स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी,1863 - 4 जुलाई,1902)
अध्यात्म एवं मानव दर्शन के प्रणेता
डॉ.प्रकाश चंद जैन
भारत के पुनर्निर्माण के उद्देश्य को लेकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता को
जगाकर देश की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान देने और दुनिया के सामने भारतीय सभ्यता
के वेदान्तिक एवं धार्मिक एकता के संदेशों का प्रचार करने वाले करोड़ों भारतीयों के
प्रेरणास्त्रोत बने युवा सन्यासी स्वामी विवेकानद की जयंती के उपलक्ष में 12
जनवरी को हम बड़े गर्व के साथ राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते
हैं |
राजा राममोहन राय, केशव सेन, स्वामी
दयानन्द सरस्वती, न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे,
एनी बेसेंट, और अन्य चिंतकों और समाजसुधारकों
ने समाज में नव जागृति पैदा की उसको स्वामी विवेकानंद चरम सीमा तक ले गए | रामकृष्ण परमहंस के पट्ट शिष्य विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था जिनका बचपन का
नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था | नरेन्द्रनाथ का व्यक्तित्व आकर्षक
और कसरती बदन काफी पुष्ट था | वे कुश्ती, बॉक्सिंग, घुड़दौड़, और तैराकी
में दक्ष थे | चार-पांच वर्षों तक संगीताचार्यों के सानिध्य
में गायन और संगीत की शिक्षा ग्रहण कर वे संगीत और तबला बजाने में प्रवीण हो गए थे
| वह स्वयं गीत लिखते भी थे और उन्होंने भारतीय संगीत के
दर्शन और विज्ञान पर संदर्भ ग्रन्थ भी प्रकाशित किया था | वे
बड़े सुरीले गायन के साथ कलापूर्ण नृत्य भी करते थे | कॉलेज
में उन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, गणित,
और दर्शन का अध्ययन किया | संस्कृत और
अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार था | इतिहास कार गिबन के इतिहास ग्रंथों, अंग्रेज़ दार्शनिक,
जीव- विज्ञानी, समाजशास्री
हरबर्ट स्पेंसर के मानवीय संस्कृ्ति व समाजों की क्रमिक विकास की अवधारणा, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक,
एवं दार्शनिक चिन्तक जॉन स्टूवर्ट मिल के उपयोगितावाद, देकार्त, ह्यूम, कांट, शोपेनहावर, डार्विन, स्पिनोजा
आदि दार्शनिकों और शेली के सर्वात्मवाद और दर्शन प्रेमी वड्सवर्थ का काव्य के
अध्ययन से उनके अंदर एक आलोचक और विशलेषक मन विकसित हुआ | वे
फ्रांसीसी क्रान्ति के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व
तीनों सिद्धांतों से प्रभावित हुए |
उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय युवाओं की हिन्दू
समाज में प्रचलित कुरीतियों के कारण हिन्दू धर्म पर श्रद्धा कम होती जा रही थी |
स्वयं नरेंद्रनाथ दत्त विद्यार्थी-जीवन में शंकावादी ही नहीं अपितु
घोर नास्तिक भी थे | सृष्टि क्या है, इसका
नीयंता कौन है, यह आकस्मिक घटना है या इसके पीछे कोई नियम
काम कर रहा है, जन्म से पहले हम कहां थे और मृत्यु के बाद हम
कहां जाएँगे ? विवेकानंद के मन में द्वंद्व चलता रहा
कि पश्चिमी विचारकों के निर ईश्वर भौतिकवाद को मानना चाहिए या ईश्वर के दृढ़ भारतीय
विश्वास को | ऐसी जिज्ञासाएं उन्हें आरम्भ में ब्रह्म-समाज
की ओर ले गई जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने और उसे प्रगतिशील बनाने की दिशा में
काम कर रहा था | इसी दौरान उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई
जो उनके जीवन में मोड़ साबित हुई | रामकृष्ण भगवद्भक्ति में
मतवाले रहस्यवादी थे, जो सब प्रकार की पूजाओं में ईश्वर की
पूजा, सब प्रकार की धार्मिक साधना में उसी ईश्वर को खोज पाते
थे, जिसकी तरफ सब कदम बढ़ा रहे हैं, यद्यपि
उनके मार्ग अलग-अलग हैं | उनकी भक्ति ने उन्हें सिखाया कि वह
सब कुछ त्याग दिया जाए जो आत्म-ज्ञान के मार्ग में बाधा पहुंचाता हो और मानवता के
प्रति प्रेम और करूणा अपनाई जाए | विवेकानंद में वेदांत धर्म
पर आधारित रामकृष्ण की शिक्षाओं और कार्य ने ऐसी आस्था जगाई थी जो उनकी बुद्धि की
सारी शंकाओं का समाधान करती थी और उनकी आत्मा को तृप्त करती थी | उन्होंने इस्लाम, बौद्ध और ईसाई धर्मों का अध्ययन
किया और जाना कि हिन्दू धर्म जिन सब मूल्यों की शिक्षा देता है, अन्यान्य धर्म भी वही शिक्षा देते हैं | विवेकानंद
ने रामकृष्ण के सन्देश के प्रचार का व्रत्त लिया और ग्रहस्थाश्रम त्याग कर सन्यासी
बनकर हिमालय में छः वर्ष साधना की | साधना पूर्ण कर भारत
भ्रमण पर निकले | भारत के भ्रमण से उन्हें जनसाधारण के भयंकर
कष्टों और लोगों की उस नैतिक और भौतिक दुर्दशा और गंदगी से परिचय हुआ जिसके गहन
अंधकार में भारत डूबा हुआ था | वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि
जनसाधारण की सुप्त दिव्यता को जगाकर ही देश की प्रगति हो सकती है | उन्होंने आत्मनिष्ठ धर्म के बौद्धिक कल्पना-विलास को त्यागकर अपना पहला
कर्त्तव्य स्थिर किया--"दरिद्र-जन की सेवा और उनका उद्धार |"
1893 में विवेकानंद अमेरिका गए | उनके विदेश जाने का
प्रबंध मैसूर और खेतड़ी के महाराजा ने की | वे पहले हिन्दू
सन्यासी थे जिन्होंने समुद्र पारकर पश्चिमी देशों की यात्रा की | शिकागो में उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन में भारत की सार्वदेशिकता और विशाल
ह्रदयता पर अपने भाषण में कहा:
"मैं
एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता
तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की शिक्षा दी है | हम लोग सब
धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को
सत्य मानकर स्वीकार करते हैं | मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने
पर गर्व है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और
शरणार्थियों को आश्रय दिया है | आप लोगों को यह बताते हुए
मैं गौरव महसूस करता हूँ कि जिस वर्ष रोमन जाति के भयंकर उत्पीड़न और अत्याचार ने
यहूदियों के पवित्र देवालय को चूर-चूर कर दिया था, उसी वर्ष
यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश दक्षिण भारत में आश्रय के लिए आया था तो हमने
उन लोगों को सादर ग्रहण किया और आज भी उन लोगों को अपने हृदय में धारण किये हुए
हैं | ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व महसूस करता हूँ
जिसने जरथ्रुस्त के अनुयायियों और बृहत् पारसी जाति के अंश को शरण दी थी और जिसका
पालन वह आज तक कर रहा है | जैसे विभिन्न नदियां विभिन्न
स्त्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे
प्रभो ! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार सीधे-सहज और टेढ़े-मेढ़े विभिन्न राहों से जाने
वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं |"
विवेकानंद की कीर्ति तत्क्षण देश-देशांतर में फ़ैल गई और भारतवासियों सिर
गर्व से ऊँचा हो गया | अमेरिकी समाचार-पत्रों ने उन्हें
सर्वधर्म सम्मेलन के अनन्य महान व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया | विवेकानंद के भाषण पर ‘न्यूयार्क क्रिटिक’ ने टिप्पणी दी कि : "एक
हिन्दू सन्यासी ने धर्ममहाभा की मूल नीति और उसकी सीमाबद्धता की जितने सुंदर तरीके
से व्याख्या की है, अन्य कोई भी वैसा नहीं कर पाया | वे दैवशक्ति-सम्पन्न वक्ता हैं और अपनी निश्छल उक्तियाँ जिस ओजस्वी,
मधुरवाणी, ज्ञानमयी भाषा के माध्यम से व्यक्त
करते हैं, वह उनके गेरूआ वस्त्र और बुद्धिदीप्त दृढ़ मुखमंडल
की तुलना में कम आकर्षक नहीं है | उनकी शिक्षा, वाग्मिता (पांडित्य, उत्तम वक्तृत्व शक्ति ) और
मनमोहक व्यक्तित्व ने हमारे सामने हिन्दू सभ्यता की एक नई धारा उन्मुक्त की है |
उनका प्रतिभादीप्त मुखमंडल, गंभीर और सुललित
कंठ-स्वर स्वतः ही मनुष्य को उनकी तरफ आकृष्ट करता है और विधि-प्रदत्त संपद की
सहायता से तथा इस देश बहुत से क्लब और गिरजों में प्रचार के फलस्वरूप आज हम लोग
उनके मतवाद से परिचित हुए हैं | वे किसी प्रकार के नोट बनाकर
व्याख्यान नहीं देते | लेकिन अपने वक्तव्य का विषय वे
धारावाहिक ढंग से व्यक्त करते हैं और अपूर्व कौशल तथा एकांतिकता के साथ वे मीमांसा
करते हैं | अंतर की गंभी प्रेरणा उनकी वाग्मिता को अपूर्व
ढंग से सार्थक कर देती है |"
अमेरिका
के श्रेष्ठ अख़बार 'हेराल्ड’ ने लिखा कि "धर्मसभा में
विवेकानंद ही निर्विरोध रूप से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं | उनका
भाषण सुनकर हम समझ सकते हैं कि इस शिक्षित जाति में धर्म प्रचारक भेजना कितनी
निर्बुद्धिता का काम है |"
न्यूयार्क में व्याख्यान-मालाओं और व्यक्तिगत प्रशिक्षण के माध्यम से
उन्होंने वेदांत शिक्षा का प्रसार किया | (वेदान्त ज्ञानयोग
का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है।
इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और वैदिक साहित्य का सार समझे जाते हैं।
उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त
कहते हैं। कर्मकाण्ड और उपासना का मुख्यतः वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है,
ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त'
का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अन्त'
(अथवा सार ) न्यूयार्क में श्री फ्रांसिस लेगेट की अध्यक्षता में
उन्होंने वेदांत-समाज की स्थापना की, जो आगे चलकर अमेरिका
में वेदांत आंदोलन का केंद्र बना | इसके आलावा
सैनफ्रांसिस्को, आलमीडा और ऑकलैंड में भी वेदांत केंद्र खोले
| सेंटाकलारा जिले के एक सौ साथ एकड़ वन-भूमि में छात्रों को
आश्रम जीवन का अभ्यास कराने के लिए एक आश्रम की स्थापना की |
अमेरिका
में विवेकानंद का अनेक समर्थ बुद्धिजीवियों से परिचय हुआ जैसे- हार्वर्ड
विश्वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्रोफेसर डॉ. प्रोफेसर राइट, दार्शनिक विलियम जेम्स, और महान विद्युत-शास्त्री
निकोलस टेसला जिन्होंने विवेकानंद के प्रति सहज सहानुभूति प्रकट की थी | अमेरिका के सबसे बड़े शहर डेट्रायट में विवेकानंद की भेंट मिस मारग्रेट
नोब्ल से हुई जो सिस्टर निवेदिता के नाम से उनकी घनिष्ठ सहचरी बनकर भारत आ गई |
सिस्टर निवेदिता ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया और भारतीय तपस्वी समाज में
प्रवेश करने वाली पहली पाश्चात्य महिला का गौरव हासिल किया | स्वामीजी ने उन्हें महिला- शिक्षा का कार्य
सौंपा | स्वामी विवेकानन्द के 1895 में
न्यूयार्क प्रवास के दौरान इंग्लैंड के आशुलिपिक जोशिया जॉन गुडविन सम्पर्क में आए
| जे. जे. गुडविन सब कुछ छोड़कर स्वामी जी की शरण में आ गए |
ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अपना जीवन गुरू को समर्पित कर दिया और आजीवन
अवैतनिक सचिव का कार्यभार संभाला | वे स्वामी जी के साथ
कोलकाता आ गये और मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे | स्वामी जी के
अमेरिका, यूरोप और भारत में दिए गए भाषणों सारे शॉर्ट-हैंड
नोट गुडविन ने लिए थे | इस विदेशी भक्त के हम कृतज्ञ रहेंगे
जिनकी निष्ठा की वजह से स्वामी जी के सन्देश हमें सही-सलामत मिल सके | कप्तान पद से अवकाश प्राप्त श्री सेवियर और उनकी पत्नी विवेकानंद के अद्वैतवाद के विचार, व्याख्यान और
व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके सहचर हो गए और भारत आ गए | दोनों ने विवेकानंद की कल्पना के अद्वैत आश्रम की स्थापना हिमालय के
पर्वतीय स्थान पर की और आश्रम में बालकों को शिक्षा देने में अपना जीवन बिताया |
सितंबर
से नवंबर 1895, अप्रैल से जुलाई 1896 और
अक्टूबर से दिसंबर 1896 तक विवेकानंद ने यूरोप में प्रवास
किया | यूरोप में उनका मैक्समूलर और पाल ड्यूसन जैसे भारत
विद्या-विशारदों और अद्वैतवादी प्रोफेसर डॉयसन से साक्षात्कार हुआ | जर्मन निष्ठावान वेदांती आचार्य पाल ड्यूसन के साथ उनके मधुर संबंध बने |
अमेरिका और यूरोप की चार वर्ष की यात्रा पूरी कर जब विवेकानंद भारत
लौटे तब हजारों की संख्या में विदेशी उनके अनुयायी बन चुके थे | स्वामी जी पश्चिमी देशों में भारत के आलोचकों के आक्षेप का सामना करते हुए
पाश्चात्य की श्रेष्ठता को चुनौती देकर स्वधर्म की आध्यात्मिक श्रेष्ठता और इसके
अतुलनीय महत्त्व को प्रतिपादित किया और वहां से प्रशंसा और सम्मान अर्जित कर भारत
लौटे थे | उनकी शिक्षाओं ने रूसी उपन्यासकार लियो टॉलस्टॉय,,
फ्रांसीसी विचारक और लेखक रोमाँ रोलाँ, फ्रेंच
अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, अरविन्द गोष, और सुभाष आदि को प्रभावित किया |रवीन्द्रनाथ टैगोर
ने कहा है : "यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानंद को पढ़ना चाहिए
|" अरविन्द का वचन है कि "पश्चिमी जगत में
विवेकानंद को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि
भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जगा है, वरन् वह
विश्व-विजय करके दम लेगा |" सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है
कि "स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था |
नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगाई, उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उसके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की |
उनके उद्गारों से लोगों में आत्म-निर्भरता और स्वाभिमान के भाव जगे
हैं | स्वामीजी ने सुस्पष्ट रूप से राजनीति का एक भी सन्देश
नहीं दिया, किन्तु जो भी उनके अथवा उनकी रचनाओं के सम्पर्क
में आया, उसमें देशभक्ति और राजनैतिक मानसिकता आप-से आप
उत्पन्न हो गई |"
भारत लौटकर स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की | मिशन के दो केंद्र-- पहला, कलकत्ता के पास बेलूर में और दूसरा, अल्मोड़ा के पास
मायावती में स्थापित किए, जहां नौजवानों को सन्यासी के रूप
में धार्मिक एवं समाज कल्याण संबंधी कार्यों की दीक्षा दी जाती थी | देश के विभिन्न भागों में इस मिशन की शाखाएं स्थापित की | स्वामीजी का सबसे ज्यादा जोर सामाजिक कार्यों पर था इसके लिए कई विद्यालय,
पुस्तकालय अस्पताल, सेवा-केंद्र, अनाथालय, खोले | दमे के रोगी
होने के बावजूद वे मिशन के संगठन में जुटे रहे | वहाँ
सामूहिक रूप से कार्य जारी था | संस्कृत, प्राच्यविद्या, पाश्चात्य दर्शन, शारीरिक श्रम और ध्यान सभी कुछ सिखाया जाता था | वह
स्वयं औरों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करते हुए तत्व मीमांसा पर व्याख्यान देकर खेत
जोतने, कुआँ खोदने और आटा गूंथने में हाथ बंटाते थे |
विवेकानंद ने अपने संदेशों में जाति-प्रथा, अस्पृश्यता,
कर्मकांड, संकीर्णता, सम्प्रदायवाद,
रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास की निंदा की | स्वाधीनता,
साहस, संयम, सहिष्णुता,
समानता, स्वतंत्र चिंतन और सर्वधर्म समभाव की
भावना अपनाने पर जोर दिया | उनके आदर्श थे सहिष्णुता और
विश्वधर्म | स्वामी जी का सम्पूर्ण अस्तित्व प्रेममयी करूणा
के अमृत से ओतप्रोत था | स्वामी जी जितने ज्ञानी और पंडित
हैं उतने ही मानवतावादी और ईश्वर के अनुगामी भी थे | वे ऐसे
धर्म में विश्वास करते थे जो हमें अपने में विश्वास देगा, राष्ट्रीय
आत्म-सम्मान देगा, अपने चारों ओर के दुःख-दैन्य को दूर करेगा,
निर्धन को भोजन और शिक्षा देने की शक्ति देगा | अगर भगवान को खोजना है तो मनुष्य की सेवा करो |
1897 में भारत में प्लेग और अकाल से लोग भूखे मर रहे थे तब आपने लाहौर में भाषण
में कहा :"साधारण मनुष्य का धर्म यही है कि वे दीन-दुखियों को भोजन
कराएं | मनुष्य का ह्रदय ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है और इसी
मंदिर में उसकी आराधना करनी होगी |" गरीबों के प्रति
सहानुभूति प्रकट करते हुए उन्होंने कहा : "हम पूजा के इस तामझाम को यानी
देवमूर्ति के सामने शंख फूंकना, घंटा बजाना और आरती करना
छोड़ें | हम शास्त्रों के पठन-पाठन और व्यक्तिगत मोक्ष के लिए
सब तरह की साधनाओं को छोड़ दें और गांव-गांव जाकर गरीबों और पीड़ितों की सेवा करने
का बीड़ा उठा लें | ईश्वर की सच्ची उपासना यह है कि हम अपने
मानव-बंधुओं की सेवा में अपने-आपको समर्पित कर दें | जब
पड़ौसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं,
पाप है | जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो,
तब हवन में घृत जलाना अमानुषिक कर्म है |" दुखी मानव की सेवा के लिए इतने तत्पर थे कि एक बार उन्होंने अपने एक शिष्य
से कहा था : 'मेरा मन कह रहा है कि जगत के दुःख निवारण के
लिए, किसी का रंच मात्र क्लेश मिटने के लिए यदि सहस्त्र बार
जन्म लेने का दण्ड भोगना पड़े तो सहर्ष भोगूँगा |"
छुआछूत की कड़ी निंदा करते हुए कहा : “हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा
धर्म रसोईघर में न बंद हो जाए | हम केवल 'हमें मत छुओ' के समर्थक हैं | हमारा
ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि 'हम
पवित्र हैं, हमें मत छूना |' अगर यह सब
कुछ एक शताब्दी और चलता रहा तो हममे से हर एक व्यक्ति पागलखाने में होगा |"
उन्होंने
समाज की विषमताएं दूर करने के लिए सवर्णों और अवर्णों के बीच अंतर्जातीय विवाह का
उपदेश दिया ताकि पारस्परिक निकटता बढ़े, अछूतों की दशा
सुधारने का कार्य हाथ में लिया, विधवा महिलाओं के पुनर्विवाह
पर जोर दिया, साम्प्रदायिकता और रूढ़िवादिता की निंदा की |
उन्होंने भारतीय आध्यात्म के साथ पाश्चात्य विज्ञानं में समन्वय का
प्रयत्न किया और ऐसी शिक्षा पर जोर दिया जिससे किताबी पंडित या न अफसर बनाये बल्कि
एक सही मानवता का निर्माण करे |
अंधविश्वासों और जादू-टोने की से दूर रहने के लिए उन्होंने कहा :
"ये चीजें तुन्हें शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप
से कमजोर बनाती है, उनको ज़हर की तरह छोड़ दो, उसमें कोई जिंदगी नहीं है, वह मिथ्या है वह सत्य
नहीं हो सकती | सत्य की कसौटी हाथ में लो, सत्य मजबूती लाता है, सत्य पवित्र है, सत्य ज्ञान है, सत्य कल्याणकर है, सत्य प्राणप्रद है | अन्धविश्वास से सावधान रहो |
अंधविश्वासी मूर्ख की जगह अगर तुम कट्टर नास्तिक हो, तो मैं ज्यादा पसंद करूंगा | नास्तिक जिन्दा होता है,
उससे कुछ बन पड़ सकता है | लेकिन जब अन्धविश्वास हममें समा जाता है, तो दिमाग गायब हो
जाता है और जिंदगी का खात्मा शरू हो जाता है | अन्धविश्वास
और जादू-टोन हमेशा कमजोरी की निशानी है | प्रमाद त्याग
दो, शक्ति का वरण- करो, कण-कण में ही
तो सहज सत्य व्याप्त है, तुम्हारे अस्तित्व जैसा
ही सहज है वह, उसे ग्रहण करो |"
भारत में सवर्णों और शूद्रों की भीषण असमानता पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते
हुए कहा : "हमारे देशवासी जब रोटी-कपड़े को तरस रहे हों तो क्या हम अपने मुख
में ग्रास देते लज्जित नहीं होते | हमारे देश में दलित की,
विपन्न के संताप की चिंता कोई नहीं करता, जो
राष्ट्र की रीढ़ है, जिसके परिश्रम से अन्न उत्पन्न होता है |
जब तक हम अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की दीवारें ढहाकर एक नहीं होंगे
भारतमाता का उद्धार नहीं होगा | छुआछूत जैसी कुरीति पर
सवर्णों को लताड़ते हुए कहा : “मत समझों कि वे भूख के मारे किसी लालच या तलवार के
जोर पर धर्म-परिवर्तन करने को तैयार हुए हैं | इसलिए हुए हैं
कि तुम उन्हें अपनी संवेदना नहीं दे सकते | तुम निरंतर कहते
रहते हो, 'छुओ मत ! यह मत छुओ, वह मत
छुओ |' इस देश में कहीं कोई दया-धर्म बचा है कि नहीं ?
या कि केवल 'मुझे मत छुओ' रह गया है |"
विचारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा: "विचार और धर्म की
स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की एकमात्र शर्त है |
जहां यह न हो वहां मनुष्य, जाति और राष्ट्र
सभी का पतन निश्चित है |”
युआवों में वीरता, बलिदान, निर्भयता
मनोबल और देशभक्ति की उच्चभावना बढ़ाते हुए स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा:
"मेरे नौजवान दोस्तों ! बलवान बनों ! तुम्हारे लिए मेरी यही
सलाह है | तुम भगवद्गगीता के स्वाध्याय की अपेक्षा फुटबाल
खेलकर कहीं अधिक सुगमता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो | जब
तुम्हारी रगें और पुट्ठे अधिक दृढ़ होंगे तो तुम भगवद्गीता के उपदेशों पर अधिक
अच्छी तरह से चल सकते हो | गीता का उपदेश कायरों को नहीं
दिया गया था, अर्जुन को दिया गया था जो बड़ा शूरवीर, पराक्रमी और क्षत्रिय-शिरोमणि था |"
किसी भी धर्म या उसके ग्रंथों में उपस्थित सत्य को तर्क,
बुद्धि तथा विज्ञान की कसौटी पर परखने पर जोर देते हुए कहा :
"क्या धर्म बुद्धि के उन आविष्कारों द्वारा अपना औचित्य सिद्ध करेगा जिनके
द्वारा प्रत्येक विज्ञान अपना औचित्य स्थापित करता है ? क्या
जांच-पड़ताल की वे विधियां जो विज्ञानों तथा ज्ञान के लिए प्रयुक्त होती हैं,
धर्म के विज्ञान पर भी लागू की जाएँगी? मेरे
विचार में ऐसा ही होना चाहिए और मैं यह भी मानता हूँ कि यह जितना जल्दी हो उतना
बेहतर है |" उन्होंने इहलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति
और भौतिक समस्याओं के समाधान के लिए धर्म के इस्तेमाल पर जोर देते हुए कहा था कि
"तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है, कौन इसकी
परवाह करता है कि तुम्हारे धर्मग्रंथ क्या कहते हैं ? मैं
बड़ी खुशी से हजार बार नरक जाने को तैयार हों, अगर इससे मैं
अपने देशवासियों को ऊंचा उठा सकूँ |"
भारत में विवेकानंद को नये हिन्दू गौरव के
दार्शनिक योद्धा के रूप में बताया जा रहा है | न, वह ऐसे पुरूष नहीं थे जो धर्म की दीवारों की चिंता करें | वे अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस की तरह मानवतावादी और सभी धर्मों की
बुनियादी एकता पर जोर देते थे | उनके उपदेश किसी भी धर्म के
विरोधी नहीं है | सभी धर्मों के प्रति उनकी सम्पूर्ण संवेदना
रही | उन्होंने एक ऐसे धर्म का प्रचार किया जो दुनिया
में मौजूद सभी प्रकार के धर्मों में निहित है | उनके गुरू
रामकृष्ण ने तो छः महीने तक विधिवत् मुसलमान होकर इस्लाम की साधना भी की थी |
इस संस्कार के कारण इस्लाम के
प्रति उनका दृष्टिकोण यथेष्ट रूप से उदार था | इस्लाम और
हिंदुत्व के मिलन का महत्त्व स्वामीजी ने एक और उच्च स्तर पर बतलाया है |
1898 में उन्होंने लिखा था: "हमारी अपनी मातृभूमि का कल्याण तो
इसमें है कि उसके दो धर्म- हिंदुत्व और इस्लाम मिलकर एक हो जाएं | इस संयोग से जो धर्म खड़ा होगा वही भारत की एकमात्र आशा है |"
स्वामीजी को यूरोप और अमेरिका का तरंगित जीवन, पौरूष, आर्थिक नीति, शिक्षा-व्यवस्था,
स्वच्छता, सौंदर्य-भावना, औद्योगिक संगठन और संयोजन की शक्ति और विज्ञान
की प्रगति, संग्रहालय और कलाभवन, आरोग्य
संस्थाएं समाज-कल्याण इन बातों ने स्वामी जी को प्रभावित किया किन्तु पश्चिमी
सभ्यता के दोषों का पर्दाफास भी उन्होंने किया | पश्चिम को
स्वामीजी ने संयम और त्याग की शिक्षा दी तो भारतीयों को कर्म की भावना से आंदोलित
करने की चेष्टा की | वैश्विक समानता लाने हेतु एक निष्ठावान
आदान-प्रदान, भाईचारा, पारस्परिक सहयोग
पर जोर देते हुए उन्होंने कहा : "धर्म और आध्यात्मिकता स्तर की चीजें हम
उन्हें देंगे और बदले में भौतिक साधनों का दान हम सहर्ष स्वीकार करेंगे | उद्यम द्वारा पाश्चात्य की कर्मेष्णा और तेजस्विता के कुछ उपादान
भारतवासियों के शांत गुणावली में मिला दिए जाएं तो अब तक पृथ्वी पर जितने भी तरह
के मनुष्य नजर आते हैं, उन सबसे काफी उत्कृष्ट किस्म के
मनुष्य आविर्भूत होंगे |"
स्वामीजी ने भारतीय समाज में छाये अंधकार को दूर करने हेतु आध्यात्म एवं
मानव-दर्शन की मशाल जलाई और समूचे भारत के आत्मगौरव को जगाकर 39 वर्ष की अल्पायु में ही 4 जुलाई, 1902 को इस दुनिया से महाप्रयाण कर गए |
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