शनिवार, 13 जनवरी 2024

साधो,देखो जग बौराना- राजेन्द्र कसवा

 राजेन्द्र कसवा
साहित्यकार 

राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा 
प्रतिष्ठित साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित

साधो,देखो जग बौराना

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उस समय मेरी आयु १०-१२ साल रही होगी।मेरी मौसी, जो सगी चाची भी लगती थी,का असामयिक निधन हो गया।वह तीस की भी नहीं हुई थी।जवान मौत थी, इसलिए परम्परा के बावजूद मृत्यु भोज नहीं हो सकता था।तेरहवें दिन कुछ कर्मकांड हुआ। गर्मियों के दिन थे। मुझे इस कर्मकांड में बैठने के लिए कहा गया।पूर्ण होने तक पानी भी नहीं पीना था। कर्मकांड के बाद मुझे चूरमा बना कर देने का लालच भी दिया गया।

स्नान करने के पश्चात, सुबह ही मुझे सिर्फ जांघिया पहने बैठा दिया गया।नौ बजे के आसपास पंडित जी आए। लगभग दो-ढाई घंटे कर्मकांड चलता रहा। मैं पालथी मारकर बैठा रहा। तत्पश्चात पंडित जी ने वहीं  अपने लिए चावल पकाएं और घी-खांड के साथ भोग लगाया। मुझे मंदिर में सिर्फ खांड घोलकर मीठा पानी दिया गया।घर आने के बाद वायदे के अनुसार चूरमा खाने को दिया।

उन्हीं दिनों गांव भर में चर्चा हुई कि जिस भी घर में रामलीला की रसोई दी गई, उस घर में एक जवान मौत हुई।यह रामलीला की रसोई क्या थी?

उन दिनों गर्मियों में यूपी से रामलीला करने वाला दल आता था।वे मंदिर में रुकते और गांव के गुआड़ में रात को रामलीला का मंचन करते।वे रात को ही मंच से ऐलानिया पूछते --कल रामलीला की रसोई कौन करेगा?

कोई श्रद्धालु खड़ा हो आने वाले दोपहर को रसोई देने की घोषणा करता। इस पर रामलीला वाले उस व्यक्ति की शान में कसीदे पढ़ते और जय-जयकार करते। मेरे पिताजी ने भी एक दिन रामलीला की रसोई दी।

दोपहर को राम -लक्ष्मण-सीता को कंधे पर उठाए, रामलीला दल हमारे घर आया। हनुमान जी गंदा लिए अपनी लाल पोशाक में थे।'बोल सियाबर रामचंद्र की जय' बोलते हुए आए। भोजन करके चले गए।यह याद नहीं कि वे रात को मंदिर में खाना खुद बनाते या एक ही समय खाते थे।शाम या रात को किसी के घर नहीं जाते थे।

जवान मौतों से दुखी गांव वालों ने कब फैसला किया,यह मुझे याद नहीं, लेकिन बाद में कभी भी गांव में रामलीला वालों को नहीं बुलाया गया। पड़ोसी गांव में हम लड़के रामलीला देखने जाते थे। तभी पता चला कि अपने गांव में कभी भी रामलीला नहीं होगी।

मौसी मुझे बहुत स्नेह देती थी। कभी मजाक में कहती --या तो तू अपने चाचा को मौसा कह या फिर मुझे चाची कहना चाहिए। ननिहाल से मौसी मेरे लिए छोटी सी धोती भी लाती थी।उस धोतिया को बांध कर मुझे खेत में ले जाती।

किशोर अवस्था में आने के बाद मैं बार -बार सोचता कि आखिर मौसी ने क्या अपराध किया था। अन्य घरों के युवा भी असमय कैसे चले गए। रामलीला की रसोई तो पुण्य का काम था। बस,उसी के बाद दशरथनन्दन रामचंद्र के प्रति मेरी आस्था खत्म हो गई।

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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