सामाजिक
चिंतक, लेखक, कवयित्री
अंगूरी
दीदी
जीना हराम
कर
रखा है
हरामी
ने ।
पैसा
देता है ,ना धेला
रोज
नशे में झूमता हुआ
आता
है ,बच्चों को
ओर
मुझे पीटता है,v
गाली
बरसाता है।
बस
बहुत हुआ
मैने
भी आज चूल्हे
से
जलती लकड़ी
उठाली।
और
कहा:
आ
..हरामखोर!
बढ़
आगे..मैं परोसूंगी
तुझे
थाली।
1 टिप्पणी:
स्त्री विमर्श की विद्रोही कविता है यह
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