र लिखा था, जो उनकी
विभिन्न धर्मों के प्रति उनके सहनशील नजरिये के अनुरूप था। "अगर बादशाह सलामत
को अलौकिक कही जाने वाली उन किताबों पर जरा भी विश्वास है तो आप पाएंगे कि वहां
कहा गया है कि ईश्वर तो सभी लोगों का ईश्वर है, सिर्फ
मुसलमानों का खुदा नहीं। उसके आगे तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बराबर हैं।आप
हिन्दुओं से जो दंड और कर मांग रहे हैं वह न्याय के प्रतिकूल है।"20
मुगल इतिहासकार खाफी खान भी
मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार के बारे में कहता है :- "शिवाजी ने यह नियम
बना दिया था कि उनके समर्थक चाहे जहां कहीं भी लूटमार करे, वे मस्जिदों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए, कुरान और औरत को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए। उनके हाथ में जब भी कुरान आया
उन्होंने बहुत सम्मान से उसे सर लगाया और अपने किसी मुसलमान अनुयायी को पकड़ा
दिया।"30
अरबी विद्वानों के अलावा चीनी
यात्री जैसे फाहियान पांचवीं और ह्वेनसांग सातवीं सदी में भारत आकर कई-कई सालों
यहां का अध्ययन कर यहां के विभिन्न विषयों के अनुवाद चीनी भाषा में किया। भारत के
ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करने यूरोप से भी कई यात्री आते रहे हैं। सत्रबीं सदी में
इटली से रोबेर्तो अध्ययन के भारत आकर संस्कृत और तमिल भाषा का अध्ययन कर यहां की
बौद्धिक रचनाओं का अनुवाद लैटिन भाषा में किया। फ्रांस से अठारवीं सदी में आए कादर
पॉस ने संस्कृत व्याकरण का लैटिन भाषा में अनुवाद कर उसकी पाकुलिपियां यूरोप भेजी
थी। इसी प्रकार 1783 में विधि
विशेषज्ञ विलियम जोन्स भारत आये थे, उन्होंने गीता, मनुस्मृति, और कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम और जयदेव
के गीत गोविन्द जैसे साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद का बहुत ही उत्कृष्ट कार्य किया।
विलियम जोन्स भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक परम्परा से बहुत अभिभूत थे। उन्होंने
अपने व्यापक अध्ययन में हिंदुओं और मोहम्मदियों के कानून, हिन्दुस्तान
की आधुनिक राजनीति, और भूगोल, बंगाल के
शासन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति, गणित और ज्यामिति, एशियाई ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, रसायनशास्त्र, शल्य चिकित्सा और अस्थितंत्र विषयक
भारतीय विचार, भारत की उपजें, काव्य और
अतिशयोक्तियां, एशियाई नीतिशास्त्र, पूर्वी
देशों का संगीत, व्यापार, विनिर्माण,
कृषि, भारत का वाणिज्य व्यापार इत्यादि
क्षेत्रों की व्याख्या की। फ्रांस निवासी फारसी भाषाविद एनक्येटिल ड्यूपर्ण ने 17 वीं शताब्दी के फारसी पाठ के आधार पर चार उपनिषदों का अनुवाद प्रकाशित
किया। इन अनुवादों के परिणामस्वरूप यूरोप में संस्कृत साहित्य के प्रति रुचि
विकसित होने लगी ।
एक फ्रांसीसी यात्री बर्नियर 17 वीं शताब्दी में भारत आया था जिसने मुगल राज्य
में रहकर 10-12 वर्षों तक चिकित्स्क की नौकरी की थी। उसने 'बर्नियर की भारत यान्त्रा' नाम की एक पुस्तक लिखी।
इस यात्रा वृतांत में बर्नियर ने यहाँ के तत्कालीन शासक, शासन
व्यवस्था, सांस्कृतिक, शिक्षा, व्यापार, धार्मिक रीति रिवाजों, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का प्रशंसात्मक रूप में विस्तारपूर्वक वर्णन
किया है। इसके अलावा यहाँ के गाँवों-शहरों की बसावट, किलों
और मकानों की बनावट, बाजारों की स्थिति, खान-पान की आदतें, गहनों के प्रति महिलाओं का लगाव व
यहाँ के सुनारों की कारीगरी, चित्रकारी और भारतीयों के जीवन
के प्रत्येक जीवंत पहलुओं का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया है। यूँ तो उस काल
के इतिहास पर भारतीय इतिहासकारों ने भी बहुत कुछ लिखा है किन्तु एक विदेशी की नजर
से भारतीयों के जीवन पहलुओं को देखने, जानने, समझने का रोमांच कुछ अलग ही है।
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