चौकीदारिन माई
गाँव में सब चौकीदारिन माई कहते थे उसे । सुनते थे कि वहाँ के नवाब ने उसके पति को अपने
इलाके का चौकीदार नियुक्त किया था।लम्बी मूँछे, विशाल कद काठी,गठीला शरीर,रोबदार
चेहरा । घोड़े पर बेठकर निकलते तो चोर
डाकुओं की रूह काँप जाती थी । अब तो उनको गुजरे अरसा हो गया। चौकीदारिन माई उनकी
दूसरी पत्नी थी और उनसे करीब दस साल छोटी थी
मध्यछम कद-काठी, गाँव की सादगी-भरी वेश-भूषा, पैरो में चाँदी की मोटी-मोटी कडि़याँ, गौर वर्ण,
ललाट पर चंदन का पीला टीका,चेहरे पर
वृद्धावस्था को दस्तक देती झुर्रियां, माथे पर चाँदी से
चमकते श्वेात केश,पर चाल और आवाज में युवतियों जैसा जोश ।
कुल मिलाकर यह था चौकीदारिन माई का रूप ।वैसे तो वह बेटे-बहुओं के पास रह रहीं थी,
पर घर पर वह मुशिकल ही रुक पाती थीं।
दाई भी थी,तो घरेलू नुस्खों का खजाना लिए नर्स भी ।परम्पराओं को समझने वाली विशेषज्ञ
भी थी, तो गाँव भर की महिलाओं के लिए एक सास,सखी-सहेली
ओर भरोसेमन्द सहायक भी थी । कभी-कभी
महिलाएँ हँसी ठिठोली करतीं—‘’माई, भगवान ने एक साथ सारे गुण आपको ही क्यों दे दिए? हमसे क्या दुश्म नी थी?’’
माई हँसकर रह जाती—‘’ अच्छा हुआ मेरी बहना, नहीं तो चक्करधिन्नी हो जाती, मेरी तरह । पर
जो चाहता है वह सीख जाता है । बिना गुणों
के तो इंसान रद्दी कागज से भी बदतर है ।
रामू को याद आ रही थी वह भयकंर रात,जब उसकी माँ पाँच बच्चों को छोड़कर चल बसी थी। दो भाई और दो बहिनें उससे छोटे थे।पिताजी बाहर नौकरी करते थे । वह
खुद पास ही के शहर में किराए का कमरा लेकर कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था।छह महीने पहले
ही माँ ने जिद करके उसके हाथ पीले कर दिए थे ।अब उसके परिवार पर दु:खों का पहाड़
टूट पड़ा था ।गृह-लक्ष्मीव की जिम्मेदारी
उसकी पत्नी राधा पर आ गयी थी,और वह भी पन्द्रह वर्ष की वय
में ।दिन तो किसी तरह निकल जाता था, पर जिस दिन वे दोनो
बाप-बेटे नहीं होते थे, बच्चों को डर लगने लगता था । एक रात
राधा चारों बच्चों के साथ छत पर सोयी हुई थी, कि अचानक एक
बिल्ली कहीं से निकल कर चली गई ,तो सारे बच्चे डर के मारे
चिल्ला उठे । आस-पास के मौहल्ले वाले आधी
रात को भाग कर आए । दूसरे दिन सबने
निश्चलय किया कि कुछ दिनों के लिए चौकीदारिन माई को धन्ना के घर सोने के लिए सहमत
किया जाए। माई के बेटे-बहुओं से पूछा गया तो बोले —‘’वैसे भी
सारे दिन गाँव में घूमती फिरती है,हमारे क्या काम है? कहीं भी रहे,
हमारी बला से । ‘’
रामू के मष्तिष्कब में एक चलचित्र अनवरत चल रहा था । कि कैसे
दूसरे दिन से ही चौकीदारिन माई उनके परिवार का अंग बन गयी थी । शाम को माई के आते ही आस-पड़ौस की औरतें ,बच्चों आदि का जमघट लग जाता । उसके पति की बहादुरी
के किस्से,विपन्नता की घडि़यों में एक दूसरे पर जान देने के
जमाने की बातें, गाँव के पंचों द्वारा गाँव में ही निपटाए गए
बड़े-बड़े झगड़ों की कहानियाँ माई से खूब सुनने को मिल रही थी। दिन में तो माई को
फुर्सत ही नहीं मिलती थी ।कभी किसी के
चेचक, हैजा, या न्यूमोनिया हो जाता था
तो माई को बुलाया जाता और माई रोगी
को तुलसी, सौंठ ,लौंग,काली मिर्च और न जाने किन किन औषधियों का काढ़ा बनवाती। कमरा, बरतन,कपड़े सब अलग रखवाती । रोगी के कमरे और खाट के
चारों पायों पर नीम के झूरे बाँधती ।नीम
की पत्तियों को उबाल कर उससे ही रोगी के हाथ-पैर धुलवाए जाते । ओर ईश्वोर( ईष्टक
) का नाम लेकर झूरों से
झाड़ा लगाया जाता । चौकीदारिन माई पूरी तरह समझा कर ही आती। यदा-कदा उसकी
देखरेख चलती रहती ।
आज तो सुबह ही सुबह छीतर आ बैठा । ‘’माई,चलो,
आज बेटी का गौना है । गहने,कपड़े,नेगचार का सारा काम तुम्हारे बताए अनुसार ही होगा । हमने तो लापसी पूड़ी
और दाल का इंतजाम कर दिया है,बाकी तुम जानो, तुम्हारा काम । ‘’
वहाँ से वापस आई तो घर पर
दो-तीन ओरतें हँसली(गले की हड्डी) ठीक करवाने के लिए अपने अपने शिशुओं को लेकर
बहुत देर से इंतजार कर रहीं थी ।
सुबह-सुबह
माई मन्दिर अवश्या जाती थी। ईश्वपर में उनकी अगाध आस्था थी । साल में एक बार
मन्दिर में कुछ साध्वियों का दल आता,दो- तीन दिन वहाँ प्रवचन होते । माई उनसे घंटो तक ज्ञान की बातें किया
करती थी ।एक बार तो माई ने उनके साथ जाने का मन बना लिया था। परतुं गाँव के सरपंच साहब ओर गणमान्य व्यक्तियों के
समझाने पर रुक गयी ।परतुं उनके आश्रम का
पता ठिकाना लेकर बाद में फिर कभी आने का वादा कर लिया।
मन्दिर में भी कोई न कोई महिला किसी न किसी
काम से माई का इन्तजार करती मिलती। उस दिन
लछमा कह रही थी,माई क्या करूं,अब तो उसका पति रोज उसे मारने लगा है । माई गुस्से से लाल हो गई ।
बोली—‘’चल मेरे साथ , मैं करती हूँ इलाज उसका । माई को देखते
ही लछमा का पति रतना सहम गया। वह सीधे रतना की आखों में आखें डालकर बोली — रतना,
तेरे हाथ-पैर ऐंठ रहें हों
तो लड़ने के लिए मैं बता दूं नौजवान। देखती हूँ कितनी देर तक लड़ता है? इस डेढ़ पसली की औरत को मारते हुए तुझे लाज नहीं आती।मर्द है तो बराबरी
वाले से लड़। लड़खड़ाती जबान से रतना इतना ही कह पाया—‘’ माई, यह मुझसे जबान लड़ाती है, मैं क्या करूं?
तो जबान का जवाब जबान से दे । तू जब काम नहीं करेगा ,सारे दिन पड़ा रहेगा तो वह कुछ तो कहेगी ही । अचानक
माई ने रतना के हाथ में मन्दिर से लाया रामझारा रख दिया,—‘’कसम
खा गंगा मैयाकी कि आगे से इसको नहीं पीटेगा। ओर उस दिन से लछमा की समस्या का
हमेशा- हमेशा के लिए समाधान हो गया ।
गाँव में जब तक नर्स बाई नहीं आयी थी तब
तक माई ही प्रसव करवाती रही थी। पर अब माई सबको मना करने लग गई थी । कहती
थी—‘’मेरे पास न तो वैसे साधन हैं न ही सुविधाएँ जो अस्पताल में हैं । यह संयोग था
या किस्मत,पर माई द्वारा कराए सभी
प्रसव निरापद हुए । कई किशोर अब भी कभी कोई उपलब्धि मिलने पर दम ठोककर कहते हैं,आखिर घुट्टी किसकी लगी है? चौकीदारिन माई की ।
रामू को याद आ रहा था रामधन के
पोते के मुंडन का कार्यक्रम । बहुत बड़ा भोज रखा था रामधन ने ।पर सुबह से ही बादल
छा गए कि अब बरसे कि अब टपके ।सब घबरा गए
। औरतें रोने लग गईं । पर माई ने सबको हिम्मत बँधाई —‘’कोई बरसात नहीं आएगी। उसने
एक कोरा घड़ा लिया,उसे पानी से भरा,सकोरे से ढककर ऊपर नारियल रखा ,मुहँ से कुछ
बुदबुदाकर मन ही मन प्रार्थना की और जमीन में गड़वा दिया। यह सब घर की महिलाओं ने
माई की देखरेख में गोपनीय रूप से किया था। पुरूषों का प्रवेश वर्जित था।रामू को
उसकी छोटी बहिन ने चुपके से यह सब बाद में
बताया था । इसे संयोग कहैं या रामधन की किस्मत कि दोपहर बाद तेज हवा चली ओर देखते-देखते बादल उड़ गए ।
पर जस मिला चौकीदारिन माई को । ओरतों ने
माई के पाँव पकड़ लिए —‘’माई तेरा टोटका काम कर गया । पर माई ने इतना ही कहा-
‘’जब ईश्वर की कृपा होती है तो सब
अच्छा ही होता है,टोटके तो मन के
समझाने की बातें हैं,री।‘
विवाह के अवसरपर माई को दस दिन पहले ही
लोग लेने आ जाते। विनायक स्थापना से लेकर गणेश विदाई तक के सारे कार्यक्रम
चौकीदारिन माई की देखरेख में ही होते ।माई का काम केवल सलाह देना ,तरीका समझाना,और गलती करने पर
कभी-कभी मीठी झिड़की देना था।मांगलिक गीतों की लय ,बोल और
किस अवसर पर कौनसा गीत गाना है ,जैसी बातों में माई का ही
निर्देशन चलता था । माई की उपस्थिति ही
अपने आप में कार्यक्रम की सफलता का आश्वाचसन था। कार्यक्रम समाप्त होने पर सम्मान
से माई को विदा किया जाता। माई जो लाती बेटे बहुओं में बाँट देती ।
रामू को याद आ रहा था कि जब वह शनिवार को
घर आता तो माई से सारे किस्से सुनकर ही जाता।एक दिन उसने पूछा —‘’माई आपके लिए शहर
से क्या लाऊँ?
कुछ नही रे । उत्तर देने के बजाए माई ने
अपनी लूगड़ी का पल्लू खोला और रूपयों का एक मोटा सा बंडल मुझे पकड़ा दिया ,बोली—इनको संभाल कर रख ले। पहले तो मै बेटे बहुओं
को दे दिया करती थी। पर ये कुछ रूपए मैने मेरे लिए संभाल कर रखे हैं। मैं मांगू तब
दे देना।अब मेरा मन इस गाँव से उचटने लगा है। कुछ नई पीढ़ी के लोग मुझे मूर्ख
समझते हैं । लगता है वे साध्वियां मुझे
अपने आश्रम में बुला रहीं हैं । इच्छा होती है बिना किसी से कुछ कहे चुपचाप चली
जाऊं।
राधा बोली, माई, आप जाने की बात नहीं करें । यहाँ
आपको क्या तकलीफ है । हम आपको एक संदूक ओर ताला-चाबी दे देते हैं ये रुपए आप जब चाहो ले लेना, जब चाहो
रख देना। रूपए गिनकर माई के सामने ही संदूक में रख दिए गए और चाबी माई को दे दी गई
।
उधर पड़ोस के ही किशना चोघरी की बेटी का
विवाह नजदीक आ गया । सो सुबह- सुबह ही वह माई को लेने आ गया ,बोला—‘’माई,कल से ही तुम
हमारे घर पर रहोगी ओर गणेश विदाई के बाद
ही वापस आओगी। माई कुछ जवाब देती उसके
पहले ही उसी समय सरया बाबा भी अपनी
पत्नी के साथ वहीं पहुँच गया। सरया की पत्नी बोली ,माई, मैने तुम्हे मन्दिर में एक महीने पहले ही कह
दिया था। कल पोती का ब्याह है सो साथ चलना होगा । किशना बोला—‘’माई को तो मै
लेकर जा रहा हूँ । दोनो में तनातनी बढ़
गयी । बात गाली.-गलौच से हाथापाई तक आ गयी । आस-पास के लोगों ने जेसे-तैसे करके
उनको अलग किया ।
शाम को पंचायत बैठी। पंचों को
इकट्ठा किया गया । दोनो पक्षों में पुरानी रंजिश थी । चौकीदारिन माई को भी बुलाया
गया। किशना और हरखा ने अपने-अपने तर्क रखे । आपसी बहस और तनातनी चली।गढ़े मुर्दे जमकर उखाड़े गए। माई समझ रही थी कि उसके बहाने
दोनो पक्ष अपनी-अपनी भड़ास निकाल रहे हैं । माई को यह बात अंदर तक चुभ गयी । उसका
मन खट्टा हो गया ।
पंचों
ने कहा—‘’तू ही बता माई तू कल किधर जाना
चाहती है ? किशना चौधरी की बेटी के
ब्याह में या सरया बाबा की पोती के ब्याह
में। माई दोनो हाथ जोड़कर बोली —‘’मेरे लिए तो दोनों ही बराबर हैं । मेरे लिए तो
सारा गाँव बराबर है । जैसा पंचों का हुकुम होगा मैं उधर ही चली जाउंगी ।‘
अंत में पंचों ने फैसला चौकीदारिन माई पर ही
छोड़ दिया। भोर होते ही माई स्वैच्छा से जिसके घर भी जाना चाहेगी वहाँ उसका स्वागत
होगा। पर दूसरा पक्ष उसे कुछ नहीं कहेगा। हाँ, किसी को सलाह चाहिए तो माई सबके लिए कहीं भी तैयार रहती है। माई के लिए इस
तरह से लड़ना मूर्खता से अधिक और कुछ नहीं है ।
पंचों के फैसले के बाद माई बिना किसी
से कुछ बोले सो गई ।राधा के पूछने पर माई का गला रुंध गया बोली- ये लोग अब मुझे
मोहरा बनाकर लड़ रहें हैं। मैं कोई इनकी गुलाम तो नहीं हूं। थकी हुई और उदास मन
माई की आँखों में आज नींद नहीं थी।
सुबह भोर में राधा ने देखा तो माई की चारपाई
खाली थी।रामू ने भी उसे सब जगह ढूँढा,पर माई नहीं मिली । अंदर माई की संदूक खुली पड़ी थी और रूपए उसमें नहीं थे । माई के कपड़े भी
वहां से गायब थे । कहीं सरया ,किशना या अपने बेटे-बहुओं के
पास नहीं चली गईं हों।सारे लोग कौतुहलवश
एक दूसरे से पूँछ रहे थे,माई कहाँ गई ? बेटों ने खूब
ढूँढा पर माई कहीं नहीं मिली ।
शाम तक भ्रम के बादल छँट गए —माई गाँव
छोड़कर चली गई थी ।उसी आश्रम में जहाँ जाने का वादा माई ने साघ्वियों से किया था।
सब किशना ओर सरया बाबा को बुरा-भला कह रहे थे। मोसम मैं जोरदार उमस थी । हर तरफ
माई की चर्चा थी ।उस शाम महिलाओं को खाना नहीं भाया पर जिन्होनें भी खाया बेमन से
खाया।
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