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आसमान से झरते-झरते
पानी की एक नन्ही सी बूँद
अचानक ठिठकी,
बड़े से वटवृक्ष के जाले में जा अटकी!
मौसम ख़ुशगवार था
यात्रा अभी और भी थी।
थकी तो नहीं थी फिर भी
पल भर को विश्राम किया
और चल दी फिर आगे की ओर,
हँसते-उछलते-मचलते..
बहते-बहते नदी हो गयी!
यात्राएँ अनवरत होती हैं
यात्रा ही जीवन है
पानी की तरल यात्रा
समाप्त होती है सागर में,
वहाँ तक पँहुचते-पँहुचते
ठहर सा जाता है जीवन!
लेकिन कहाँ ठहरता है भला!
थोड़ा और घूमता है कालचक्र
रुकते नहीं चरण..
बढ़ती है तपिश..होता है वाष्पीकरण!
तब जाकर बनते हैं बदरा,
और तब फिर से..
एक नन्ही सी बूँद
बादलों की रज़ाई से
मुँह बाहर निकाल
कुदरत से कहती है-
माँ! मैं काल चक्र से नहीं डरती,
मैं फिर से झरूंगी!
कितना भी अटकूँ मग के अवरोधों में
मैं निर्झर बनूँगी,
मैं फिर से इठलाती नदी बनूँगी!!