स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय एकता
डॉ0 रवीन्द्र कुमार*
सामान्यतः वर्ष 1857 ईसवीं
की घटना को अँग्रेजी दासता से भारत की मुक्ति हेतु प्रथम प्रयास के रूप में लिया
जाता है। इस घटना का इतिहासकारों, विषय-विशेषज्ञों
और विद्वानों द्वारा अपने-अपने दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया गया है। यह घटना, वास्तव में, सम्पूर्ण
भारत की ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष था, या नहीं? क्या
इस संघर्ष का उद्देश्य देश के प्रत्येक जन की स्वतंत्रता था? क्या देश का आमजन इसमें भागीदारी कर रहा था? ये, और इनके साथ ही कई और
प्रश्न वर्ष 1857 ईसवीं की घटना की प्रकृति और इसकी
उपलब्धियों-अनुपलब्धियों के सम्बन्ध में इतिहासकारों, विषय-विशेषज्ञों
और विद्वानों के विश्लेषण के विषय रहे हैं,
और हमारे अध्ययन तथा पुनर्विश्लेषण के लिए उपलब्ध भी हैं।
हमारी वर्तमान पीढ़ी बहुत ही समझदार है। केवल संचार, चिकित्सा, अन्तरिक्ष
सहित विज्ञान के अन्य सभी क्षेत्रों एवं तकनीकी आदि से सम्बद्ध पक्षों के अन्वेषणों
में ही नहीं, अपितु समाज-विज्ञान और मानविकी
की परिधि में आने वाले सभी विषयों में भी विश्लेषण करने में पूर्ण सक्षम है। इसलिए, वर्ष 1857 ईसवीं
के घटनाक्रम के पुनर्विश्लेषण के लिए भी युवाओं का स्वागत है। ईमानदारी से, निष्पक्ष रहकर और सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर वर्ष 1857 ईसवीं के घटनाक्रम के पुनर्विश्लेषण का मेरा
युवा-वर्ग आह्वान है।
II
युवाओं का आह्वान करने के बाद अब मैं सबसे पहले जो बात दृढ़तापूर्वक
कहूँगा, और जो मेरा अपना मत भी है,
वह यह कि वर्ष 1857 ईसवीं के घटनाक्रम की परिधि देशव्यापी थी।
उत्तर-दक्षिण व पूरब-पश्चिम, इस
प्रकार देश के सभी भागों के लोग इसमें सम्मिलित थे। मंगल पाण्डेय, बहादुरशाह जफर, हजरत
महल, ऊदा (उदा) देवी पासी, नानासाहेब, तांत्या टोपे, लक्ष्मीबाई, झलकारीबाई, कुँवर
सिंह, फिरोजशाह, जयदयाल, हरदयाल आदि की इस घटनाक्रम में संलग्नता से लोग परिचित हैं। लेकिन, असम के कंदपरेश्वर सिंह और मणीराम दत्त बरुआ, ओडिशा के सुरेन्द्र शाही तथा उज्ज्वल शाही, कर्नाटक
के भास्कर राव भावे सहित अनेक उन वीरों, जिन्हें
उस घटना के बाद अँग्रेजों ने फाँसी दे दी थी,
और साथ ही मद्रास में विद्रोह पर उतारू सिपाहियों की भी इस घटना में भूमिका से लोग
नहीं के बराबर परिचित हैं। ऐसे लोगों की वर्ष 1857 ईसवीं
के घटनाक्रम में भूमिका से भी हमारा परिचय होना चाहिए। यह परिचय विशेष रूप से उस
घटनाक्रम के देशव्यापी होने की वास्तविकता पर मुहर लगाता है।
चूँकि वर्ष 1857 ईसवीं
की अँग्रेजों के विरुद्ध उस घटना में देशभर से लोगों ने अपने धर्म-सम्प्रदाय एवं जाति-वर्ग
आदि की सीमाओं को लांघते हुए भागीदारी की थी; उसमें
महिलाएँ और पुरुष समान रूप से सम्मिलित थे, अतः
वह संघर्ष राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करता था। इसीलिए, वह
अभूतपूर्व भी था। कार्ल मार्क्स जैसे विचारक ने भी उस घटना को पन्थ, क्षेत्र, समुदाय
आदि की सीमाओं से परे एक देशव्यापी जनाक्रोश कहा था। साथ ही, संघर्ष को उन्होंने भारतीयों की एकता के एक बड़े प्रयास के रूप में
स्वीकारा था। सावरकर ने तो इसे, जैसा
कि हम जानते हैं, देश की स्वाधीनता का
प्रथम संग्राम कहा था।
वह संघर्ष आगे भी राष्ट्रीय एकता की स्थापना के मार्ग में एक मील
का पत्थर सिद्ध हुआ। उसने उन्नीसवीं शताब्दी ईसवीं के उत्तरार्ध में समाज-सुधार
आन्दोलन के अनेक प्रमुख नेतृत्वकारियों, जो
विदेशियों से स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए देशवासियों की प्रेरणा के स्रोत भी रहे थे, और साथ ही देश की राजनीतिक गतिविधियों पर भी विशेष रूप से प्रभाव
डाला।
लगभग नब्बे वर्षों की अवधि (1857-1947 ईसवीं) का देश का राजनीतिक
घटनाक्रम ब्रिटिश साम्राज्यवाद से हिन्दुस्तान की स्वाधीनता और राष्ट्रीय एकता का
इतिहास है। इसी काल में समाज और धर्म-सुधार
आन्दोलन के अग्रणी, स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' की ओर
से ‘स्वदेशी’
और ‘स्वराज्य’
का देशवासियों का आह्वान हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने जनसेवा, विशेषकर दीन और वंचित लोगों की निस्स्वार्थ सेवा द्वारा देश की
एकता और विकास की अपेक्षा की। मालवीयजी ने 'सत्यमेव
जयते' का उद्घोष दोहराया।
अरविन्द घोष, तिलक और अनेक सुधारकों, शिक्षाविदों
और देश की स्वाधीनता के लिए नेतृत्व प्रदानकर्ताओं, चित्त
रंजन दास, विपिन चन्द्र पाल, लाजपत
राय, विट्ठलभाई पटेल, हकीम
अजमल खान आदि ने निरन्तर कदम आगे बढ़ाए। 'स्वराज
मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है', इस
आह्वान के साथ तिलक की नेतृत्वकारी भूमिका में 'स्वदेशी
आन्दोलन' उसमें सम्मिलित है। विदेशी धरती पर देश की स्वाधीनता के लिए मैडम
कामा के अथक प्रयास भी उसमें सम्मिलित हैं। वह घटनाक्रम भारत के स्वाधीनता संग्राम
के इतिहास के सुनहरे पृष्ठों का अभिन्न भाग है।
III
विशेष रूप से बीसवीं शताब्दी ईसवीं के द्वितीय दशक के उत्तरार्ध से
लगभग पच्चीस वर्षों (1917-1942 ईसवीं) की अवधि में भारत का चरणबद्ध एवं सशक्त
स्वाधीनता संग्राम, जिसके सर्वप्रमुख नेता
महात्मा गाँधी थे, स्वराज-प्राप्ति के
अभूतपूर्व और सफल प्रयास के साथ ही देश की एकता के निर्माण का ऐतिहासिक अध्याय भी
है। गाँधीजी के नेतृत्व में देश के सभी भागों से भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष
हेतु आगे आए आमजन ने 'वन्दे मातरम्' और 'भारतमाता की जय' जैसे उद्घोषों के साथ
जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता के निर्माण के लिए प्रतिबद्धता प्रकट की, वह अपने आप में अभूतपूर्व था। वह उन भारतीयों
के लिए, जो राष्ट्रीय एकता बारे में सोचते हैं, आज
भी प्रेरणादायक है, और उन
लोगों के लिए भी प्रेरणादायक रहेगा, जो
भविष्य में इसकी चिन्ता करेंगे।
महात्मा गाँधी के अद्वितीय नेतृत्व में वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, अबुल कलाम आजाद, राजेन्द्र
प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, साथ ही
सुभाष चन्द्र बोस , हसरत मोहनी, हकीम अजमल खान और अनेक
अन्य (सभी के नामों का उल्लेख सम्भव नहीं) देश की स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष के
साथ ही राष्ट्रीय एकता के निर्माण के यज्ञ में भी अग्रणीय थे।
वल्लभभाई का नाम गाँधीजी के साथ सबसे पहले मैंने इसलिए रखा है कि
गाँधी-मार्ग से उनके द्वारा संचालित और सफल बारडोली किसान सत्याग्रह (वर्ष 1928 ईसवीं) स्वाधीनता संग्राम में अद्वितीय
योगदान देने के साथ ही जनैकता का भी बेजोड़ उदाहरण रहा था। उससे आज भी बहुत कुछ
सीखा जा सकता है।
IV
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत का स्वाधीनता आन्दोलन और
राष्ट्र की एकता के लिए प्रयास साथ-साथ चले, जो
एक अभूतपूर्व एवं अति उल्लेखनीय घटना थी। स्वाधीनता, जो
प्रत्येक की समानता के स्वाभाविक अधिकार से जुड़ा एक पक्ष है, और एकता, दोनों, भारत में गाँधीजी के सपनों के स्वराज्य की स्थापना के लिए, जो सजातीय समानता का द्योतक था और सनातन (शाश्वत) मूल्य जिसका आधार
थे, आवश्यक थे। हिन्दुस्तान में उनके सपनों के स्वराज्य हेतु आज भी
आवश्यक हैं।
महात्मा गाँधी सत्य के पूरक सनातन-मार्ग के अनुयायी थे। वे
अविभाज्य समग्रता की वास्तविकता को स्वीकार करते थे। इसलिए, मानव-समानता की स्थापना, पुनरावृत्ति
करूँगा कि स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार समानता
से अविभाज्य रूप से जुड़े पक्ष हैं, उनके
जीवन का मिशन था। किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सर्वकल्याण –अंत्योदय से सर्वोदय, उनके
उसी मिशन का प्रकटीकरण था। उनके अविभाज्य समग्रता-सम्बन्धी
विचार के मूल में सर्व-एकता थी। इसी को अपने कार्यों में उन्होंने शिखर पर रखा और
जीवनभर इसी के लिए वे संघर्षरत रहे।
भारतीय
संस्कृति अपनी मूल भावना में सनातन-मार्ग –मूल्यों
से बंधी है। इसीलिए, यह संस्कृति अनेकता में
एकता की स्थापना करती है। यह समन्वयकारी है; अपने
मूल स्वरूप में ठहरते हुए यह समावेशी भी है। यह विकासोन्मुख है। महात्मा गाँधी ने
सनातन-मार्ग और इससे बंधी भारतीय संस्कृति की आधारभूत विशिष्टताओं को स्वाधीनता
संग्राम और, साथ ही,
राष्ट्रीय एकता के अपने प्रयासों में दृढ़तापूर्वक साथ रखा और अभूतपूर्व कीर्तिमान
स्थापित किया। स्वराज्य और राष्ट्रीय एकता को एक-दूसरे का पूरक बनाते हुए एक
अनुकरणीय मार्ग हमारे लिए छोड़ा। वही मार्ग स्वाधीनता संघर्ष और राष्ट्रीय एकता के
लिए नब्बे वर्षों की अवधि में हुए प्रयासों में उन्हें शिखर पर स्थापित करता है।
देश की स्वाधीनता को अक्षुण्ण रखने और राष्ट्रीय एकता की चिन्ता करने वालों के वह
मार्ग महत्त्वपूर्ण है, प्रासंगिक
हैं और मैं पुनः कहूँगा कि अनुकरणीय है।
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से
अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र
कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान
में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ
(उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।
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