शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

बाबुल की बिटिया- डॉ. बिभा कुमारी

बाबुल की बिटिया

 

पिता के आते ही,

दौड़कर थमाती थी,

पानी से भरा लोटा।

कुएं पर जाकर,

धो लाती थी,

पसीने से भींगा,

उनका कुर्ता, गंजी और गमछा।

सुबह निकलते वक्त,

चमकाकर उनके जूते,

अपनी चुन्नी की किनारी से,

पहनाती थी,

अपने हाथों से।

जाड़े के दिनों में,

दौड़कर .........

देती थी उन्हें,

बन्डी और दुशाला,

गर्मी में घंटों,

झलती थी,

कोमल हाथों से पंखा,

पर,

पिता शाम में आते ही,

भैया को उठाते थे गोद में।

माँ से कहा –

तो उन्होंने समझाया-

“बिटिया !

तेरे पिता करते हैं तुझसे बहुत प्यार.......

पर अब तू बड़ी हो गयी है न

इसीलिए............”

मान ली थी माँ की बात,

पर,

जब शहर जाकर,

पढ़ने की बारी आई,

तो पिता ने,

भेजा भाई को।

माँ ने फिर,

आवाज़ में शहद घोल कर समझाया-

“बिटिया !

तेरी पढ़ाई प्राइवेट करवा देंगे।

दो को शहर भेजकर पढाने के,

नहीं हैं पैसे।

बहुत रोई उस दिन,

बहुत रोई।

एक महीने के भीतर ही,

पिता को,

अम्माँ से कहते सुना-

“कर आए हैं .........

बिटिया का रिश्ता पक्का,

पराई अमानत,

जितनी जल्दी उठे,

उतना ही शुभ।”

फिर से……

बहुत रोई उस दिन,

दिन से रात तक,

रोती रही,

बस !

रोती ही रही।

 

डॉ. बिभा कुमारी अकादमिक एवं साहित्यिक गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहती हैं। वर्तमान में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के विश्वेश्वर सिंह जनता महाविद्यालय, राजनगर में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं और हिंदी की विभागाध्यक्ष भी हैं। पूर्व में दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय और एनसीवेब में लगभग दस वर्षों तक अध्यापन कर चुकी हैं अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में अपना शोध-पत्र प्रस्तुत कर चुकी हैं, अनेक पुस्तकों में इनके अध्याय शामिल हैं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, शोध-पत्र, कविता, कहानी इत्यादि प्रकाशित हैं। उनकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यूं तो भाषा और साहित्य की लगभग सभी विधाओं और आयामों में रुचि रखती हैं, परंतु अस्मिता मूलक विमर्श से संबंधित बिंदुओं पर अध्ययन और शोध करना उन्हें विशेष रूप से पसंद है।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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