कविता की
सृजनात्मकता
भाग-3
सृजन की
दृष्टि से यथार्थ के वर्णन की अपेक्षा आख्यान का महत्व होता है। जैसा कि पहले कहा
जा चुका है वर्णन जबरदस्त अनुभूतिगत तीव्रता से ही सृजन का विकल्प हो सकता है।
किन्तु कवि की अनुभूतियां हमेशा तीव्र और सघन हों, यह जरूरी नहीं। यथार्थ का आख्यान करने के लिए उसमें रच-पच जाना होता है।
उसे अपने अनुभव का हिस्सा बनाना पड़ता है। आख्यान लोक कथाओं के निकट की शैली है।
जिसमें इतिहास और समसामयिक यथार्थ को वाचिक परम्परा द्वारा संरक्षित करने की इच्छा
निहित रहती है। ब्राह्मण ग्रंथों में शुनःशेप प्रसंग को आख्यान कहा गया है।
उल्लेखनीय है कि यह उस समय की एक ऐतिहासिक घटना थी। यथार्थ के आख्यान के लिए उसे
इतिहास के रूप में ग्रहण करने वाली दृष्टि चाहिए। उसके बाद उसे संरक्षित रखने की
इच्छा। और अंत में वह कल्पनाशीलता जिससे उसे लोक विश्वास का अंग बनाया जा सके।
वाल्मीकि, कालिदास, जायसी, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध और
नागार्जुन आख्यान शैली के कवि हैं।
वर्णन के लिए
न इतिहास दृष्टि की जरूरत है और न कल्पनाशीलता की। यथार्थ से निस्संग रहकर भी
वर्णन किया जा सकता है। उसके लिए सिर्फ पर्यवेक्षण पर्याप्त है।
सृजन के
अन्तर्गत मनुष्य के मन का रचाव भी शामिल है। उसकी सोच और समझ का परिष्कार, उसके दृष्टि क्षेत्र का विस्तार यानी उसकी आत्म
चेतना को विश्वचेतना का गौरव प्रदान करना सृजन ही है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि
कवि किस विधि से उसे यह गौरव देता है। यदि कहीं वर्णन भी उसके इस उद्देश्य को पूरा
करता है, तो वह सृजन कहलायेगा।
सृजन की यदि
कोई कसौटी हो सकती है तो यह कि सृजन किसके लिए? यानी
वह कुछ ऊपरी लोगों के लिए है अथवा वृहत्तर जन समुदाय के लिए। जो वृहत्तर जन समुदाय
के लिए होगा उसमें सिरजनहार ने अपनी सृजनात्मक शक्ति को निश्चय ही विस्तृत
परिप्रेक्ष्य प्रदान किया होगा। उसके द्वारा मनुष्यता के अहम मसलों को उभारा होगा।
कोरे
शास्त्रवाद को सृजन की कसौटी नहीं माना जा सकता। मेरा मत है कि सृजन की पहचान करते
समय शास्त्रवाद से चौकन्ना रहना चाहिए। शास्त्र जो प्रतिमान तय कर देता है, वे न चाहते हुए भी हमारे विवेचन/विश्लेषण पर छाया
की तरह मंडराते चलते हैं। और जाने-अनजाने हम अपने निष्कर्षों में शास्त्रवाद का
पल्लू पकड़ लेते हैं।
आमतौर पर
शास्त्रवाद 'जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि' और वर्ग विशेष की चेतना से प्रभावित रहता है। शास्त्र में जहां जीवन और
जगत् के व्यवहार का निर्वाह मिलता है, वहां उसकी मान्यताओं
से कोई शिकायत नहीं। पर ज्योंही वर्गीय दृष्टि उस पर हावी होती है, वह किसी वर्ग विशेष के हितों का पोषण करने लगता है, उसकी
सीमायें स्पष्ट हो जाती हैं। सृजन की पहचान शास्त्र के बजाय सहज बोध से आसानी से
की जा सकती है। लोक साहित्य का कोई शास्त्र नहीं है। लेकिन सृजन के कई मानक वहां
मिल जायेंगे। लोक साहित्य का निर्माण लम्बी कालावधि में कभी व्यक्तियों और कभी
समूहों के सम्मिलित प्रयासों से होता रहा है। इसलिए किसी काल विशेष या देश विशेष
में रचे शास्त्र की मान्यताओं में उसे बांधा नहीं जा सकता। शास्त्रवाद सृजन का गला
दबाता है। अमुक कथन शास्त्र के अनुकूल नहीं है, अमुक बिम्ब
का शास्त्रीय आधार नहीं है, इसलिए वह बेमानी है। ये सब सृजन
के पक्ष को कमजोर करने वाली बातें हैं। देखने की बात यह है कि जो रचा गया है उसकी
दिशा क्या है। उसमें ऐसा कुछ तो नहीं है जो अविश्वसनीय और जीवन के सामान्य अनुशासन
के विरुद्ध हो। यह शास्त्रवाद ही है जिसने संस्कृत काव्य की लोकवादी परम्परा की
पहचान नहीं बनने दी। दसवीं शताब्दी के कवि योगेश्वर का काव्य इसका ठोस प्रमाण है।
योगेश्वर
अपने समय के अग्रणी लोकवादी कवि थे। उनके मुक्तक किसी भी प्रबन्ध काव्य या नाटक से
कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सच तो यह है कि वृहत्तर जन समुदाय की जीवन स्थितियों को
उन्होंने जिस मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है, उसके
लिए किसी प्रबन्धात्मकता की जरूरत नहीं है:
मा रोदीश्चिर
मेहिवत्स विफलंदृष्टवाद्य पुत्रानिमान्,
आयातो
भवतोऽपि दास्यति पिता ग्रैवेयकं वाससी ।
श्रुत्वैवं
गृहिणी वचांसि निकटे कुड्यस्य निष्किंचनो,
निःश्वस्याश्रु
प्लुतानत मुखः पांथः पुनः प्रोषितः ।।
यह अभावों से
घिरी जिन्दगी का मर्मान्तक दृश्य है। दूर देश में कमाने गये व्यक्ति का खाली हाथ
घर लौट आना। वहां पिता के आने पर नये कपड़े और कठुला देने का आश्वासन देकर पुत्र
को मनाती पत्नी की बातें सुनना। और पुत्र व पत्नी से बिना मिले उस का उल्टे पांव
फिर कमाने चल देना मन में गहरी टीस जगा जाता है। यहां बच्चे का बाल सुलभ हठ, मां की असहायता और पिता का अपराध बोध तीनों मिलकर
पल पल छीजती जिन्दगी का जो दारुण दृश्य उभारते हैं, उससे इस
वर्णन ने सृजन की गरिमा प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद भी यह सुभाषित है! ऐसे
मर्मान्तक प्रसंगों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति को सुभाषित कहने वाला शास्त्र
अत्यन्त संकीर्ण और 'जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि' का शिकार नहीं तो और क्या है?
कविता में
उसी यथार्थ का महत्व है जो कवि की निजता से लिथड़ कर आता है। वस्तुगत यथार्थ का
व्यक्तिगत यथार्थ में संक्रमण ही सृजन का बिन्दु है। मुक्तिबोध के अनुसार
यथार्थवाद नितांत वस्तुगत चीज नहीं है। वह सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट की द्वन्द्वात्मक
परिणति है। कविता में प्रकट होने वाले यथार्थ को इसी द्वन्द्वात्मक नजरिये से
देखना पड़ता है। खासकर यह कि व्यक्ति और वस्तु में सामंजस्य हुआ है या नहीं। ऐसा न
होने पर कविता का यथार्थवादी रूप नहीं बन पाता है। कवि चाहे कितना ही वस्तुनिष्ठ
क्यों न हो ले।
इन दिनों
लिखी जा रही कविताओं में किसी तरह का उत्ताप दिखाई नहीं पड़ता। वे न यथार्थ के
हिंस्र और अश्लील चेहरे को पूरी तरह उभार रही हैं। और न समाज में बढ़ती पशुता व
मूल्य हीनता को कोई चुनौती देने में सक्षम हैं। उनकी मनुष्य को संवेदनशील बनाये
रखने की शक्ति का क्षरण होने लगा है। वे अब आंदोलित करने के बजाय आतंकित करने लगी
हैं। आतंकित इस अर्थ में कि उनमें मानवीयता से जुड़े गहन प्रश्नों को बड़े ही
भोंडे ढंग से पेश किया जा रहा है। जिन मानवीय संदर्भो पर लिखते हुए बड़े बड़े कवियों
की भाषा बौनी हो जाया करती थी, उन पर समकालीन
कवि चुहल बाजी के अन्दाज में कवितायें लिख रहे हैं-
मैं एक कटोरा
हूं अर्चना/और तुम/उसमें रखी सेवैयों की खीर/तुम कमान की तनी हुई डोरी हो
अर्चना/और मैं/दूर निशाने को बेधने वाला तीर/मैं आंख की दूर तक फैला हुआ मैदान हूं
और तुम उसमें उगी हुई हरी भरी घास / तुम तनी हुई पतंग हो अर्चना/और मैं/गर्मियों
का नीला निरभ्र आकाश।' (नीलाभः अर्चना के
नाम पत्र, पहल-37)
जो कुछ मौजूद
है वह सब सुन्दर, सुखद और तोषप्रद है
तो फिर रचना की आवश्यकता ही क्या है? जो है, वह कैसा होना चाहिए यह दिखाना ही रचना है। और इसी के लिए एक सच्चा रचनाकार
आजीवन स्वयं से एवं अपने परिवेश से जूझता है। वह उन परमाणुओं की खोज में लगा रहता
है जो अपने अनुशासन में बंध कर मानव जीवन को गतिशील बनाये रखते हैं। उसकी ऊर्जा को
कभी खत्म नहीं होने देते। कोई कविता यदि इस ऊर्जा का संरक्षण नहीं करती. सामाजिक
पतन का विकल्प नहीं देती, उसमें मनुष्यता के विकृत होते
चेहरे को तेजोमय बनाने वाली ऊष्मा नहीं है, तो ऐसी कविता
कौड़ी की तीन।
कविता में
सृजन के कई आयाम होते हैं। यथार्थ की पुनर्रचना, सम्मूर्तन, भाषा का रचाव, कविता
का स्थापत्य, कवि का विजन और मूल्य सृजन। लेकिन इन्हें अलग
अलग करके सृजन की पहचान असंभव है। इन सबका संश्लिष्ट रूप या यों कहें कि ये सब
आपसी सहयोग से कविता को जिस उठान पर ले जाते हैं, वहीं सृजन
है।
कवि के
यथार्थ बोध को उसके द्वारा की गई यधार्थ की पुनर्रचना से ही जांचा जा सकता है।
यथार्थ का चित्रण् तो कमोबेश सभी कवि करते हैं। अन्तर केवल उनके यथार्थ बोध में
होता है। प्रसाद और निराला दोनों समकालीन हैं। लेकिन दोनों के यथार्थ बोध
की दिशायें
एकदम अलग अलग हैं। प्रसाद मनुष्य को वैयक्तिक इकाई के रूपमें ग्रहण नहीं करते। उसे
उसके देश-काल से बाहर निकालकर विश्व मानवता के विराट् परिप्रेक्ष्य में खड़ा कर
देते हैं। जहां उसकी निजता का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जबकि निराला अपने आस-पास के
मनुष्य के दुख दर्द से द्रवित होते हुए उसकी मुक्ति के लिए बेचैन दिखाई पड़ते हैं।
इसी तरह तुलसी के यथार्थ बोध की खिड़की लोक मंगल की ओर खुलती है। जबकि रहीम
नीतिवाद की ओर ले जाते हैं।
अच्छे कवि
अपनी कविता को अनुचिन्तनात्मक टिप्पणी होने से बचाते हैं। कविता के नाम पर आजकल
ऐसी टिप्पणियों की बाढ़ आई हुई हैं। कविता में विचारों का प्रवाह अन्तः सलिला सा
हो। जो विचार कविता के किनारे तोड़ते चलते हैं, वे
अपना महत्त्व खो देते हैं:
अंग्रेजी
अखबारों को पलटते मैं पाता हूँ नहीं रहा क्रांति पर/वाम का एकाधिकार / क्रांतियां
तो आज कल पूंजी कर रही है/ (इत्यादि)।' (ओम
भारतीः पूंजीवादी झूठ के विराट अत्याचार के बीच, पहल-42)।
इस अंश में न कविता है और न काव्य की भाषा। भाषा सृजन का
महत्वपूर्ण घटक है। वह काव्य सृजन का माध्यम है। और उसका उचित इस्तेमाल कवि को आना
चाहिए। 'भाषा के बिना कविता रचने का निर्णय करने वाला
व्यक्ति उस पागल के समान है जो तैरना न जानते हुए तूफानी नदी में कूद पड़ता है।'
(रसूल गम्जातोवः मेरा दागिस्तान-1, पृ. 66)
कवि को यह पता होना चाहिए कि वह जिन शब्दों का उपयोग कर रहा है वे
मूक, बेजान और स्पन्दन हीन नहीं हैं। उनमें छुपा हुआ सामाजिक
अनुभव उनकी धड़कन है। और ज्योंही इस धड़कन की उपेक्षा की जायेगी, शब्द निस्तेज हो जायेंगे। उनकी अर्थाभिव्यक्ति की सांस फूलने लगेगी। और
बहुत संभव है वे मर जाएं। इसलिए भाषा के मामले में कवि को बेहद सावधान रहना पड़ता
है।
निरंतर…
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