जिदंगी की जद्दोजहद
के बीच से
चुरा लाई थी कुछ पल
अपने लिए
उस गिलहरी की तरह
जो हमारी आँख के
सामने से लेकर
चंपत हो जाती है
कुछ दानें,
और नहा लेती है धूल में
गौरैया कभी-कभी
सुस्ताती है भरी सड़क पर कानी कुतिया
मांझी लगा लेता है एक वंशी
छोटे तालाब में
अनाज ओसाता हुआ
किसान रूक जाता है
हवा की उलटी चाल पर
भोजन परोसती मां,
रूक जाती है अचानक
बिटिया को न पाकर
वह भी निकाल लाई है
कुछ क्षण
जिनमें बनाएगी
सपनों का एक महल
कल्पना का एक राजकुमार !
बजाएगी वीणा
देखेगी हाथ पर फटी बिवाइयों को
वह;
जो रहती है बत्तीस दांतो के बीच जीभ बनकर!
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