सोमवार, 22 जनवरी 2024

सुख-दुख- विजय राही

सुख-दुख

 

एक घण्टे में लहसुन छीलती है

फिर भी छिलके रह जाते हैं

दो घण्टे में बर्तन माँजती है

फिर भी गंदे रह जाते हैं

तीन घण्टे में रोटी बनाती है

फिर भी जली, कच्ची-पक्की

कुएँ से पानी लाती है

मटकी फोड़ आती है

जब भी ससुराल आती है

हर बार दूसरी ढाणी का

रास्ता पकड़ लेती है

औरतें छेड़ती हैं तो चुप हो जाती है

ठसक से नहीं रहती बेमतलब हँसने लगती है

खाने-पीने की कोई कमी नहीं है

फिर भी रोती रहती है

"काँई लखण कोनी थारी बहण में"

यह सब

बहन की सास ने कहा मुझसे

चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए

जब पिछली बार बहन से मिलने गया

मैंने घर आकर माँ से कहा

बहन पागल हो गई है

सास ने उसको ज़िंदा ही मार दिया

कुएँ में पटक दिया तुमने उसे

माँ ने कहा

लूगड़ी के पल्ले से आँखें पोंछते हुए

"तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो

म्हारी बेटी खूब मौज में है !"

 

 

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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