मंगलवार, 16 जनवरी 2024

हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं - विवेक कुमार मिश्र


 

हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं

- विवेक कुमार मिश्र

 

कितनी ही बातें , कितनी ही धारणाएं बनती बिगड़ती रहती हैं । किसी एक रूप या एक धारणा से जीवन का संवाद नहीं होता न ही कोई एक रूप जीवन को संभालता है । हर समय परिवर्तन की एक लहर सामने आती है । आदमी है कि लहरों पर सवार होकर चल रहा होता है । कब कौन सी लहर कहां लें जायेगी यह किसी को भी पता नहीं होता । लहरों पर चलना एक तरह से जिंदगी को जीना है । लहरें हैं कि अपने साथ उठा लें जाती हैं... कहती हैं कि यह है जिंदगी .... कहां भटक रहे हों ? ऐसे कब तक भटकते रहेंगे ?  जीने के लिए लहरों के साथ, लहरों पर सवार होकर चलना ही पड़ता है । जो समझदार होते वो लहरों के सहारे चल देते । संसार को अपने ही अंदाज में देखने के लिए । संसार आंखों के सामने होता है । हम कैसे उस संसार को अपने ढ़ंग से लें यह जानना जरूरी होता है । हमारा संसार वहीं है जिसे हम जीते हैं । वर्तमान को छोड़कर कल्पित भविष्य के भरोसे हम जीवन नहीं जी सकते न ही जीवन का किनारा हमसे इतना दूर होता कि उसके बारे में हम कुछ सोच न सकें । हमें बराबर से संसार के बारे में सचेत ढ़ंग से सोचते हुए चलना होता है । अपना संसार बनाना पड़ता है । जो संसार हमने बनाया है जो गढ़ा है उसे जीने का आनंद ही अलग होता ।

संसार में आपकी उपस्थिति तभी होती है जब आप संसार के साथ समायोजन करते हैं । संसार को इस तरह लेते हैं कि आप इसी संसार में हैं और संसार की हर गतिविधि में आपकी कोई न कोई भूमिका है । संसार से अलग थलग होते हुए आप कुछ नहीं कर सकते । कम से कम ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसका उल्लेख किया जा सके । यह सब संभव तब होता है जब आप अपने साथ अधिक से अधिक लोगों को लेकर चलते हैं । केवल अपनी चलाने की कोशिश नहीं करते अन्य के हिसाब से भी चलने के लिए तैयार होते हैं । अधिक से अधिक लोगों को सुनते हुए जब चलते हैं तो कोई भी समस्या केवल आपकी नहीं होती उसे सब हल करने के लिए आगे आते हैं । यह सब संभव तब होता है जब आप अपनी दुनिया को अपने से आगे रख समाज की सुनते हुए चलने की कोशिश करते हैं तो समाज सहज रूप से आपके साथ चल पड़ता है ।

संसार में पड़े रहने का कोई अर्थ नहीं होता । संसार में आपकी उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए । यदि आपकी उपस्थिति है तब तो संसार में होने का कोई अर्थ है और आप अर्थ पूर्ण जिंदगी जी रहे हैं ।

आदमी की जिंदगी उसके अर्थ में होती है । जिंदगी को मूल्य के साथ जीना , किसी सिद्धांत को लेकर चलना और सिद्धांत के लिए जीना ही सही मायने में जीवन को एक व्यवस्था व अर्थ देना होता है । जब हम सब अपने सिद्धांत को लेकर जीते हैं तो स्वाभाविक सी बात है कि हम सामाजिक जीवन और मर्यादा की जिंदगी को जीते हैं ।‌ मनुष्य मात्र के लिए जीवन नियमों की एक दुनिया है । जिसमें वह अकेले नहीं होता उसके साथ उसकी पूरी दुनिया होती है । आदमी जो जीवन जीता है उसमें विविध रूप समय समय पर अपने आकार लेते रहते हैं । यह रूप संसार ही दुनिया है जिसमें हम सब जीवन जीते हैं । जीवन क्रम पर चलना एक तरह से संसार को समझने के लिए आगे आना है । संसार की हर गतिविधि में हम सब होते हैं । कोई अकेले कुछ नहीं कर रहा होता है सबको साथ लेकर चलने पर ही हम सब संसार में आते हैं । हम किसी एक स्थापत्य में , एक ही संरचना में नहीं होते न ही एक संसार हमारे पास होता । एक समय में एक संसार से संवाद करते-करते अन्य संसार से भी संवाद करते चलते हैं । यह संसार संसारी राज के बीच रह रहे लोगों की दुनिया से संवाद करने का प्रमाण है । संवाद कभी भी एकरूपता से नहीं होता । संवाद की प्रकृति ही विविधता में है । विविधता से साक्षात्कार करते हुए हम संवादी होते हैं । संसार के रंग में संवाद अर्थ ग्रहण की भी दुनिया है । कोई भी अर्थ एक रूप नहीं होता । हर आदमी अपने संसारी स्वभाव से संसारी हिसाब किताब से अर्थ ग्रहण करता है । एक ही तत्व अलग-अलग सामाजिक सांसारिक स्थितियों में संसार का अलग-अलग अर्थ करता है । इसलिए किसी एक स्वरूप किसी एक रूप को लेकर चलने वाले लोग अपनी यात्रा में अकेले पड़ जाते हैं । अपने संवाद में एक सीमित संसार से ही संवादी हो पाते हैं । संवाद की विविधता ही हमें संसार से जोड़ती है । संसार से जुड़ने के लिए किसी एक रूप में ही नहीं चला जा सकता है । संसार से , संसार के विविध रूप से जुड़ने के लिए उस संसार को करीब से जानना समझना होता है । एक संसार इतना भर नहीं होता कि उसे देखें और चलता बने । संसार तभी आपके लिए संसार हो पाता है जब उस संसार को जीते हैं । उससे जुड़ते हैं और अपना संवाद स्थापित कर अपनी उपस्थिति को उस संसार से जोड़ते हुए आगे बढ़ते हैं ।

 जबकि अन्य संसार से संसार भर से रिश्ता रखते हुए संवादी होते हुए अपने लिए एक व्यापक दुनिया बनाते हुए संवादी व्यक्तित्व का आदमी बड़ा संसार बनाता है । इस क्रम में उसका व्यक्तित्व भी बड़ा बनता है । सर्व स्वीकारी होना , सबको अपने साथ लेकर चलने की कोशिश करना और अपने व्यक्तित्व का सामाजिक संसार में स्थापित करते हुए चलना ही सही मायने में व्यक्ति के व्यक्तित्व रूप से रूपांतरित होने की कहानी होती है ।  व्यक्ति अपने संसार से कितना संवाद कर पाता है यह तभी संभव हो पाता है जब वह अपने अंह को किनारे पर छोड़कर जाता है । किसी से भी संवाद करने के लिए उसके पास कुछ दूर तक, कुछ देर तक चलना पड़ता है तब जाकर उस व्यक्ति से जुड़ पाते हैं । यदि आप अपने अंह के शिकार हो गए तो किसी से भी संवाद नहीं कर सकते ऐसे लोग जो अंह के पुतले होते हैं वे खुद से साक्षात्कार नहीं कर पाते । फिर संसार और समाज से क्या संवाद करेंगे । समाज से संवाद करने के लिए सहज और सामाजिक प्राणी होना पड़ता है। तब जाकर आप स्वयं से और समाज से संवाद कर पाते हैं । यह संभावना व्यक्ति मात्र में होती है पर व्यक्ति का अहम् उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बाधा होती है । अहम् आपको पुतला बना देता है । एक रूप में एक जगह पर बस पड़े रहे । आपकी उपस्थिति होने का कोई मायने नहीं। और आपके जीवन की जीवंतता से गायब हो जाती है । ऐसे में आप ना तो स्वयं को ठीक से जान पाते हैं ना अन्य को जान समझ पाते । बस अपनी जगह पर पड़े पड़े पैर पटकते रहते हैं । और सोचते हैं कि मैंने तो पूरी दुनिया की परिक्रमा कर ली । हो सकता है अपनी जगह पर पैर पटकते पटकते दुनिया भर चलने की ऊर्जा को व्यर्थ में गंवा दिया । इससे कुछ नहीं होता क्योंकि ना तो आप अपने लिए एक कदम चले न दूसरों के लिए दो कदम चले । बस अपने अंह के साथ दांत किटकिटकिटाते  रहे । कुछ भी होने वाला नहीं है । जो संवादी और व्यक्तित्व के प्रति आग्रही होते हैं व्यक्तित्व को जीते हैं वह अपने भीतर होते हुए भी हर समय अपनी उपस्थिति अपने समय और समाज से संवाद करते हैं । आदमी की दुनिया में सहज होकर जाते हैं । बाजार , मेले , चौराहे उनकी पसंदीदा जगह होती है । बाजार मेले से संवाद करते हुए हम संसार को जीते हैं । संसार जहां कोई भी अकेले नहीं होता सब एक दूसरे के साथ जीवन की गति को अर्थ देते हैं । एक दूसरे के लिए जीते हैं । यहां सारा संवाद ही जीवन के केंद्र से होता है । यहां से इस तरह के लोग संवाद करते हुए न केवल सहज होकर जीवन जीते हैं बल्कि संसार की समस्याओं के बीच अपने ढंग से समाधान खोजते हैं और अपनी उपस्थिति को सार्थक बनाते हैं ।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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