गुरुवार, 11 जनवरी 2024

वापस गांव की ओर ‍‍(कहानी ) - वापस गांव की ओर



केदार शर्मा,’निरीह’
सेवा निवृत्त व्याख्याता (अंग्रेजी)

वापस गांव की ओर

                          

      *रामलाल ने आखिरकार शहर में आकर नया किराए का कमरा ले ही लिया । आज पहला दिन था । दुपहरी से शाम तक का समय तो कमरा जमाने में ही लग गया । शाम को खाना खाकर दोनो पति-पत्नि अनमने से बैठ गए । नई जगह, नया मकान और अनजान लोग । तन्हाई धुंध की तरह दोनो के भीतर पसरी हुई थी।

        यूँ तो वह अपने दो छोटे भाइयों और उनके पत्नि-बच्चों के साथ संयुक्त परिवार में रह रहा था । परन्तु अब परिवार में छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े होने लगे थे । कभी बच्चों को लेकर तो कभी बिजली के बिल को लेकर, तो कभी रोजमर्रा के काम को लेकर । वह रोज शहर से मजदूरी करके वापस घर आता तो शाम को कलह तैयार मिलता । कभी-कभी तो वह कलह से उद्विग्न होकर बिना खाना खाए ही सो जाता । फिर धीरे-धीरे वे लोग मारपीट पर उतरने लगे । शाम को पत्नि रोती सिसकती शिकायतों का गुबार निकालती मिलती। जब वह भाइयों और उनकी पत्नियों को उलाहना देता तो फिर नए सिरे से कलह छिड़ जाता ।आखिरकार परेशान होकर उसने शहर में बसने का निश्‍चय कर लिया ।

         शहर के प्रति आकर्षण रामलाल के अवचेतन में कुंठा बनकर बचपन से ही घर किए हुए था। परिस्तिथियों ने इसको हवा दी। वैसे भी रोजगार के लिए ,इलाज के लिए और हाट बाजार में खरीदारी के लिए उसे शहर आना ही पड़ता था । उसका यह स्वप्न आज यथार्थ में बदल चुका था, पर न जाने क्यों उखाड़कर दूसरी जगह लगाए पौधे की तरह उसका मन कुम्हलाया हुआ था ।

          दरवाजा खुला था। उसे मकान मालिक अपनी पत्नि के साथ आता दिखाई दिया । सामान्य अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्‍चात बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ । मकान मालिक ने खोद-खोदकर सारी जानरकारी ली । पता चला कि बंगला बनवाते समय यह कमरा मजदूरों के रहने और उनका निजी सामान रखने के लिए था और पहली बार रामलाल को किराए पर दिया गया है ।

         उनके जाने के बाद रामलाल ने अपनी पत्नि राधा से पूछा—“ मकान मालिक और मालकिन तो भले जान पड़ते हैं” ।  राधा कुछ नहीं बोली,वैसे ही उदासी भरी आँखों से शून्य में ताकती रही ।

         सुबह सब चाय पीकर उठे ही थे कि मकान मालकिन की आवाज सुनाई पड़ी —“ट्यूबवेल चलने वाला है,पानी भरलो,नहा-धो लो। एक घंटे बाद बंद हो जाएगा” । राधा ने जल्दी से बरतन साफ किए, पानी भरा,  सभी जल्दी से नहा-धोकर तैयार हुए । एक घंटे तक हड़कंप मचा रहा । रामलाल को इस समय गाँव की याद आ रही थी । जब चाहो तब तालाब जाकर में नहा लो । कपड़े धो लो। पर अब तो घड़ी पर नजर रखनी पड़ती थी। सुबह आठ से नौ बजे तक का समय चूक गए तो देरी के लिए दस बातें सुननी पड़ती थी  तब जाकर दुबारा टयूबवेल चलाया जाता । यद्यपि दोनो पति-पत्नि खूब सतर्कता रखते और  कोशिश करते कि किसी को किसी तरह की शिकायत न हो । पर  कभी मकान मालिक तो कभी मकान मालकिन किसी न किसी तरह की हिदायत देते रहते—“वहाँ सफाई रखो,इधर कचरा मत डालो, उधर मंजन मत करो ।

        रामलाल को एक फैक्ट्री में काम मिल गया था । वेतन भी पर्याप्त मिलने लगा था । शाम को जब वह घर आता तो राधा के चेहरे पर वही उदासी टंगी मिलती । किसी बुझती हुई बाती में डाले गए तेल की तरह उसका घर लौटना दोनो बच्चियों की आखोँ में चमक ला देता । वह दोनो बच्चियों के साथ घंटों तक खेलता रहता।

            एक दिन रामलाल बच्चियों को कहानी सुना रहा था कि किसी ने दरवाजा खटखटाया । देखा तो मकान मालिक था ।तन्नू ने लाकर एक कुर्सी रख दी पर वह बैठा नहीं बल्कि कमरे का गहराई से मुआयना करने लगा । खिड़की की दीवार के साथ सहारा लगाकर रखी गई मटकी की ओर अचानक उसका ध्‍यान गया —‘यह मटकी यहाँ क्यों रखते हो ? देखिए इस लोहे की जाली में इसी के कारण जंग आ चुकी है’।

आगे से यहाँ नहीं रखेगें, श्रीमानजी, पर यह जंग तो पहले से ही आया हुआ था”— राधा ने आत्मविश्‍वास के साथ जवाब दिया । वह अपने तर्क देता रहा।राधा उसके हर तर्क को काटती रही । आखिरकार वह बड़बड़ाता हुआ चला गया ।

धीरे-धीरे रामलाल और राधा को लगने लगा कि मकान मालिक और मालकिन अक्सर गंभीर और मौन ही रहते हैं । केवल कुछ जानकारी लेने के उद्देश्‍य से बोलते हैं,निरीक्षण करने के बहाने कमरे में आते हैं। यह वह बस्ती है जिसमें सब अपने काम से काम रखते है । बिना काम कोई नमस्ते भी नहीं करता ।

          गर्मियों के लंबे और उमस भरे दिन आ चुके थे । सब ओर कोरोना के आतंक का साया था और हर कहीं सन्नाटा छाया हुआ था । राधा पास  की दुकान से सब्जी लेकर लौट रही थी कि अचानक उसकी नजर एक परिचित महिला पर पड़ी जो बगल के मकान से निकली थी ।

 अरे रानी भाभी आप! राधा ने आश्‍चर्य के साथ कहा ।

मेरा तो यहाँ ननिहाल है । गाँव से आने के दूसरे दिन से ही लॉक डाउन लग गया और तब से मै यहीं हूं ।लेकिन राधा भाभी आप?”

हाँ भाभी, मैं भी साल भर से यहीं इस मकान में किराए का कमरा  लेकर रह रही हूँ ।‘ वे’ यहीं पर एक फैक्ट्री  में काम करते हैं । गाँव में कैसे हैं सब । यहाँ शहर में आने के बाद गाँव की कुछ खैर-खबर  ही नहीं है”— राधा जानने को उतावली थी ।

    हम भी हमारे गाँव के चौराहे वाले मकान को खाली करके गाँव से बाहर रतनपुरा की ढाणी में रहने लगे हैं । वहीं पर हमारे खेत और कुआ है । सोच रहें हैं गाँव के मकान को बेच दें” —रानी बता रही थी । राधा को तो मानो घोर अँधेरे में प्रकाश की कोई किरण मिल गई थी ।

          अरे भाभी,  वह मकान हम ले लेंगे । वहाँ रोज-रोज की किचकिच से परेशान होकर यहाँ आ तो गए हैं पर इस मुए शहर में तो मेरा दम घुटने लगा है” — राधा भावुक होकर साड़ी के पल्लू से अपनी आँखें पौंछने लगी ।

      अरे, दुखी मत होओ, भाभी । तुम जिस दिन चाहो गाँव जाकर उस मकान में रह सकती हो”— रानी भाभी के इन शब्दों ने जैसे राधा के सिर से टनों बोझ उतार लिया था ।

       राधा कमरे पर गई तो मकान मालकिन को अपनी ओर देखते पाया । ‘सुनो,’ राधा ने पलटकर देखा, वह कुछ कह रही थी —“अपने हाल में मस्त रहा करो, ये लोग अच्छे नहीं हैं । उसने बगल के मकान की ओर इशारा करके कहा । राधा ने सुना और चुपचाप बिना जवाब दिए अन्दर चली गई । वैसे तो रानी भाभी ने भी बता दिया था कि उनकी इस परिवार से बोलचाल बंद है । पर इससे उसको क्या ?सबका अपना-अपना व्यवहार है । शहर की इस काटती तन्हाई और लॉकडाउन के सन्नाटे में  किसी दुर्लभ संयोग से तो कोई खुलकर बोलने वाली सहेली मिली है ।

   अब तो दोनो सहेलियों की कभी सब्जी लेने जाते समय तो कभी मंदिर में मुलाकात हो जाती । दोनो जी भरकर बातें करतीं । उस दिन राधा घर से निकली ही थी कि रानी सामने से आती दिखाई पड़ी । दोना मकान के सामने स्थित गुलमोहर के वृक्ष के नीचे खड़ी होकर घंटो बतियाती रही ।

    दूसरे दिन राधा सुबह बाहर चौक में कपड़े धो रही थी । रामलाल ध्‍यान  करने के लिए बैठ चुका था ।  मकान मालकिन भी वहीं चली आई और तेज आवाज में बोली— “देखो , हमारा कमरा खाली कर दो । हमारे ही मकान में रहकर हमारे ही दुश्‍मनों से हमारी ही बातें करने से बाज नहीं आते “। वह आवेश में बड़बड़ाए जा रही थी ।

             ठीक है कमरा खाली हो जाएगा” —राधा ने आत्मविश्‍वास के साथ जवाब दिया और मौन हो गयी । उधर भीतर रामलाल ने सुना तो दो बूँद आँसुओं की टपक पड़ी। जिस किचकिच से बचने के लिए वह यहाँ आया था वह तो यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही है । “अब मै यहाँ से कहाँ जाउंगा । कोई रास्ता दिखाना,प्रभु” ।

              रामलाल ने फैक्ट्री के एक मित्र के सहयोग से एक दूसरा कमरा देख लिया और पेशगी के तौर पर पाँच सौ रूपए भी दे आया ।उधर राधा पीहू और तन्नू के  सहयोग से सामान पैक करने लगी ।

सुबह का सूरज निकलने के साथ ही सामान छोटी लॉरी  में पीछे की ओर रखा जा चुका था । आगे  केबिन में राधा और रामलाल बैठ गए । गाड़ी रवाना हो गयी ।थोड़ी दूर एक चौराहे के पहले ड्राइवर ने कहा —“किधर मुड़ना है साहब ।

      गाड़ी विश्‍वकर्मानगर की और मौड़ लो —रामलाल ने इशारा किया ।

    राधा  बोली — “नहीं भैया, गाड़ी को सीधे हरिपुरा गाँव की ओर मोड़ लो”।  रामलाल चौंक गया —“लेकिन मैंने तो वहाँ पर किराए के कमरे के लिए पेशगी के पाँच सौ रूपए दे दिए हैं “

            दे दिए होंगे मुझे अब इस शहर में नहीं रहना है । मैने मीरा के खाली मकान की चाबी ले ली है ।

                   और गाड़ी वापस गाँव की ओर दौड़ने लगी। अपने एक नए घर की उम्मीद में और वह भी अपने ही गाँव में---राधा मानो एक नई उम्मीद पर सवार होकर उड़ी जा रही थी।

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केदार शर्मा,”निरीह

कहानियां, व्यंग्य, कविताएं,गीत , लघुकथाएं एवं आलेख विधाओं में रचनाएं राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर,अमर उजाला, दैनिक नवज्योति, दैनिक जनवाणी, सुबह-सवेरे , दैनिक इन्दौर समाचार, शिविरा पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं। सूरज सिंह नेगी वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा प्रकाशित संग्रहों में आलेख प्रकाशित।


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