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वह एक छोटा सा शहर था, जहां दोनों का जन्म हुआ था। दोनों ने जहां से
अलग-अलग स्कूलों से मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की थी और शहर के
चहेते बन गए थे। शहर के ही उभरते को-एड महाविद्यालय से पढ़ाई की थी। इंटर में भी 61-62
प्रतिशत लाकर नाम कमाया था। तब अभिभावकों संग मुहल्ला-टोला भी इतने
ही नंबरों से गदगद हो उठता था। बच्चों पर पढ़ाई का कोई दबाव नहीं। अभिभावकों के
लिए लड़कियों की शादी के डिग्री का महत्व था तो लड़कों के लिए साठ पार नं बहुत
मायने रखता था। ऐसी गला काट स्पर्धा भी नहीं थी।
स्वाभाविक है कि
आत्महत्या जैसी बातें भी कम होती थीं। पढ़ाई के कारण नहीं लेकिन प्यार के कारण
आत्महत्याओं का चलन था। उन दिनों दिल लगी दीवारवाला प्यार का बोलबाला था।
उन्हीं दिनों उन दोनों को
भी वैसा वाला ही प्रेम हुआ था और दोनों ने बहुत मुश्किल से अपने-अपने माता-पिता को
मनाया था। प्रिया ने मनाने के लिए इमोशनल ब्लैकमेलिंग का सहारा लिया था तो
प्रियांशु ने सीधे धमकी ही दे डाली थी। उसकी आत्महत्या की धमकी ने रंग दिखाया था
और अम्मा-बावजी चुटकियों में राजी।
"जिससे
करो। मियां, बीवी राजी तो का करेगा काजी!"
बावजी ने जैसे हथियार डाल
दिया था। हंसते हुए कहा था। वैसे वह बेबसी थी।
अम्मा की कुनमुनाहट भी दब
गई थी। यह वह दौर था, जब प्रेम
विवाह के लिए माता-पिता को मनाना, जैसे पहाड़ तोड़ना,
जैसे उफनती नदी पार करना। जैसे तारे-वारे तोड़ डालना।
और फिर बड़े धूमधाम से
उनकी शादी कर दी गई थी। दोनों परिवारों ने अरेंज मैरेज की बात कहकर अफनी नाक बचाने
की कोशिश की थी। लेकिन रिश्तेदार या मुहल्लेवाले, परिचित इतने भी मूर्ख नहीं थे कि विजातीय शादी के छिपे समझौते को सूंघ न
सकें।
शिखा अर्थात प्रिया की
हलकी सी धमकी की महक उन्हें न लगी हो, यह भी संभव नहीं,
"हम
घर छोड़कर भाग जाएंगे मां, कहे देते हैं।"
हां प्रियांशु के घरवालों
ने महाऔर्दाय से सुकोमल, चिकनी,
गोल चिबुकवाली सुंदर, बुद्धिमान, गृहकार्य में दक्ष प्रिया को अपना लिया था। बल्कि वे ऐसी बहू पाकर गदगद
थे। रिश्तेदारों से कहते न अघाते थे,
"अब ई
जात्ति और टिप्पण आदि के बंधन से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरी जाति की लड़की भी
सुघड़ और केयरिंग होती है।"
उधर प्रिया के घर में भी
बतकही गुणगान का रूप धरकर आती,
"ऐसे
दामाद पाने के लिए हमको अपने जात्ति-बिरादरी के बाहर जाना होगा। न कोई नखरा,
न गुस्सा, न दहेज की जिद। यह तो बेटा है
हमारा।"
"बल्कि
बेटा से बढ़कर।"
बाबू की बात पर मां की
छौंक।
"दामाद
मतलब हाथी बांधना।" - प्रिया के दादा जी कहते रहते थे। उन दिनों दामादों की
अकड़, व्यवहार से त्रस्त रहते थे लोगबाग।
वे नहीं जानते थे कि देश
में भविष्य में ऐसे ही या उससे ज्यादा ही परिवर्तन होनेवाला है। दामादरहित संबंधों
को देखने का समय आनेवाला है।
यह वह समय था, जब प्रेम विवाह की पैरवी दबी जुबान से सही
शुरू हो चुकी थी।
*****
न जाने कितने बसंत, बरसात औ ग्रीष्म बिताने के बाद दोनों की
जिंदगी यहां तक आ पहुंची है। एक अच्छे फर्म में एच. आर. प्रियांशु धुन का पक्का
रहा है। उसने काफी तरक्की की। डेटिंग की शुरुआत में ही शिखा को प्रियांशु ने
प्रिया कहना शुरू कर दिया था। वह अब तक साथ तो हम शिखा सिंह को प्रिया और
प्रियांशु वर्मा को केवल प्रियांशु ही कहेंगे।
यह वैवाहिक संबंध अपने
तमाम उतार-चढ़ावों को पारकर आज कैंसर की दहलीज पर आ खड़ा हुआ है।
पिछले कुछ दिनों से दोनों
के बीच ऐसी ही बातें हो रही हैं। इस विषय पर तो कई वह बार चर्चा हुई है। प्रियांशु
की हाँ है। वह लगातार प्रिया से यही कह रहा है। वह कहाँ माननेवाली। लाख दुहाई दे
प्रियांशु प्रिया उसकी बात नहीं माननेवाली। डॉक्टर से वह कुछ भी नहीं कहेगी, उसने कड़े लफ्जों में प्रियांशु को मना कर
दिया है।
प्रियांशु का जब से बोलना
छूटा है, वह एक कॉपी रखने लगा है। अब वह इतना कमजोर कि
प्रिया उसकी हड्डियाँ गिनने लगती है। खासकर जब नर्स स्पंज की तैयारी कर रही होती
है। कपड़े निकालते हुए प्रिया ने आज भी उसकी पसली की हड्डियाँ गिनीं और नर्स की
आँख बचाते हुए कॉपी वहाँ से उठा ली।
वैसे नर्स कॉपी देखने के
बाद भी उसे पढ़ती क्या? पर
प्रियांशु को कौन समझाए। उसी की जिद,
"नर्स
के सामने यह लाल जिल्दवाली नहीं, नीली जिल्दवाली कॉपी रखी
जाए।"
वह जिल्दों में सिमटे
पन्नों पर बात करता है। मुँह से बोल जो नहीं सकता। बोल नहीं पाता लेकिन लिखकर सब
प्रकट करता है। अभी भी उसने नीली जिल्दवाली कॉपी में लिखकर नर्स को समझाया,
"मैं
अब अस्पताल से आजाद होना चाहता हूँ। जल्द से जल्द छुट्टी चाहता हूँ। कब तक मिलेगी?"
वह
लिखकर नहीं बोल कर बताती है। उसके चेहरे पर स्वाभाविक पेशेवर मुस्कान चस्पां।
"अभी
एक महीना तक वह यहाँ से जाने का नाम न लें।"
उसने प्रिया की ओर इशारा
कर लिखा है,
"नर्स!
इसकी हालत देखो। कहीं मेरे जाते-जाते यह रुकने की व्यवस्था न कर ले। इसे यह जगह भा
गई है।"
फिर थोड़ा मुस्कुराने की
चेष्टा की। नहीं फूटी मुस्कान। कैसे फूटे। पट्टियों से जकड़ा चेहरा। होंठों के पास
से गाल काट डाले गए थे। गहरा कटाव। खुल कर हंसने भी नहीं देते।
प्रियांशु
गुटका बहुत खाता था। प्रिया, पवन मना करते थक जाते, मानता नहीं था। आज जब गाल कटाकर कैंसर अस्पताल में भर्ती है तो भी बीच-बीच
में गुटके की मांग कर बैठता है।
लिखता है,
"मन
की पसंद है गुटका! बीमारी तन को लगी है, मन कहां बंदिशें
मानता है।"
यह लाल जिल्दबाजी कॉपी
में लिखा होता है। उसमें प्रिया और उसकी बातें, बस! बाकी सब से जो भी कहना है, नीली जिल्दवाली कॉपी
में। जैसे नर्स बाहर गई, वही पुरानी बहस शुरू हो गई है। लाल
जिल्दवाली कॉपी निकल आई है।
"तन
को बीमारी लगी कैसे, बताओ? अब
तो मन पर अंकुश रखो।"
प्रिया
का जवाब।
"म.
कि. के बारे में डॉक्टर से खुद बात करो प्रिया।"
प्रिया के नहीं चाहने पर
भी आवाज तेज,
"कहो
भी मत! नहीं तो आत्महत्या के जुर्म में अंदर बंद कर दिए जाओगे।"
"मैं
नहीं, तुम कहो उनसे।"
"मतलब
हत्या की साजिश के जुर्म में मैं बंद...हऽ...हऽ!"
वह हंसते हुए बोली। उसकी
आंखों में परिहास का उजास था। चेहरे की लकीरों में उदासी।
"सब
मुझे इतना क्यूँ सता रहे हैं। इतना कष्ट-दर्द सहना आसान है? किसी
और को सहना पड़े तो पता चले।"
"गजब
हो, पहले तो अपना दुख किसी से बाँटते तक नहीं थे और आजकल
अपना दर्द-कष्ट बाँटने के लिए छटपटाते रहते हो।"
"यह
तो मैंने यूँ ही लिख दिया है। आज डॉक्टर राउंड पर जैसे आएँगे, कहना जरूर। अब गालों का दर्द सहा नहीं जाता। पूरा चेहरा विकृत हो गया। कब
तक मुँह ढंक कर रहूँ?"
प्रिया ने जवाब नहीं
दिया। चुपचाप उसका चेहरा देखने लगी। उसे प्रियांशु की यह बात नागवार गुजरती है,
"डॉक्टर
मुझे जिंदा नहीं रख सकते, मैं कुछ ही दिन का मेहमान हूं,
तो कोशिश ही क्यों कर रहे हैं? मर्सी
किलिंग...?"
प्रिया की आँखों में आंसू
झिलमिला जाते हैं। वह अपने को समझाती है अक्सर, 'विकृत भी है तो क्या हुआ? सामने तो है।'
पता चला एकदम लास्ट स्टेज
में। फोर्थ स्टेज में क्या हो सकता है। फिर भी कोशिश करनी होगी न!
प्रिया को एहसास है,
तमाम सहमतियों-असहमतियों
में खिलता है दांपत्य जीवन।
मनुष्य उसकी मधुरता से
ऊर्जा पाता है। और विलगाव के बाद घनीरी पीड़ा से दूर नहीं हो सकता है।
जीवनसाथी का साथ छूटना एक
खालीपन, अकेलापन की सृष्टि करता है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती है।
आत्मीय रिश्तों की भीड़
में ये पल-पल केयर, निर्भरता
और साथ को जो गणित है, जीवन साथी के वियोग के बाद और भी समझ
में आता है।
वह उसी विलगाव से डरती
है।
न जाने कितने लोगों को
बिखरते देखा है उसने। अभी उन भुक्तभोगियों के प्रति उसका मन संवेदना से भर गया। वह
कैंसर अस्पताल के विलाप को याद करना नहीं चाहती पर...।
मौतें आती ही हैं। पर वह
ज्यादा तकलीफदेह न हो, वह भी
चाहती है। प्रियांशु पैसे बचाने की बात भी करता है। लिखता है,
"सब
कुछ लूट कर ले जाएगा यह रोग। तुम्हारे हाथ खाली रह जाएंगे। फिर कैसे करेंगे सीमा
और पवन पढ़ाई? कैसे करोगी सीमा का विवाह?"
"ईश्वर
सब पार लगाएँगे। अभी मेरे कर्तव्य में रोड़े न अटकाओ।"
आ गए आँसुओं को दोनों
हाथों से पोंछकर हँसती है। "तुम्हारी सेवा ऐसे कहां कर पाती। इसीलिए ईश्वर ने
उपाय कर दिया, दिन भर सेवा करती
रहूँ।"
"प्रिया!
एक बार इधर देखो...हाँ, अब ठीक। तुम्हारी पनीली आँखें इस
उम्र में भी काफी सुंदर है।"
"आँखें
बदलती हैं क्या? मक्खन मत लगाओ। मैं तुम्हारी एक न
सुननेवाली।"
वह प्रियांशु का हाथ
पकड़कर हौले-हौले सहलाने लगी।
"हमलोगों
ने कितने सपने देखे थे न। यहाँ जाएँगे, वहाँ जाएँगे।
व्यस्तता के कारण नहीं कर सके, वे सारे शौक पूरे
करेंगे।"
प्रियांशु ने अगले पन्ने
पर लिखा,
"वाऊ!
अपने शौक मेरे हवाले करो। हम अब भी यहाँ-वहाँ जाएँगे। अरे मेरा चेहरा कटा है।
हाथ-पाँव थोड़े न? सब कुछ तो साबुत है। हम हर किसी से
मिलेंगे। जो शौक पूरे नहीं किए, वो सब भी।"
उसने प्रिया के हाथों को
अपनी दोनों हथेलियों की गर्मी दी।
"लेकिन
म. कि. के लिए तुम डॉक्टर से बात जरूर करना।... मेरे दर्द को समझो यार!"
हँसने
की कोशिश में दोनों की आँखों से आँसू टपक पड़े। प्रायः दोनों हँसना चाहते हैं,
दोनों रो पड़ते हैं। दोनों जीना चाहते हैं, दोनों
मर रहे हैं।
"तुम
नहीं पूछ पाओगी तो दो नीली जिल्दवाली कॉपी मुझे। डॉक्टर
राउंड पे आते ही होंगे।"
"नहीं।"
उसने काॅपी देने की बजाय छिपा दी।
प्रियांशु की बीमारी के
बारे में आज से दस महीने पहले पता चला था। तभी से हर जगह दौड़ना, इलाज कराना प्रारंभ। गुटका खाते वक्त एक छोटा-सा कट गाल का घाव बना। घाव बढ़ता-पलता रहा,
वे समझ ही नहीं सके।
अब तो सब कुछ डॉक्टर के
हवाले। प्रियांशु की जिद,
"मरना
तय हो पहले मर जाने में क्या बुराई है।"
"सायनाइड
दे दो यार!"
"हां,
भिंडी है न। खेत से तोड़ी और...।"
प्रिया लाख समझाती, वह मानता नहीं। प्रिया भी नहीं मान पाती उसकी
बात।
समय जैसे-जैसे बीत रहा है, प्रियांश की जिद बढ़ती जा रही है। प्रिया
उसकी बेचैनी, दर्द से कमजोर पड़ती जा रही है। पर उसकी बात
कैसे मान ले।
एक बड़े फर्म में एच. आर.
प्रियांशु धुन का पक्का रहा है। वह दफ्तर में सबकी आकांक्षाओं, उम्मीदों पर खरा उतरता रहा था। उसने काफी
तरक्की की। पर बीमारी बीच में ही तेज गति की गाड़ी की ब्रेक बन गई। अब तो चेहरा भी
पहचाना नहीं जाता। कीमोथेरेपी ने उसके सारे बाल उड़ा दिए हैं। वह बेहद कमजोर भी हो
गया है। उसने हर समय प्रिया और बच्चों को समझाया है,
"जीवन
में कई बातें, कई घटनाएँ अनायास आ जाती हैं, उसके लिए हमेशा तैयार रहो। किसी भी कीमत पर टूटना-बिखरना नहीं है।"
अब वह स्वयं ही टूटन के
कगार पर पहुँच गया है।
प्रिया का गोल, घुंघुर बालोंवाला हँसमुख चेहरा उसे हिम्मत
देता है। पर वह जानता है, प्रिया बस उन सबके सामने हँसती है।
प्रिया के हास्य में भी रूदन छिपा है, इस बात से वाकिफ है
वह।
जीवन की कुछ अबूझ
चुनौतियाँ उद्वेलित करती हैं और उन पर मनुष्य का दखल कुछ कर नहीं पाता। जोड़-घटाव
में कैसे मनुष्य छीज जाता है, पता कहाँ
चलता है।
"जीवन
का एक अलग आकर्षण होता है। कभी खुशी, कभी गम, कभी प्रेरक, कभी मारक अनुभव होते हैं। फिर भी आदमी
के जीने की ललक खत्म कहं होती है। मेरी भी नहीं हुई है लेकिन...।" लिखा था
प्रियांशु ने।
प्रियांशु की जिद के कारण
प्रिया उसे लेकर घर वापस आई। अपने घर में आकर कितना आल्हादित हो गया वह। कमरों में
धीमे-धीमे घूमता रहा। बॉलकनी में सूख गए पौधों को देखकर प्रिया को नए पौधे लगाने
की हिदायत दी।
प्रिया ने दूसरे ही दिन
कई नए पौधे लाकर लगा दिए। वह प्रायः वहां बैठकर उन पौधों को बढ़ना देखता रहता। जिद
कर प्रियांशु ने उन्हें सींचा भी। तुरंत थक भी गया। जब भी दर्द से ऐंठता, उठकर पत्तियों को सँभालने लगता। खूब अच्छे से
उन्हें साफ करता।
पीले पत्ते हटाकर प्रिया
को एकटक देखने लगता। उसके चेहरे का भाव समझते ही प्रिया पीले-सूखे पत्तों से नजरें
फेर लेती और घबराकर उसे कमरे में ले आती।
उस वक्त प्रियांशु नन्हें
बच्चे की तरह मासूम लगता उसे। "प्रियांशु, तुम्हारी यह मुस्कान बहुत चुभती है। प्लीज! ऐसे मत देखो।"
वह मुस्कान छिपाकर पलट
जाता। वह जब भी दर्द से ऐंठता, प्रिया
को महसूस होता, जैसे दर्द प्रियांशु को नहीं प्रिया को ही
हुआ है।
दिन बीत रहे थे और उसका
समय चूक रहा था। कल रात को वह रात भर सो नहीं सका। दर्द से ऐंठते हुए कभी खड़ा हो
जाता, कभी बिस्तर पर उठंग जाता ।
"परसों
फिर हम मुंबई के लिए निकल रहे हैं। 12 बजे की फ्लाइट
है।"
"नहीं!
अब और नहीं।"
प्रियांशु ने न में सर
हिलाया।
"अब
मैं तुम्हारी एक नहीं सुननेवाली। तुम्हारी सुन-सुनकर मैं पस्त हो गई। हमें साथ
जीना है। काफी दिनों तक साथ रहना है, बस!"
वह बेबस उसे देखे जा रहा
था। प्रिया की दृढ़ आवाज गूँजी,
"हमें
पहले ही जाना था। तुम्हारी जिद में...। वहाँ पवन भी आ जाएगा। निर्णय लिया जा चुका
है।"
पवन को हैदराबाद गए अभी
दो ही दिन बीते थे। वह दूसरे सेमेस्टर के बाद दसेक दिन के लिए यहां साथ में था।
सीमा अभी घर पर ही साथ में है। अगले वर्ष के बोर्ड की तैयारी में व्यस्त।
निर्णय लिया गया, सीमा के साथ रहने के लिए उसकी पड़ोसवाली
सहेली स्वीटी आ जाएगी। कभी सीमा ही उसके घर चली जाया करेगी। अभी इलाज पर ध्यान
देना है, और किसी बात पर नहीं।
"पप्पा
ठीक तो हो जाएँगे मम्मी?" सीमा ने सहमते हुए पूछा।
"कह
नहीं सकती। लौटकर आती हूँ। तब बता पाऊँगी, कब तक ठीक
रहेंगे।"
उसने स्पष्ट कहा। बच्चों
से कुछ भी छिपाना व्यर्थ था ।
"उन्हें
तो तैयार रहना ही पड़ेगा। वह जितनी जल्दी एक्सेप्ट कर लें, उतना
अच्छा। कोई उपाय नहीं।"
स्वीटी
की मम्मी से कह रही थी वह। सब कुछ तय कर वे निकल गए। बदबू से प्रियांशु के पास
बैठा नहीं जा रहा था। दुर्गंध और ये कीड़े मुँह पर चलते हुए।
मुँह पर रूमाल रखे वह
बेचैन।
मुंबई
में डॉक्टर ने संकेत दिया,
"अब
कुछ नहीं हो सकता। बस जितने दिन हैं, भगवान भरोसे। घर पर रख
सेवा करें।"
"क्या
हमारे पास कुछ दिन का भी समय नहीं है?"
"है।
वैसे कुछ कहा नहीं जा सकता। दो-तीन महीने भी, या साल भर
भी।"
प्रिया की हिम्मत की सब
दाद दिया करते थे। पापा, मां,
दादा, मित्र, सब। उसने
वही डोर कसकर थाम ली।
"पवन!
अब यहाँ रहना भी मुश्किल, नहीं रहना भी कठिन। क्या करना
चाहिए?"
प्रियांशु ने लाल जिल्द
वाली कॉपी खुलवाई,
"अब
कुछ हो नहीं सकता। व्यर्थ की भाग-दौड़ क्यों? घर लौटो और अभी
डॉक्टर से बोलो।"
प्रिया ने कॉपी छीन ली।
वह गौर से पवन को देखने लगी।
सबने
हाथ खड़े कर दिए थे भले पर प्रिया हार माननेवालों में से नहीं थी। फिर भी लौटने के
सिवा चारा न था।
"पवन
चलने की तैयारी करो। हम कल ही चल देंगे।"
प्रियांशु खुश था, शायद फैमिली डॉक्टर को उस पर रहम आ जाए। लाल
जिल्दवाली में नई इबादत,
"प्रिया!
देखना डॉ. अजय मेरी बात को जरूर समझेंगे। वे जरूर मेरी बात मान लेंगे।"
प्रिया ने न में सर
हिलाया। वह इबादत में डूब चुकी थी। मंदिर, मजार, चर्च, गुरुद्वारा जाती
रही थी। अभी एकाएक सब याद आ गए। प्रार्थनाएं अब उसके भीतर हमेशा के लिए जगह बना
चुकी थीं।
लौटते हुए कई बार
प्रियांशु दर्द से बेहाल हो जा रहा था। बार-बार हाँफ-हाँफ जाता। पवन उसकी पीठ
सहलाता रहा।
"पप्पा!
आप ठीक हो जाएँगे, जल्द अच्छे हो जाएँगे।"
आँसू थे कि टपकने को
तत्पर। वह आश्वासन देने में व्यस्त !
पवन का वश चलता, वह हर दर्द समेट लेता। केवल पिता का ही नहीं,
माँ का भी।
जल्द लौटे हुए देखकर सीमा
आशंका से भर गई। लेकिन प्रिया ने आश्वासन दिया।
अपने बिस्तर पर जाते ही
प्रियांशु की एक ठंढी आह निकल गई। उसके पास बैठकर पवन उसके मुँह पर रेंगते हुए
कीड़ों को बीनने लगा।
प्रियांशु ने बालकनी में
जाने का इशारा किया। गुलमोहर की सुग्गापंछी डालियां फ्लैट की बालकनी तक बढ़ आई
थीं। जैसे घुसपैठ करेंगी। थोड़ी देर में प्रिया सूप लेकर आ पहुँची। प्रियांशु पवन, सीमा को अंदर भेजकर उसे अपने पास बैठने का
इशारा करने लगा। कॉपी कहीं रखी हुई थी। तुरंत प्रिया दे न सकी तो वहीं पड़े फटे
पन्ने पर लिखा,
"कटवाना
चाहिए न इन्हें।"
लिखते हुए प्रियांशु ने
गहरी नजरें प्रिया की आंखों में रोप दीं।
"बहुत
हुआ प्रिया! अब जाने दे। तुमको मुझ पर दया नहीं आती?"
"क्या
इसी दिन के लिए हम इतना दौड़ रहे हैं। जितनी तुम्हारी उम्र है, उतनी तो बचा ही लेंगे।"
"मुझसे
तुम लोगों का कष्ट देखा नहीं जाता।"
"और
हमसे तुम्हारा।"
प्रिया इतना ही कहकर उसे
सूप पिलाने की कोशिश करने लगी।
"अभी
मुँह साफ है, जल्दी से इसे ले लो। फिर पता नहीं कितनी
देर...।"
प्रिया को एहसास है, क्यों प्रियांश किसी और से मिलना नहीं चाहता।
अपना विकृत चेहरा और भयंकर दर्द वह किसी को दिखलाना नहीं चाहता। नहीं चाहता,
जिन लोगों ने छः फुट के सुदर्शन युवक को देखा था, वही लोग विकलांग प्रियांशु को देखें।
क्यों उसे जल्दी जाने की
हड़बड़ी है, यह भी समझती है वह।
गोरे-चिट्टे, स्वस्थ खूबसूरत प्रियांशु के चेहरे पर एक दाग
नहीं था और आज...। वह नहीं चाहता, उसके ऑफिस के स्टाफ या कोई
भी उसे इस हालत में देखे। उसने एक महीने पहले ही सारी ऑफिसियल फॉर्मेलिटीज पूरी कर
ली थी।
उसके बाद प्रिया-बच्चों
को कोई कष्ट न हो। खुद दर्द के समंदर में डूबा है फिर भी उसे प्रिया और बच्चों के
कष्ट का ख्याल है।
घर लौटते ही उसकी वही
पुरानी जिद शुरू हो गई थी।
डॉक्टर अजय आए तो उसने
वही बात नीली जिल्दवाली कॉपी में लिखी,
"जब
जीना कठिन हो तो जीने का लालच देते रहना कहाँ का इंसाफ है। जीना जब दर्द के सागर
से गुजरना हो, सागर में डूब जाना ही बेहतर नहीं?"
डॉ. ने समझाया,
"हमारा
काम मरीजों को जीवन देना है। उन्हें आशा-विश्वास थमाना है।"
फिर उसकी पीठ पर हाथ रखा।
"आप
जितने दिन भी जिएँगे, एक सार्थक जिंदगी जिएँगे।"
"हऽ!हऽऽ!...हऽऽऽ!"
हँसने की कोशिश की
प्रियांशु ने।
"मरना
पाप नहीं प्रिया! किसी मरे हुए को मुक्त कर देना पुण्य का काम है। मैं पहले ही मरा
हुआ हूँ। तुम इस बेजान शरीर को कब तक और कहाँ-कहाँ ढोती फिरोगी।"
प्रिया ने न में सर
हिलाया।
"सच
में तुम्हें मेरा दर्द दिखलाई नहीं पड़ रहा?"
आगे हाँफते हुए उसने लिखा, "एक छोटी चींटी भी जब देह के किसी
हिस्से में चलती है, क्षण भर चैन नहीं पड़ता।
कीड़ों...घिनौने कीड़ों को झेलना...वह भी मुँह में।"
उसने देखा प्रिया को
क्षणांश।
"समझ
रही हो न मेरी बात...। कभी-कभी मरना जीने से ज्यादा आसान है।"
उसने प्रिया के माथे पर
अपना गाल रख दिया और आंखें मुंद लीं। टप से दो कीड़े प्रिया के माथे पर गिरे।
लेकिन प्रिया ने जाहिर नहीं होने दिया। प्रियांशु का दोनों हाथ थामे वह निश्चल।
कीड़े इधर-उधर रेंगने लगे। प्रिया को उबकाई सी आई। उन्हें झटक देने के लिए मन मचला
पर वह निश्चल।
"कभी
मेरी जगह खुद को रखकर सोचना प्रिया!"
प्रिया का हाथ उसके हाथ
से छूट गया। उसने सहलाने की कोशिश की तो प्रियांशु ने बेरुखी से झटक दिया।
प्रिया का प्रतिरोध अब
हार मान बैठा था। वह अपने को एक और संघर्ष के लिए तैयार करने लगी।
दोपहर ढले प्रिया डॉक्टर
के निर्देश पर वकील प्रशांत वर्मा से मिलने के लिए अपनी गाड़ी ड्राइव कर रही थी।
प्रशांत उसके लिए अनजाने नहीं थे। वह पहले उनसे मिल चुकी थी। वे पापा के साथ घर पर
आते थे।
प्रशांत ने पिटिशन फाइल
करने के लिए हामी तो भरी पर साथ ही कहा,
"जज
आवेदन निरस्त कर सकते हैं। मर्सी किलिंग पर कभी कितनी बहसें हुई थीं। कानून अब तक
नहीं बना है।"
"हां!
समलैंगिकता जैसे मुद्दे पर उलझे समय में मर्सी किलिंग पर सोचने की फुरसत किसे
है।"
लौटने पर प्रिया के अंदर
एक सहमी गिलहरी दाखिल हो गई। एक सन्नाटा उसके भीतर, जैसे कैम्पस में भी पसर गया। उसने गाड़ी पार्क की। लिफ्ट का बटन दबाते ही
गेट खुल गया। गेट से बाहर कदम बढ़ा चुके प्रियांशु को देख वह चौंक गई। पवन ने उसका
हाथ थाम रखा था। सीमा भी साथ। सदा की तरह प्रियांशु मुंह पर रुमाल रखे हुए था।
"अरेऽऽ!
कहां? क्योंऽ?"
प्रियांशु ने गुलमोहर की
ओर इशारा किया। बेंच पर बिछ आए ललहुन गुलमोहर की पंखुड़ियों के पास जम गया। लिखा,
"जितनी
बची, जी लें जरा। फिर न जाने कब जिंदगी की शाम हो जाए।"
पत्तियो़ं जैसे बिखरे
गुलमोहर को चुना। लाल काॅपी सामने की।
"प्रिया!
दोनों हथेलियां फैलाना।"
उसकी जिद थी, इंकार न कर सकी वह। दोनों हथेलियां लालिमा से
भर गई, जैसे पहले भर देता था वह गुलाब की पंखुड़ियों से। या
हरसिंगार के श्वेत-नारंगी फूलों से। सवेरे-सवेरे बिछे मिलते थे सामने के पार्क
में। वह सुबह की सैर करके लौटते हुए हथेलियों में भर लाता था...केवल प्रिया के
लिए। भरपूर आत्मीय उष्मा से प्रिया का चेहरा हर सुबह आरक्त हो उठता था।
एकांत पाते ही प्रिया ने
हौले से उसे बता दिया,
"वकील
की अपनी सीमाएं हैं। फिर भी प्रशांत जी ने पिटीशन फाइल करने का आश्वासन दिया
है।"
"जो
जल्दी जो आ जाए, मौत या जज का फैसला...स्वीकार है।"
लाल डायरी में बोल्ड
अक्षर चमके।
गुलमोहर तले से उठने से
पूर्व,
"तुम्हारी
लाॅग ड्राइव का शौक तो पूरा कर ही सकता हूं। हां, ड्राइव
तुम्हें करना पड़ेगा प्रिया!"
प्रियांशु की जिद बढ़ती
गई। और फिर दोनों अनेक पार्कों, झरनों,
जंगल के मुहाने और नदी के तटों पर अपनी निशानियां छोड़ने जाते रहे।
दो-एक बार पवन और लाडली भी साथ रहते।
अमूमन इस समय प्रियांशु
कुछ लिखता नहीं था, बस समय
को जीता था। एक दिन अचानक लाल डायरी एक्सीलेटर दबाती प्रिया की जांघों पर।
उसने गाड़ी रोक दी और
पढ़ा,
"थैंक्स
शिखा!"
उसने भर आंख प्रियांशु को
देखा। उसकी आंखें अनोखी चमक से भरी थीं। सामने था उन दोनों पसंदीदा डेटिंग स्पाॅट।
सुंदर पार्क, उसके नीचे बिछी लोहे की
रंगीन बेंच...बेंच और पास-पड़ोस के घने दुर्वा दलों पर बिखरे हरसिंगार के श्वेत
पंखुड़ियों-नारंगी डंठलवाले फूल...दो हथेलियां जुड़ी हुई। उसमें भरे गए पुष्प
न्यौछावर होते प्रिया के मस्तक पर...नाक-गालों से टकराकर गिरते, केशों में अटके।
छात्र जीवन के वे दिन
दोनों की आंखों में... झिलमिल... झिलमिल। आज उनकी शादी की सालगिरह थी।
जोड़ा है आगे --
रात में लिखा पन्ना खोला।
खुशबू उड़ी।
"ऊपरवाले
का कमाल है कि गर्मियों में भी अमलतास, गुलमोहर खिलते हैं।
जब आदमी सूखकर मुर्झा जाता है, पेड़ नाजुक फूलों से भर जाते
हैं। सर्दियों में गिरे चिनार के पत्ते पूरी धरा को रंग डालते हैं।
"प्रिया!
सच में दुनिया कितनी खूबसूरत है। तब भी रहेगी न, जब मैं नहीं
रहूंगा।"
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