कविता की सृजनात्मकता
भाग-2
जीवन यथार्थ को ज्यों का त्यो प्रस्तुत कर देना उसका अतिक्रमण नहीं है। जब भी कवि दिक्-काल के अतिक्रमण की सोचता है, उसे यथार्थ के गहन अर्थ संदर्भों की खोज करनी पड़ती है। यानी यथार्थ की नवीन व्यंजना तलाशनी पड़ती है। और यह तभी संभव है जब कवि का यथार्थ बोध सुस्पष्ट हो। कई बार यह देखा गया है कि कवि यथार्थ का निरूपण तो करता है, लेकिन उसका अन्तस्र्वर एकदम गैर मानवतावादी, गैर सृजनात्मक और यथास्थिति परक होता है-
'कूड़े वाली लड़की / बीनती है
कूड़ा / बुनती है स्वप्न /
दादी कहानी सुनाती थी / एक बार लकड़दादा को/
कूड़े से मिली चवन्नी / तब दिन भर/तुरही बजी /
दादा को अठन्नी मिली/और सारे घर के लिए /
कच्ची चढ़ी /
कूड़े वाली लड़की सोचती है / कैसे कैसे दिन
थे/
और उसके हाथ कूड़े में / जल्दी जल्दी चलने
लगते हैं।'
(राजेश शर्माः कूड़े वाली लड़की,
पहल-37, पृ. 100)
कूड़ा बीनने के काम में भी सपने संजोने की
गुंजाइश हो तो यह उम्मीद करना बेकार है कि उस काम के प्रति किसी के मन में घृणा, असंतोष या आत्मग्लानि पैदा होगी। दरअसल यहां कवि ने कूड़ा बीनने जैसे
घृणित कर्म का भी महिमा मंडन किया है। कूड़े में कभी चवन्नी या अठन्नी मिलने की
बात करके वह उस लड़की में खुश फहमी पैदा कर रहा है। परोक्षतः कवि लड़की को यह सलाह
दे रहा है कि कूड़ा बीनते हुए भी उन दिनों की खुशियां प्राप्त की जा सकती है जब घर
में तुरही बजा करती थी या घर-भर के लिए कच्ची चढ़ती थी। इस कविता को लिखने के पीछे
कवि का जो उद्देश्य रहा है, वह उद्धृत बंदों में पूरा नहीं
हो रहा है। यह सृजन नहीं है।
यथार्थ की पुनर्रचना ही सृजन है। कभी-कभी
रचनाकार की निष्ठा और ईमानदारी भी सृजन की जगह ले लेती है। इसका कारण यह है कि
रचनात्मक अन्तर्निष्ठा के क्षणों में कवि की अनुभूतियां एकदम पारदर्शी हो जाती
हैं। उनके आवेग को कल्पना के सुन्दर फ्रेम में जड़ने या भाषा की कारीगरी तक बनाये
रखने का कवि के पास अवकाश नहीं होता। ऐसी अनुभूतियों का तनाव कवि के लिए असह्य
होता है। वह उनकी सहजतम अभिव्यक्ति करके स्वयं को तनाव मुक्त कर लेना चाहता है।
तीव्र अनुभूतियों से संवलित यथार्थ का वर्णन सृजन की अतिरिक्त कोशिश का मोहताज
नहीं होता। वह अपने आप में सृजन होता है। जैसे -
'उजरा बैल कुलांच रहा है/ खूंटा
सूंघ चाट कर नथ को, पगहे भर में नाच रहा है। (मानबहादुर सिंह,
साक्षात्कारः 113-115, पृ. 15)। यहां उजड़े बैल की क्रियाओं का मात्र वर्णन किया गया है। जो बड़ा ही
सजीव और सहज है। सृजन की शर्तों को पूरा करता हुआ।
यथार्थ के कई स्तर होते हैं। एक स्थूल यथार्थ
है जो हमारे आस-पास व्याप्त है। दूसरा वह सूक्ष्म यथार्थ है, जो कवि या कलाकार की चेतना में सजीव है। जिसे वह अपनी कल्पना या भाव के
रंग में रंगा हुआ देखता है। बाह्य यथार्थ को कवि जहां भी प्रतिक्रियात्मक रूप में
ग्रहण करता है, वहीं वह उसका सार ग्रहण करने से वंचित हो
जाता है। उसके अर्थ संदर्भों या व्यंजना को गंवा देता है। प्रतिक्रिया हमारी
प्रतीति को चाट जाती है। इसीलिए प्रतिक्रियात्मक तौर पर लिखी हुई कवितायें ज्यादा
टिकाऊ नहीं होती। उनमें एक खास तरह की तात्कालिकता रहती है। यह जरूरी नहीं है कि
कविता में सूक्ष्म यथार्थ स्थूल यथार्थ का हर जगह अतिक्रमण करें। कई बार ये दोनों
समानान्तर भी चलते है। मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में यह देखा जा
सकता है।
काव्य सृजन के लिए स्थूल यथार्थ का मात्र अनुकरण और रीतिवाद (शास्त्रीय नियमों का यांत्रिक निर्वाह) दोनों अनुपयुक्त है। हम उसे आत्मस्फुरण भी नहीं कह सकते। वह कवि के सचेत प्रयत्न का फल है। कवि बार-बार यथार्थ को अपने ढंग से ग्रहण करके उसकी अर्थ व्यंजना उभारने का प्रयास करता है। कविकर्म फोटोग्राफी नहीं है। फोटोग्राफर गतिशील यथार्थ को स्थिरता में आबद्ध करता है। फोटो में निरंतर बदलते यथार्थ को प्रस्तुत करना संभव नहीं है। उसमें यथार्थ के पूर्वापर संदर्भ अदेखे रहते हैं। फोटोग्राफी में ‘मोमेन्ट’ का महत्व है। उसमें वह पल विशिष्ट और संवेदनीय होता है, जिसमें यथार्थ को कैद किया गया है। फोटोग्राफी के लिए टेकनीक की सही समझ और सहज बोध पर्याप्त है। दृश्य को किस कोण से कैद करना है, बस, यह आना चाहिए। लेकिन कवि का काम अपनी गांठ की पूंजी खरचे बिना नहीं चल सकता। जो कुछ दिखाई दे रहा है, उस की उसे शाब्दिक तस्वीर नहीं उतारनी होती है। बल्कि जो दिखाई दे रहा है, उसमें जो अदृष्ट है, उसे दिखाना होता है। यह दोहरा जोखिम काव्य रचना के दौरान बराबर बना रहता है। दोहरा इस अर्थ में कि सामने जो कुछ मौजूद है, उसकी परते उधेड़ कर उसमें जो प्रच्छन्न है, उसे उद्घाटित करना है। और जिसे उद्घाटित किया जा रहा है उसके लिए यथार्थ के मौजूदा रूपों में आवश्यक तब्दीली करनी है। इसके बाद उसके सामने एक चुनौती और दरपेश होती है। वह है अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित यथार्थ को सर्वस्वीकृत बनाना। यानी विशिष्ट का सामान्यीकरण करना। ऐसा नहीं है कि कवि यथार्थ में जो ऊटपटांग तब्दीली कर दे, उसे लोग स्वीकार कर लेते हों। यह होता तो केशव निश्चय ही श्रेष्ठ कवि होते। उन्हें कविता लिखना आता था। उनमें अनुभव और ज्ञान की कमी भी नहीं थी। कमी सिर्फ संवेदनशीलता की थी। इसी कमी के कारण वह बार-बार शब्द चमत्कार की ओर बढ़ते हैं। जो कवि काव्य विषय से राम्भनित संवेदनाओं का वृत तैयार नहीं कर पाते, वे ऐसी चालाकियां बरतते है।
निरंतर...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें