सौन्दर्य
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मेरे लिए,
कभी सब सुंदर था,
सृष्टि में !
अनिंद्य...चित्ताकर्षक
बड़ा ही रोमानी,
सुंदर, सुघड़ कल्पनाओं के अनंत आकाश-सा !
मैं उड़ता रहा,
स्वप्नों में रंग और सौंदर्य
भरता रहा !
हृदय की कूची लिए चित्र गढ़ता
रहा,
और इस कलाकारी पर आनंदातिरेक से
उमड़ता रहा !
मैनें फूल देखे,
मैं महका और लहकने लगा
चिड़िया देखी,
मैं बहका और चहकने लगा !
सागर-सी विस्तृत,लहराती हरी चादर देखी
मैनें ओढ ली, हरियाली जोड़ ली !
मैं आच्छादित हो गया,
घटाओं से,
थरथराकर पुलक गया बिजलियों से,
मैं तरबतर हुआ,
अंतस तक,
गुनगुनाती धूप और रिमझिम बूँदों
से !
साँझ मेरी बरौनियों में मोरपंखियाँ बाँध गई,
सितारों की एक झालर टॉंग गई !
भोर, कुमकुम और हल्दी की थाली सजाए,
दीपक से मेरी आरती उतार गई !
मैनें पत्तियों पर ओस बिंदु
देखे,
पिघलते मोती देखे !
तितलियाँ मुझे फूलों से मिला
गईं,
नाज़ुक सा बदन हाथों में थमा गईं
!
इस तरह...
और भी न जाने किस-किस तरह,
मैं मुग्ध, आत्मतुष्ट
डूबा रहा सौंदर्य में, आनंद में !
लेकिन जब आँधियों में उखड़े क्षत विक्षत दरख्त देखे,
मिट्टी को गहराई तक चिरसमाधि
में जकड़े बैठी भयावह जड़ें देखीं,
आकाश का पथराया पीलापन देखा,
ओस की बूँदों में रात भर टपके
आँसुओं का निरीह अकेलापन देखा,
साँझ के झुटपुटे में हारी थकी
लौटती प्रतीक्षाएँ देखीं,
पेट के शाश्वत सवाल पर दमघुटी
इच्छाएँ देखीं,
तो सुन्दरता,सुघड़ता,
और कोमलता
चीख पड़ीं,
उठकर हुई भाग खड़ी !
आनंद में डूबा मैं मतिमंद लगने
लगा,
हृदय का अतिशय कुंद लगने लगा !
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