मनीषा सिंह
कवयित्री और लेखिका
औरतें समय से घर लौट आती हैं,
कहीं भी जाएं,खाना बनाकर घर से बाहर जाती हैं!
उनके लौटने तक कई आंखें उनका रास्ता
देखती हैं,
कई पेट भूखे रहते हैं,
कई कपड़े तनियों पर लटके रहते हैं,
बच्चे रोते हुए मिलते हैं,
या फिर झगड़ते!
औरतों को समय से लौटना ही पड़ता है,
औरतों को देर से घर लौटने की मनाही
है!
औरतें काम से बाहर जाती हैं,
औरतें पूजा करने बाहर जाती हैं,
औरतों के साथ अक्सर ही चली जाती है घर
से बरकतें,
तभी तो लौटने पर मिलता है उजाड़ बगीचा,
फैली रसोई और नाराज़ बूढ़े!
औरतें जब घर मे ही होती हैं,
तब सबको तसल्ली होती है,
जब औरतें कहीं नहीं जाती तब
अक़्सर
उनके सुस्ताने पर पाबंदी होती है,
औरतों को घर छोड़ देने चाहिए अब,
औरतों के अकेले खुद के घर मे रहने का
समय आ गया है,
औरतों को लौट जाना चाहिए बोध की खोज
में,
लीन हो जाना चाहिए औरतों को,
औरतों को घर नहीं लौटना चाहिए!
3 टिप्पणियां:
स्त्री विमर्श पर कविता
💯 True lines
गजब लिखा। कवयित्री की लेखनी में दम है। शुभकामनाएँ।
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