बुधवार, 31 जनवरी 2024

रचना और आलोचना की अन्तर्सम्बद्धता- अजित कुमार राय


 रचना और आलोचना की अन्तर्सम्बद्धता

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रचना और आलोचना के द्वन्द्व को उसकी सामासिकता में पहचानना एक कठिन कार्य है। दोनों की भूमिकाओं की अदला-बदली भी सर्वज्ञात है। रचना भी तो मूलतः जीवन की आलोचना ही है। कविता यदि जीवन की पुनर्रचना है तो आलोचना कविता की पुनर्रचना। इसका यह अर्थ है कि आलोचना रचना पर आश्रित होती है और आलोचक रचना का प्रथम पाठक और व्याख्याता है। किन्तु इसका यह आशय कतई नहीं कि आलोचना दोयम दर्जे की विधा है। वस्तुतः आलोचना रचना का पुनर्पाठ है। वह कवि के देखने को समग्रता में देखना है। इस प्रकार विमर्श को वह प्रतिसम्पूर्ण बनाती है। रचना यदि जीवन की जटिलताओं को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत करती है तो आलोचना रचना के व्याख्या-विश्लेषण में प्रवृत्त होती है। उसका दायित्व रचना के मूल्यांकन और स्तरीकरण का भी है। ईमानदार आलोचना कवि को प्रमाण-पत्र देती है और पर्यावरण को स्वयंभू महाकवियों, कथाकारों एवं निबंधकारों से बचाती भी है। राजनैतिक आलोचना पत्रकार बनाती है और आलोचना की राजनीति शिविरबन्दी की ओर ले जाती है। अतिवादी आलोचना स्वस्थ रचनाशीलता में भी कूड़ा देखने लगती है, जबकि अज्ञेय की अंतर्दृष्टि कूड़े में भी सौन्दर्य देख लेती है। विचारधाराएँ रचना को समझने की दृष्टि प्रदान करती हैं, किन्तु ‘प्रतिबद्धता’ रचना के सम्यक् आकलन में बाधक भी बनती है। कालिदास कहते हैं-  ‘‘निरंकुशा हि  कवयः।’’ श्रेष्ठ कवि हमेशा किसी भी चैखटे से बाहर पड़ता है। वह जिंदगी का निर्वसन साक्षात्कार करता है, किसी फ्रेम में नहीं। वह नंगे तलवों खुरदुरी जमीन पर चलता है, उसे किसी पदत्राण की जरूरत नहीं।

 रचना सत्य को सम्पादित करती है, विकृत नहीं। वह चाटमार्का यथार्थ के बजाय, रचनात्मक यथार्थ का संग्राहक है। वह एक कला है जो जीवन को सम्बोधित है। वह सम्वेदनात्मक सत्याग्रह तो है ही, कलात्मक अभिनिवेश भी है। उसमंे कथ्य और शिल्प का संश्लेष वाक्षित है। मुक्तिबोध एक खांटी प्रगतिशील कवि हैं किन्तु उन्होंने कलावादियों की फैंटेसी अपनायी और उनका स्वप्न सच से भी अधिक क्रूर हो गया। डाॅ0 प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं- “मुक्तिबोध इस भयानक संसार की गुंजलक में फँसी बेचैन आत्मा का एक घनघोर आख्यानक रचते हैं।” यह वही मुक्तिबोध हैं जो छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद को विचारधारा के आधार पर खारिज नहीं करते, बल्कि ‘कामायनी’ का पुनर्मूल्यांकन करते हैं। विरोधी विचार सरणियों से अंतः-क्रिया और संवाद का यह विरल उदाहरण है। विपरीत विचार-दृष्टियों में रचनात्मक सामंजस्य ही तो कुबेरनाथ राय की भारतीय दृष्टि है। यह नित्यानंद तिवारी का ‘सर्वसंश्लेषणवाद’ नहीं। तुलसी की व्यापक समन्वय दृष्टि विभिन्न दर्शनों, संप्रदायों एवं जीवन शैलियों में एक सामंजस्य की तलाश है। तुलसी एक महान सर्जक ही नहीं, श्रेष्ठ आलोचक भी हैं। आठवें ‘लव-कुश’ कांड का ‘रामचरितमानस’ में निषेध करके प्रकारान्तर से अपने आराध्य के सीता-त्याग और शम्बूक-वध प्रसंग से अपनी प्रच्छन्न असहमति भी उन्होंने जाहिर कर दी है। साथ ही अपने महानायक के हाथों एक ब्राह्मण खलनायक का वध कराकर ‘ब्राह्मणवाद’ का अतिक्रमण भी करते हैं।

 हर सर्जक के भीतर एक आलोचक छिपा रहता है और प्रायः आलोचक का प्रस्थान-बिन्दु कविता ही होती है। चाहे वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हों या नामवर सिंह, डाॅ0 विवेकीराय हों या कुबेर नाथ राय। ज्ञानात्मक संवेदन या संवेदनात्मक समझ के बिना तो आलोचना लिखी ही नहीं जा सकती। मैं स्वयं नई कविता को समझने के लिए आलोचना के द्वार गया और कवि से आलोचक बन बैठा। विजयदेव नारायण साही और नलिन विलोचन शर्मा ही क्यों, कुँवर नारायण, अशोक वाजपेई से लेकर ज्ञानेन्द्रपति, राजेश जोशी और अष्टभुजा शुक्ल तक एक ही साथ कवि भी हैं और आलोचक भी। अनामिका और पंकज चतुर्वेदी का गद्य भी पढ़ने के लिए आमंत्रित करता है। नरेश मेहता और निर्मल वर्मा के अलावा, नई कहानी के पुरोधा राजेन्द्र यादव भी एक ऊर्जावान विमर्शकार हैं। ‘हंस’ के संपादकीय लेखों से मुखर असहमति हो सकती है, किन्तु उसकी आलोचना-भाषा के सौन्दर्य से कौन इन्कार कर सकता है ?  डाॅ0 नामवर सिंह राजेन्द्र यादव की भाषा में ‘उग्रता’ और सांस्कृति दृष्टि की दरिद्रता देखते हैं पर वही उसकी शक्ति भी है।

 आलोचना को रचना की अर्थच्छाया से बिम्ब और विमर्श तक ले जाने वाले अन्वेषी आलोचकों में आज अजय तिवारी, विजय कुमार, जयप्रकाश, ओम निश्चल, रमेश चन्द्र शाह, अर्चना वर्मा, अभय दुबे, अपूर्वानन्द, पंकज पराशर और रजनी गुप्त का नाम लिया जा सकता है। विनोद शाही की भाषा की दुरूहता और अमूर्तन के बरक्स डाॅ0 शंभुनाथ और विजय बहादुर सिंह की भाषा में प्रासादिकता के दर्शन होते हैं। ‘सहारा-समय’ के आरंभिक दौर में जब डाॅ0 नामवर सिंह और मंगलेश डबराल उसके सलाहकार सम्पादक हुआ करते थे, उस साप्ताहिक पत्र के सम्पादकीय लेखों का मैं कायल था। भाषा को डायल्यूट कर कैसे उसकी पोटेन्शी बढ़ाई जाए कि भाषा सम्पे्रष्य भी हो और उसकी स्तरीयता भी सुरक्षित रह सके, इस दृष्टि से वह एक मानक भाषा थी। ‘इंडिया टुडे’ की कुछ पुस्तक समीक्षाओं में भी उसी भाषा का आविष्कार लक्षित होता था, जब अशोक जी उसके साहित्य सम्पादक थे। कुछ पुस्तकों या काव्य-संग्रहों की भूमिकाओं में भी आस्वाद्य मंत्र-भाषा के निदर्शन यदा-कदा प्राप्त हो जाते हैं। आज यदि उसी मानक गुणवत्ता को कविता में शिफ्ट किया जा सके तो हम एक आदर्श समकालीन काव्य-भाषा का निर्माण कर सकते हैं। जैसे गोस्वामी तुलसीदास का रामचरित मानस क्लास और मास की कविता के बीच एक सेतुबंध है। वह एक ही साथ जनकाव्य भी है और सुजन साहित्य भी। लोकसंग्रह के द्वारा ही हम मंचीय कविता और साहित्यिक कविता के बीच की खाईं को पाट सकते हैं। आज की गद्यब्राण्ड सिन्थेटिक कविताओं और फूहड़ मंचीय भँडैती के बीचोंबीच सुनहरी रेखा खींच देने वाले नवगीत को हमने लम्बे समय तक उपेक्षित रखा। इसके लिए वर्तमान आलोचना जिम्मेदार है। नामवर सिंह को नवगीत का सौन्दर्य बहुत देर में दिखाई पड़ा। दरअसल वहाँ सौन्दर्य ही कुरूपता है अथवा कुरूपता का सौन्दर्यशास्त्र रचा जाना ही अभिप्रेत है। जीवन में सत् भी है और असत् भी। उसका समग्रता में स्वीकार ही साहित्य का पाथेय है, किन्तु विचारधारा के वर्चस्व ने जहाँ धूमिल जैसा सशक्त कवि दिया वहीं नवगीत की कलाचेतना को कुंठित भी किया। नई कविता और नवगीत एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। कुछ लोग तो इतिहास और कविता की मृत्यु की घोषणाएँ सन् 1990 के आस पास ही कर चुके थे, ताकि वे खुद अमर हो जाएँ। सुधीश पचैरी जी! ऐसी आत्मघाती आलोचना रचना का कितना कल्याण कर सकती है! जिस दिन हम गुनगुनाना बन्द कर देंगे उस दिन कविता अवश्य मर जाएगी। किन्तु हम तो रोते भी हैं तो गीतों में रोते हैं। गीत में समय का प्रभाव प्रच्छन्न या अन्तव्र्याप्त रहता है। वह जीवन की जटिलताओं या सम्पूर्ण समय को समेटने का दावा नहीं करता। गीत गेहूँ नहीं, जिसे हार्वेस्टर से काटा जाए। वह तो गुलाब है जिसमें खेत-खलिहान की महक मिली हुई है। यहीं याद आते हैं विद्यानिवास मिश्र और उनकी संक्रामक उत्सव-चेतना। जहाँ एक खेत की फसल पकती है तो देखादेखी दूसरे खेत की फसल भी पकने लगती है। परंपरा की यह परिपक्व चेतना ही उनके ललित निबन्धों में सुनहरा आकार ग्रहण करती है। दलित आँखों की लालिमा का संक्रमण बच्ची को बीमार न बना दे इसलिए वे ललित की सृष्टि करते रहे। किन्तु जिन्हें लालित्य से ही चिढ़ है उनका इलाज कैसे किया जाए ? जब दुष्यन्त कुमार कहते हैं-

 तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।

तो उसमें समय का कम्पन भी है और कविता का रोमांच भी। पे्रम के अनुलोम-विलोम को यूँ शब्दों में उतारना एक प्राणायामी साधना है। किन्तु जब धूमिल कहते हैं-

 लोहे का स्वाद लुहार से मत पूछो

 उस घोड़े से पूछो, जिसके मुँह में लगाम है।

तो शोषक-शोषित सम्बन्धों की व्याख्या अपने आप हो जाती है। आज के राजनैतिक विद्रूप को आणविक-भाषा में व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-

 ये जिसकी पीठ ठोंकते हैं

 उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है।

सूत्र शैली में सभ्यता-समीक्षा का यह प्रतिमान है। धूमिल पर अक्सर सपाट बयानी का आरोप लगाया जाता है। परन्तु धूमिल और ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ ‘आभिधा उत्तम काव्य है’ को सत्यापित करती हैं। ज्ञानेन्द्र की तो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही मानो आँख बन गयी हैं। एक आदिवासी गाँव से गुजरती बस में बैठे लोगों की समवेत् दृष्टि-रेख का गत्यात्मक बिम्ब चाक्षुष प्रतीति कराता हुआ कवि की संवेदनशील दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करता है-

 ‘‘अलसाती सी उठ रही

 स्त्री की आँखों से

 मिलती जाती आँखों की एक कतार।’’

सत्य से आँखें मिलाना आसान नहीं। भाव-समाधि या आ-लोचन का यह समेकित उदाहरण है। ‘शब्द-स्वैराचार’ शीर्षक अपनी कविता में मैंने आलोचकों की आलोचना से रचना को जन्म दिया था-

 आचरण की भूमि पर, उतरना मुझे आता नहीं

 अक्षरों के पंख पर, अतः उड़ जाने दो।

 आचरण की बात पूछनी ही है तो पूछ लेना,

 प्रवचन का रेट पहले तय तो हो जाने दो।

कवियों, नेताओं और प्रवचन कर्ताओं से सर्जनात्मक आचरण की दीक्षा की अपेक्षा ही इस रचना की अन्तर्वस्तु है। आज के बाजारवादी समय में लोभ और लाभ के निषेध का प्रवचन भी लाभ या लिफाफे के लिए ही होता है। कविता भी बिकाऊ माल है और द्राक्षासव में डूब कर ही लिखी जाती है मदिर कविता। समय और समाज की आलोचना करने वाला खुद अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता। राजेन्द्र यादव, शिवप्रसाद सिंह और विजय बहादुर सिंह से मेरा विसंवाद एक तल्ख अनुभव है। आलोचक डाॅ0 शम्भुनाथ एक रचनात्मक प्रस्ताव रखते हैं- ‘‘सवाल है कि हम वैश्वीकरण, बाजारवाद और संचार क्रान्ति को भारतीय लोकतंत्र के ढांचे में स्वीकार करना चाहते हैं या भारतीय जनतंत्र को वैश्वीकरण, उदारीकरण और सूचना क्रान्ति के ढांचे में विसर्जित कर देना चाहते हैं।’’ इस प्रकार आलोचना आज रचना का दायित्व निभा रही है और आर्थिक साम्राज्यवाद के कूट मंतव्यों, निहितार्थों और दुरभिसंधियों का कुशलता से भेदन कर रही है। वैसे आज समय और समाज की छवियों का सर्वश्रेष्ठ निदर्शन कहानी और उपन्यास में प्राप्त होता है। सभ्यता समीक्षा का महत्वपूर्ण साधन निबन्ध भी है जहाँ आलोचना की ही तरह विचारों का विन्यास प्रत्यक्ष तौर पर लक्षित होता है किन्तु कविता की पद्धति किंचित तिर्यक् है।

 जयप्रकाश ठीक ही कहते हैं- ‘‘यह नृ-केन्द्रिक संसार के उत्कर्ष का समय है और विडम्बना है कि इस समय को रचने वाली शक्तियाँ नृ-घातक रूप धर चुकी हैं। अवसाद इस समय का स्थायी भाव मालूम होता है। ... यथार्थ की खरांेच से बचे किसी अक्षत-अनाहत स्वैर-लोक में जा छिपना अब न तो संभव है, न काम्य। वस्तुतः पूँजी, तकनीकी और बाजार ने इधर जिस नए यथार्थ का उत्पादन शुरू किया है, उसकी पहुँच न केवल समाज की भीतरी गहराइयों तक है, बल्कि उसने व्यक्ति के मनोलोक में भी सेंध लगा ली है।’’

 आज के समय के अधिनायकवादी चरित्र की चर्चा करते हुए विजय कुमार कहते हैं- ‘‘आज अत्याचार का संस्थानीकरण हो चुका है और निर्धारित फ्रेम में चीजों के अर्थों को निरपेक्ष, निर्बन्ध और समतल दिखाने की पुरजोर कोशिशें हैं। इसके विपरीत कलाएँ हमेशा सापेक्ष, गतिशील, आत्मिक और परस्पर सम्बद्ध सचों की तरफ बढ़ना चाहती हैं। ... मौजूदा समय में यह दुनिया जो कि अब पहले के समयों की तरह सरल रैखिक और ऐकान्तिक रूप से तर्कपूर्ण नहीं रही, जहाँ मनुष्य के किसी बड़े स्वप्न या आदर्श को लगातार झुठलाया जा रहा है और परस्पर विरोधी हित लड़ने के बजाय पिघलकर एक ‘कोलाज’ तैयार कर दे रहे हैं, वहाँ संस्थानों और शक्ति-संरचनाओं के सम्मुख मनुष्य के अंतर्जगत के दबे-ढँके कोनों, अन्तरालों, अनिश्चयों और संशयों की भूमिका क्या पूरी तरह समाप्त हो चुकी है ?’’

 कला की दुनिया में इस प्रश्न का उत्तर ढूँढते हुए वे अन्यत्र कहते हैं- ‘‘सत्ता और शक्ति-संरचनाओं को किन्हीं संस्थानिक औपचारिकताओं में न देखकर रोजमर्रा के जीवन, कर्म और आचरण पर पड़ती परछाइयों में ही समझा जा सकता है। बेचेहरा समझ लिए गए लोगों के चेहरे, इस कविता में दिखने लगते हैं।’’

 आज की कविता वस्तुगत सच्चाई को विरूपित नहीं करती, लेकिन बनी हुई अवधारणाओं के बाहर निकल जाती है। ये कविताएँ मनुष्य को एक आर्गेनिक प्राणी के रूप में खोजना चाहती हैं। एडोर्नो ठीक ही कहते हैं- ‘‘हमारे इस दौर में कविता किसी नई अवधारणा को बनाने का काम नहीं करती, बल्कि वह ‘वास्तव’ और ‘विचार’ के ठीक बीच बैठे हुए एक बेहद बुनियादी विरोधाभास को उठाती है, जिसे बाहरी ताकतें ढँक देने पर आमादा हैं।’’ वह ‘भाषा का स्वप्न’ नहीं देखतीं, भाषा में स्वप्न को अपदस्थ होते देखती है।

 आज तकनीक-आधारित माध्यम भी यथार्थ की प्रसंस्करणात्मक या सत्ता-सम्मत छवियों के उत्पादन में निरत् हैं, कविता उसकी प्रामाणिकता की परख का एकमात्र स्रोत है। इसलिए आज अमूर्त काव्य-सौन्दर्य के बजाय मूर्त जीवन-संघर्ष का पाठ रचा जाना चाहिए। साथ ही अपनी ऐन्द्रिक संरचना में सभ्यता के वृहत्तर संदर्भों की पड़ताल करते हुए उसमें मनुष्य की नियति के प्रश्नों को उठाने का यत्न भी होना चाहिए। जैव-सांस्कृतिक विविधता के संहार को टोकना, बल्कि रोकना बहुत जरूरी है। बाजार की सर्वसत्तात्मकता और राजनीति की हिंस्र महत्वाकांक्षा के साथ ही बर्बरता और वर्चस्व का प्रतिरोध एवं अनावरण भी जरूरी है। जयप्रकाश कहते हैं- ‘‘बाजार ने समाज को एक तरह से विस्थापित कर दिया है और वह समाज का पर्याय बन बैठा है।’’ आज विप्लव और त्रासदी भी प्रदर्शन की वस्तु बन गयी है। मीडिया पीड़ा को अनुरंजक बना कर परोसता है रिपोर्ताज। हमारे समय में क्रूरताओं के यह नए आयाम हैं इसलिए आज अतीत नहीं, वर्तमान के खंडहरों से उठायी जानी चाहिए कविता, भाषा में किसी मूलगामी तनाव की उपस्थिति के साथ। यह दुःस्वप्न की फैंटेसी की सीमाएँ पार कर गया समाज है जहाँ नई इमारतों की चमक-दमक में उजड़ने की दास्तान छिपी है। श्रीकृष्ण तिवारी इसे प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं-

 घर आँगन जलता जंगल है, दरवाजे साँपों का पहरा।

 बहती रोशनियों में लगता अब भी कहीं अँधेरा ठहरा।

इसलिए रचनाकर्म की बुनावट पर गम्भीर विमर्श करते हुए विजय कुमार कहते हैं- ‘‘आज दाँव पर लगे हुए मुद्दे ज्यादा जटिल हैं और नई आकस्मिकताओं की माँग करते हैं। हम अपने वरिष्ठ कवियों को अनदेखा नहीं कर सकते पर लगातार उनसे लड़ते हुए ही अपनी कोई राह खोज सकते हैं।’’

 इस प्रकार आलोचना आज रचना की अनुगामी नहीं, बल्कि उसके आगे-आगे चल रही वह आलोक-मंजूषा है जो क्रान्तिदर्शी कवि को क्रान्तिकारी भूमिका में देखना चाहती है। यह भी एक आश्चर्यजनक विडम्बना है कि जिस आलोचना की भाषा आज इतनी कलात्मक और सौष्ठवपूर्ण है वह कविता की मुख्यधारा पर रूपवादी होने का आरोप मढ़ती है। उसके आवर्जक स्थापत्य को प्रश्नांकित करती है। कविता पाठकों की अदालत में दायर एक जनहित याचिका है और श्रेष्ठ क्लासिक काव्यों के आधार पर ही आलोचना के मानक तय किए जाते हैं। किन्तु समय की क्षिप्र गतिक प्रगति और परिवर्तनों को उतनी तेजी से आत्मसात न कर पाने के कारण कविता आज पिछड़ गयी है और प्रतिबद्ध कवि आलोचकों को अनुशास्ता मान कर उनके हिसाब से कविताएँ लिखने लगे हैं क्योंकि जनवादी कविता को कितने ‘जन’ पढ़ते हैं, यह सभी जानते हैं। आम आदमी को सम्बोधित कविताएँ खास आलोचक ही पढ़ते हैं। ‘कविता के अर्थात्’ ने कविता को आच्छादित कर लिया है किन्तु आलोचना रचना के जनतंत्र की रक्षा के लिए प्रतिश्रुत है। यह अलग बात है कि आज की अधिकांश आलोचना पुस्तक समीक्षाओं में रिड्यूस हो गयी है। किन्तु पंकज चतुर्वेदी इसके उलट राय रखते हैं। वे यह मानते हैं- ‘‘यह समकालीन रचनाशीलता की भयावह और अप्रत्याशित उपेक्षा का दौर है। आज के अधिकांश आलोचक पश्चिमी आलोचकों के विचारों का हिन्दी में उल्था कर रहे हैं। जबकि आलोचना से यह अपेक्षित है कि वह दुनिया की ज्ञानात्मक उपलब्धियों को दर्शन और चेतना के स्तर पर आत्मसात करके समकालीन यथार्थ और रचनाशीलता के विश्लेषण में उस दृष्टि का इस्तेमाल करे।’’ वे आगे कहते हैं- ‘‘माक्र्सवाद के लिए यह अपने को आलोच्य मानते हुए आत्मविकास करने और अन्य विचार-सरणियों से विमुख होकर नहीं, उनसे अन्तक्र्रिया और संवाद करते हुए अपनी वास्तविकता को पहचानने और हासिल करने का अवसर है।’’ आज की कविताओं के समरूपीकरण और मानकीकरण को मंगलेश डबराल एक नई उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास के रूप में देखते हैं। विजय कुमार भी इस रचनात्मक जड़ता के लिए कहीं न कहीं आज के आलोचना परिदृश्य को एक हद तक दोषी मानते हैं- ‘‘कलाकर्म तो हमेशा ही बने-बनाए रास्तों से भटकता रहा है और असफलताओं के खतरे भी उठाता रहा है लेकिन एक बने-बनाए पैटर्न को दुहराना विमर्श की नयी संभावनाओं पर पटाक्षेप करना है।’’

 आज सैद्धान्तिक आलोचनाएँ तो बहुत अच्छी लिखी जा रही हैं किन्तु व्यावहारिक आलोचना में हम वर्गवादी राग-द्वेष से मुक्त नहीं हो पाते और शिविरबन्दी के शिकार हो जाते हैं। हिन्दुस्तान में बहुत पहले एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था जिसमें कमलेश्वर और नामवर सिंह आमने-सामने दिखाए गए हैं। कमलेश्वर जहाँ यह मानते हैं कि आज आलोचना का प्रायमरी पैमाना भी नहीं है वहीं नामवर सिंह कहते हैं कि खूब अच्छी आलोचनाएँ लिखी जा रही हैं। ज्यां पाल सात्र्र ने कभी नोबेल पुरस्कार ठुकरा दिया था और अभी कुछ वर्षों पूर्व ही बंगाल के नीलकमल ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार ठुकरा दिया था। इसके पीछे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की वही दृष्टि काम कर रही थी कि आलोचक और संस्थाएँ पुरस्कारों के संदर्भ में निष्पक्ष निर्णय नहीं ले पातीं।

 कविता के क्षरण के लिए उसके अपने रूप और गठन से अधिक आज का सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश जिम्मेदार है। आलोचना का दायित्व रचना के गुणों के संदर्भ में दोषों को भी परखना है साथ ही अपने दोषों पर भी दृष्टिपात करते हुए अपने भीतर सर्जनात्मक आचरण का विकास सर्जक और आलोचक दोनों के लिए ही अपरिहार्य है। हम जब अपने कैमरे से दूसरों का पोज ले रहे होते हैं तो किसी दूसरे के कैमरे में फोटो खींचते हुए अपना पोज दे भी रहे होते हैं। योगेन्द्र यादव से लेकर रवीश कुमार तक बहुत अच्छे और साहसी राजनैतिक आलोचकों की एक स्वस्थ परंपरा रही है किन्तु उन्हें भी अपने ब्लाइंड-स्पाॅट को देखने की अंतर्दृष्टि विकसित करनी होगी और अपने विचारों से तादात्म्य तोड़ कर साक्षी भाव से उनका सजग प्रेक्षण वांक्षित है।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...