बूढ़ी हो जाती है स्त्री
स्त्री
बूढ़ी हो जाती है
धीरे-धीरे
छुपा देती है
अपनी अल्हड़ता
शहतूत की किसी टहनी पर
बूढ़ी होती स्त्री
अपने बचे हुये दिनों में
फेरती है मनकों की माला
घर के किसी कोनें में
गठरी की तरह
बुदबुदाते उसके होंठ
टिक जाते हैं साँकल पर
और तुम
फेर लेते हो
अपनी दृष्टि
दरअसल
स्त्रियों की जड़ों मे ही होते हैं
झुर्रियों के बीज
तुम्हारे सींचनें से
अंकुरित होकर
उपजाऊ हो जाती हैं
इनकी तमाम पीड़ाएं
समय के
वृत में घूमती हुई स्त्री
आलिंगन कर लेती है
इन रेखाओं से
छोड़ जाती है
कुछ बीज
पुनः अंकूरण के निमित्त
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