मुक्तिबोध की कविता ' ब्रह्मराक्षस ' बुद्धिजीवी वर्ग की पड़ताल और एकांतिकता से निकल कर सामाजिक संदर्भ को जीने की पहल बनाने वाली वाली कविता है ।
'ब्रह्मराक्षस' मुक्तिबोध की ज्ञान संदर्भ के उस पहलू की कविता है जो एक बौद्धिक वर्ग के रूप में चेतना के धरातल को केवल सोचने तक सीमित नहीं करती है बल्कि सोचे हुए सत्य और तथ्य की पड़ताल को एक सही निष्कर्ष तक ले जाने की वकालत करती है । 'ब्रह्मराक्षस' जिस बावड़ी में है वह शहर के एक कोने में सुनसान में परित्यक्त बावड़ी है - जहां ब्रह्मराक्षस अपने को पाता है । यहां सुनसान इलाके में वीरान हवाओं के बीच सन्नाटे में बावड़ी का होना आश्चर्यजनक नहीं है । आश्चर्यजनक यहां पर बुद्धिजीवी के प्रतीक के रूप में ब्रह्मराक्षस का होना है कि यहां पर ही क्यों ब्रह्मराक्षस ? वह क्यों नहीं अपनी चेतना और चिंताओं को लेकर समाज के बीचो बीच गया ? क्यों नहीं वह चौराहे पर गया जहां होने मात्र से उसकी उपस्थिति मात्र से संसार की स्थिति और गति में एक बड़ा परिवर्तन आ सकता था । यह हो सकता या वह हो सकता पर ब्रह्मराक्षस अपनी दुनिया में अपनी स्थितियों में पड़ा रहता है । वह केवल सोचता है और सोचे हुए तर्क और सत्य को समाज में न ले जाकर उनके अनुसार कर्म न कर केवल अपने ख्यालों में डूबे
रहना , अपनी स्थितियों में बने रहना , अपने रूप में होना ही बौद्धिक वर्ग की जिम्मेदारी नहीं है । वल्कि बौद्धिक वर्ग की बड़ी जिम्मेदारी व जवाबदेही है जिसकी ओर इशारा मुक्तिबोध करते हैं । यह उस बात का इशारा है कि है 'ब्रह्मराक्षस' किस तरह शहर के किनारे पर है - शहर के किनारे पर पड़ जाना अपने आपमें सामाजिकता से कट जाना है , जीवन को जीना और समाज से अलग थलग पड़ जाना केवल कविता का सत्य नहीं है , यह सामाजिकता का भी संकट है जो समाज में दिखाई देता है । एक बौद्धिक किस तरह एकांत और अपनी एकांतिक सोच से समाज के लिए जी नहीं पाता तो ऐसे में सामाजिक शक्तियां कैसे उसके साथ खड़ी हो फिर तो वह किनारे पर बावड़ी में अकेला ही मिलेगा यह तथ्य और सत्य के साथ कविता का सच बन समाज की एक सच्चाई बन जाता जिसका शिकार व्यक्ति समाज और सभ्यता से लेकर संस्कृति को भी होना पड़ता है । यह दृश्य अकेले में बावड़ी में होने का इसी सच्चाई को रेखांकित करता है -
'शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठंडे अंधेरे में
बसी गहराइयां जल की...
सीढ़ियां डूबी अनेकों
उस पुराने गिरे पानी में ...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो ।'
इस बात को लेकर बौद्धिक वर्ग का प्रतीक 'ब्रह्मराक्षस' नहीं चल पाता , वह समाज में नहीं आ पाता , एक किनारे ही बना रहता है । उसका इस तरह होना - जीवन में कोई मायने नहीं रखता , न ही वह समाज में सामने आता न ही देश और संस्कृति के सवालों से उसका साक्षात्कार होता , बस वह यूं ही बना रहता है । बावड़ी में किसी की भी आकांक्षाएं पूरी नहीं होती फिर 'ब्रह्मराक्षस' ही क्यों न हो ? यहां तो बस इच्छाएं घूमती रहती हैं । ऐसे में 'ब्रह्मराक्षस' के अधूरेपन को पूरा किया जाना ही सभ्यता और संस्कृति का सही प्रश्न हो सकता है जिसे मुक्तिबोध का कवि बराबर पूछता रहता है । इसीलिए कविता के अंत में एक पंक्ति आती है कि - 'मैं ब्रह्मराक्षस का सजल उर शिष्य होना चाहता हूं ।' ताकि उसके अधूरे निष्कर्षों को पूर्ण तलक पहुंचा सकूं । इसलिए बावड़ी में झांकते समय की कथा दृश्यावली में है । इसे इस तरह सामने रखा जा सकता है -
'बावड़ी को घेर
डाले खूब उलझी हैं
खड़े हैं मौन औदुम्बर ।
व शाखों पर
लटकते घुग्गुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल
विगत शत पूण्य का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसाकर
हवा में तैर
बसता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके - सी लगी रहती है ।'
बावड़ी की मुंडेर पर इच्छाएं जीवित बैठी हुई हैं । मनुष्य की इच्छाएं हैं वे वैसे पूरी होंगी । कौन आगे आएगा ? बुद्धिजीवी केवल प्रश्न नहीं उठाएं , प्रश्नों से आगे बढ़कर आशंकाओं और चिंताओं से निकलते हुए समाज के लिए कुछ करें । हमारी दुनिया से जुड़कर ही हम कुछ सार्थक कर सकते हैं । किसी भी कार्य को संपादित करने के लिए विचार , मस्तिष्क की प्रक्रिया और हमारे दृष्टिकोण व सोच की जरूरत पड़ती है , इसके बिना हम कुछ कर ही नहीं सकते । पर यदि केवल सोचते ही रहते हैं और कुछ करते नहीं हैं तो हम कहां जाएंगे ? क्या करेंगे और कैसे करेंगे ? यह बताना और जानना पड़ेगा कि वह ब्रह्मराक्षस कितनी इच्छाओं को लिए चलता है-
'उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौर
मेरी वह कन्हेर ...
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अंधियारा खुला मुंह बावड़ी का
शून्य अंबर ताकता है
बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है ।'
यहां 'ब्रह्मराक्षस' अपनी स्थितियों से अपनी दशा से बाहर निकलना चाहता है पर निकल नहीं पाता । उसका होना , न होना कोई मायने नहीं रख पाता । जब वह अपने विचारों के साथ ही विचारों के लिए - लिए चला गया । उसकी क्या दशा होती , कुछ न कर पाने की बेचैनी कैसी होती है इसका पीड़ादायी रूप देखने को मिलता है -
'ब्रह्मराक्षस
घिस रहा देह
हाथ के पंजे बराबर
बांह - छाती - मुंह छपाछप
खूब करते साफ ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल !!'
यह मैल यह पछतावा अंत तक साथ नहीं छोड़ता । कुछ भी कर लें , कितना भी धो लें पर चीजें गायब नहीं होती , जो हमारे उपर दाग के रूप में , पछतावे के रूप में होती वो सब हमारे साथ चलती रहती हैं । यह मैल अपने सोचे हुए कर्म को न कर पाने की स्थिति है । यह पश्चाताप की है , अपने सोचे को न कर पाना एक बड़ा हादसा है और इस तरह के हादसे से न जाने कितने घिरे रहते हैं ।
ब्रह्मराक्षस अहंमन्यता का शिकार है । वह सोचता है कि उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है , सब खुद उसके यहां आयेंगे । वह समाज में क्यों जाये उसे तो सब ज्ञात है जिसे आना होगा वह खुद चलकर आयेगा । मुक्तिबोध उसके इस अहंकार को यों रेखांकित करते हैं -
'किन्तु गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु जब
तल तक पहुंचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है , सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया ।
पथ भूलकर जब चांदनी
की किरन टकराये कभी दीवार पर
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चांदनी ने
ज्ञान गुरु माना उसे ।'
यह अहंकार की चरमदशा है जब प्राकृतिक शक्तियों को , प्रकृति की चाल को भी अपने अनुसार देखने लगते हैं । जहां सूर्य और चंद्रमा नमस्ते करते हैं तो फिर क्या कहा जा सकता , ऐसा व्यक्ति फिर कैसे अपने प्राण मन का संयोजन समाज के साथ , संस्कृति के साथ कर सकता । स्वाभाविक है कि ऐसा बौद्धिक सामाजिक चेतना के साथ और सामाजिक चेतना में अपनी भूमिका को निभा पाने की जगह कभी अलग थलग किनारे पर ही पड़ा मिलेगा । उसे जब किसी की चिंता नहीं है तो उसकी जो भी सोच हो , जो भी चिंताएं हो वह केवल विचारों की एक श्रृंखला है जो उसी के मस्तिष्क में आती है और वहीं विलुप्त होती रहती है । पर वौद्धिक आदमी की मुक्तिबोध की नजरों में समाज के लिए एक बड़ा हादसा सा है कि वह केवल सोचता है । यह सोचना बातें करन काफी नहीं है । बुद्धिजीवी के तर्क और निष्कर्ष को समाज तक ले जाने की जरूरत है । ऐसे बुद्धिजीवी का क्या फायदा जिसकी नियति बावड़ी में कैद हो जाने की है - उसकी सोच कहां है कैसे है इसे उनका कवि दिखाता है -
'अति प्रफुल्लित कंटकित तन मन वही
करता रहा अनुभव की नभ ने भी
विनत मान ली है श्रेष्ठता उसकी !!'
यह श्रेष्ठता वोध ही सामाजिक नहीं होने देता । समाज में जाने से रोकता है । मुक्तिबोध लगातार सजग तौर पर कहते हैं कि हम चाहे जैसे भी हों अपने विचारों और तर्कों के साथ अपने लोगों के बीच जाना चाहिए । ज्ञान के जितने भी स्रोत हो सकते हैं - जितनी भी ऋचाएं , प्रमेय , छांदस , व्याकरण , दर्शन , गणित सब आपके पास हो सकते हैं सबके ज्ञाता हो सकते हैं पर इस ज्ञान को समाज में सिद्ध करने की जरूरत पड़ती है । तब जाकर ज्ञान सिद्ध होता है । ज्ञान की सिद्धि के लिए - आप चाहें जितने बौद्धिक हों आपको समाज में आना होगा , समाज की व्यवस्था में शामिल होना होगा । कुछ न कुछ करना होगा तब जाकर समाज की व्यवस्था में शामिल हो सकते हैं । यह ब्रह्मराक्षस अपने सारे तर्कों व ज्ञान के स्रोत लेकर पड़ा है बावड़ी में पर बावड़ी से मुक्ति तभी मिलेगी जब सामाजिक सत्यता हासिल हों । समाज का कुछ भला हो , कुछ कार्य समाज के लिए करते चलें तब तो वौद्धिक होने का कोई फल है । नहीं तो सूनी बावड़ी में नहाता रहें - ब्रह्मराक्षस ।
मुक्तिबोध का कवि मन सामाजिक संघर्ष का मन है । वह बौद्धिक चेतना को बावड़ी से निकालने के लिए कृत संकल्पित होकर आगे बढ़ता है । यहां बुद्धिजीवी की ब्रह्मराक्षस के रूप में क्या दृश्यता है देखिए -
'तब से आज तक के सूत्र
छन्दस , मंत्र , थियोरम
सब प्रमेयों तक
कि मार्क्स , एंग्लेस , रसेल , टायनबी
कि हाइडेगर व स्पेग्लर , सात्र , गांधीजी
सभी के सिद्ध अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस , श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य ।'
यहां साफ है कि दुनिया में जो बड़े बुद्धिजीवी सिद्धातकार और दार्शनिक हुए हैं वे अपने ज्ञान के साथ अकेले नहीं रहे न ही अपने ज्ञान को लिए लिए चलें गये , ज्ञान की उपादेयता भी सामाजिक होने में और ज्ञान की खोज समाज की संभावनाओं व संकटों को दूर करने में होती रही है । यह चाहे सामाजिक धरातल हो या दार्शनिक , अंततः ज्ञान की सिद्धि सामाजिक धरातल पर ही होती है । ज्ञान को लेकर बावड़ी में चला जाना किसी ज्ञान प्रक्रिया का उद्देश्य नहीं होता - ज्ञान होता ही समाज के संकटों और मुश्किलों को हल करने के लिए और जब तक ऐसा नहीं हो जाता - ज्ञान का आंतरिक और बाह्य संघर्ष चलता रहेगा । इस सत्य व तथ्य को मुक्तिबोध बुद्धिजीवी का द्वंद्व कहते रहें हैं । बौद्धिक चेतना को हर हाल में इस द्वंद्व से बाहर आना होगा तभी वह किसी समस्या का समाधान कर पायेगा । बौद्धिक वर्ग को अपनी ईमानदारी , लोकतांत्रिक चेतना के साथ सामाजिक समस्याओं के निराकरण के लिए आगे आना होगा अन्यथा बौद्धिक वर्ग व ब्रह्मराक्षस की दशा में कोई अंतर नहीं आता । यदि इस बात को देखना हो तो ब्रह्मराक्षस के पागल प्रतीक में देखा जा सकता है -
'बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प - तारे श्वेत
वे ध्वनियां !
सुनते हैं करौंदी के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हें प्राचीन औदुम्बर
सुन रहा है मैं वहीं
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रैजेडी
जो बावड़ी में अट गई ।'
वह बुद्धिजीवी अपने सारे सत्य व तर्क के साथ बावड़ी में अटा है । अपने ज्ञान के साथ बावड़ी में अतल में अटका पड़ा है । पर क्या उसके ज्ञान को यूं ही व्यर्थ जाने दें ? क्या वह ज्योति अनजानी यूं ही बुझ जायेगी सदा के लिए ? क्या कोई ऐसा नहीं आ सकता जो बौद्धिक चेतना को सामाजिक चेतना से जोड़ते हुए समाज के लिए कुछ करने के बारे में सोचे। ये सारे प्रश्न इस कविता के उत्तर पाठ में सामने आते हैं जहां से बुद्धिजीवी और सामाजिक शर्तों को जीने वाले लोग एक साथ मिलकर समाज के लिए अपने विचार अपनी बुद्धियात्रा और संकल्प के साथ चलते मिलते हैं । यहीं पर यह भी सिद्ध होता है कि बुद्धिजीवी के प्रश्न सामाजिक प्रश्न बनकर ही अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है । यहां पर कवि समाज में अन्य लोगों की भूमिका और दायित्व पर भी प्रश्न उठाया है । भविष्य की पीढ़ी को ब्रह्मराक्षस की दुनिया से जोड़कर एक नये निष्कर्ष के साथ समाज की भूमिका को बड़े पैमाने पर यहां रेखांकित किया गया है । बावड़ी में होते हुए बावड़ी से निकलने के लिए छटपटाता रहता है - अतल की गहराइयों से निकलने के लिए ब्रह्मराक्षस लगातार सीढ़ियों पर आता रहता है -
'एक चढ़ना औ उतरना
पुनः चढ़ना औ लुढ़कना
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घांव
बुरे अच्छे के बीच संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर'
इस तरह वह जिंदगी के अंधेरे से निकलने के लिए लगातार सीढ़ियों का प्रयोग करता रहता है । चाहे जितनी बार घाव लग जाये वह बार बार बाहर आने की कोशिश करता है । काश ! यह कोशिश बौद्धिक वर्ग करता इसी तरह अपने कर्मों से संकल्पों को लेकर समाज में आतख रहता है । समाज को बदलने के लिए संघर्ष करता तो अध्याय कुछ और होता , पर यह संघर्ष व्यर्थ नहीं जायेगा । आने वाली पीढ़ियां भविष्य को रचने वाली पीढ़ियां चलेंगी । ब्रह्मराक्षस के निष्कर्ष को सिद्ध करने के लिए । उसका संघर्ष उसका तर्क , उसका सत्य जरूर अतल से निकल कर बाहर आयेगा - ज्ञान की सामाजिकता और सिद्धि को प्राप्त करेगा ।
ज्ञान दशा व कर्म दशा के साथ ज्ञान की खोज के लिए कोई भी समय आसान नहीं होता । न जाने कौन सी कैसी स्थिति रही कि एक साधक को जो सत्य का सोधक था वह मारा गया -
'उलझे गणित के मैदान में
मारा गया , वह काम आया ,
और वह पसरा पड़ा है ...
वक्ष बाहें खुली फैली
एक शोधक की !!'
जो शोधक है सत्य का वह इस तरह मारा जाता है तो स्वाभाविक है कि समाज की स्थिति भयावह दशा को दिखाती है कि वह अपने बौद्धिक प्रहरी की रक्षा नहीं कर पा रहा है ।
ब्रह्मराक्षस ज्ञान की खोज में सब जगह भटका , सब स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश की । उसकी ईमानदारी ज्ञान के प्रति थी और यहीं ज्ञान की खोज में भटकते भटकते ब्रह्मराक्षस मारा जाता है । अपने को बावड़ी में पाता है और लगातार पश्चाताप की अग्नि में डूबता हुआ अपने आपको बदलने की कोशिश करता है कि - बदल जायेगा । वह घिस रहा देह , धो रहा छपाछप । इसीलिए मुक्तिबोध का कवि ब्रह्मराक्षस के रूप में बुद्धिजीवी की भूमिका पर सवाल उठाकर उसकी उपस्थिति को और बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है । उसके दिये गये सिद्धांतों निष्कर्षों सूत्रों और प्रमेयो को सिद्ध करना चाहता है । यहीं वह कहता है कि समय बदला , आया कीर्ति व्यवसायी व क्रीतदास । इस ओर मुक्तिबोध का कवि इशारा ही नहीं करता वल्कि अपनी चिंता भी जतलाता है तभी तो कवि कहता है कि -
'किंतु युग बदला व आया कीर्ति व्यवसायी
.... लाभकारी कार्य में से धन
व धन में से हृदय मन
और धन अभिभूत अंतःकरण में से
सत्य की झांई
निरंतर चिलचिलाती थी ।'
यह तो बात हुई इस ज़माने में बदले हुए समय की और इस तरह बुद्धिजीवी की ही उपस्थिति होती है तो बुद्धिजीवी का सारा लाभ बुद्धिजीवी को ही मिलता है । इसका समाज को क्या फायदा । यदि समाज को कोई लाभ नहीं मिलता तो फिर बुद्धिजीवी होने और बुद्धिजीवी की उपस्थिति का क्या फायदा ? बने रहिए अपने घर ? यह तो बस नाम की उपस्थिति होती है और सार्थकता एक सिरे से गायब । किंतु जो ब्रह्मराक्षस है उसकी उपस्थिति उसका होना कुछ अलग सा है जिसका चित्र कवि यों खींचता है -
'आत्मचेतस किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन ...
विश्वचेतस् बेबनाव ।।'
पर यह विश्वचेतस आदमी अपनी पुकार के साथ अपनी आत्मचिंता के साथ सदा के लिए सो गया वह अपने बाहरी दुनिया के यथार्थ में सामंजस्य स्थापित नही कर सका वह ऐसे ही चला गया । उसके जाने के संकट को कवि यों लिखता है -
'पिस गया वह भीतरी
औ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच
ऐसी ट्रेजडी है नीच ।।'
यह ट्रेजडी समूचे युग की है । जहां अपने सोचे हुए संगत कार्य को जब आदमी सही संदर्भ और सामाजिक संगति नहीं दे पाता तो ऐसी ही स्थितियां आती हैं । ये दोनों दुनियाएं अलग अलग हैं और इनके बीच एक सरल सहज संवेदन का आदमी पिस जाती है । यह जमाने की ट्रेजडी से निकल नहीं पाता जो भीतरी व बाहरी द्वंद में उलझा रहता है वह मारा जाता है । ईमानदार बौद्धिक की इस नियति को पीड़ा के साथ मुक्तिबोध का कवि सामने रखता है -
'बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ मर गया ....
वह सघन झाड़ी के कंटिले
तम बिवर में
मरे पक्षी सा
विदा हो गया ।'
वह जो सोचता , जो करना चाहता वह सब धरा रह गया । तो क्या सब सोची गई चीजें धरी रह जाएगी ? यदि ऐसा होता या यहीं संदेश होता तो कविता एक यथार्थ के टुकड़े का बयान भर होती इससे ज्यादा कुछ नहीं और यह मुक्तिबोध जैसे बड़े कवि का अभीष्ट कभी नहीं होता । मुक्तिबोध का कवि मन कभी भी यथार्थ के रूपक को प्रस्तुत कर संतुष्ट नहीं होता वल्कि यह क्यों है ? ऐसा क्यों हुआ ? इस बात की पूरी पड़ताल कर ही उनका मनुष्य और कवि मन चैन से सो पाता । इसीलिए ब्रह्मराक्षस कविता में अंतिम बंद बौद्धिक की चेतना , उसके निष्कर्ष और उसकी उपस्थिति को सामाजिकता के संदर्भ में ले जाकर बड़ा अर्थ देते हैं । यहीं से कविता अपने सही संदर्भ और सही अर्थ को प्राप्त करती है । परिवर्तन की सोच को सही दिशा देने की कोशिश यहां है । तभी तो कवि कहता है -
'मैं ब्रह्मराक्षस का सजल - उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचा सकूं ।'
क्योंकि जो भी स्वप्न , जो भी विचार जो सोच ब्रह्मराक्षस की थी , जो वह नहीं कर पाया वह वहीं खत्म नहीं हो जाता , वल्कि आने वाली पीढ़ियों का नैतिक दायित्व है कि उसके सोचे गए निष्कर्षों को पूर्ण तलक तक पहुंचाया जा सकें । यह एक सांस्कृतिक व रचनात्मक कर्म है जो निरंतर चलता रहता है । इसे बावड़ी तक सीमित कर देखने की जरूरत नहीं है। वल्कि बुद्धिजीवी के रूप में ब्रह्मराक्षस की सीमा थी वह आज के समय की सीमा नहीं बननी चाहिए । वल्कि आज के वैज्ञानिक प्रयोग , तकनीक से उसके अधूरे कार्यों अधूरे निष्कर्षों को पूर्णता तक पहुंचाना ही सही मायने में सामाजिक कर्म होगा । यह साहित्य संस्कृति व सामाजिक पुरुष से बौद्धिक वर्ग की उपस्थिति का साक्ष्य है जिसकी ओर इशारा कविता करती है । इसी अर्थ में यह मूल्यवान संदर्भ की बड़ी कविता है जिसमें भूत वर्तमान और भविष्य की उम्मीदें एक साथ दिखायी देती हैं ।
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