रिहाई
डॉ. कविता माथुर
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“परे हटो, मत परेशान करो मुझे, जाओ उड़ जाओ।”, उन नन्हे-नन्हे शलभों पर चिल्लाते हुए बुरी तरह खाँसने लगा था दिलदार सिंह
। “पानी पी, पानी पी ”, बाहर खड़े
गार्ड की आवाज़ पर कोने में रखी सुराही से पानी पीने के लिए उठा तो जर्जर घुटनों
ने जवाब दे दिया और वो लुढ़क कर गिर पड़ा । जानता था वो कि ये सब देखकर भी गार्ड
उसकी मदद को नहीं आने वाला , इसलिए उसने कोई उम्मीद भी नहीं
रखी थी । अपनी बेबसी और लाचारी पर पर अब वो आहें भी नहीं भरता था । यहॉं से कभी
रिहाई मिलेगी भी या नहीं, ये सोचना तो एक अरसा हुआ छोड़ ही
चुका था वो। अपने वतन में बिताये ज़िंदगी के वो चौबीस साल काफ़ी थे उसके मन को
हर्षित करने के लिए, होंठों पर मुस्कुराहट लाने के लिए,
उसकी साँसों को थामे रखने के लिए । सोचते-सोचते दिलजीत औंधा पड़ा
हुआ ही नींद की आग़ोश में चला गया ।
“दिलजीते, ओ दिलजीते , ओ रुक ओए, मेरी
बैरे और बेल्ट लिए कहॉं भागे जा रहा है ओए”, महीने भर की छुट्टी पर घर आये
सिपाही बलजीत को रोज़ ही धौरों पर अपने छवर्षीय लाड़ले के पीछे पीछे दौड़ लगानी
पड़ती थी । बेबे के हाथों की ‘मक्के दी रोटी, ते सरसों दा
साग’ और बीवी की खामोश सी बेलौस मुहब्बत का पेट-बढाऊ अभियान भी इस नन्हे शैतान के
साथ की गई मशक़्क़त के सामने टिक नहीं पाते थे और सिपाही बलजीत को पलटन लौटकर पीटी
या खेलों में कभी कोई समस्या नहीं होती थी । अपने परिवार की आँखों के तारे दिलजीत
ने ज़रा होश क्या सँभाला , खिलौनों की उम्र में ही ‘मैं
दंबूक छे दुश्मन को माल दूंदा ‘ ( मैं बंदूक़ से दुश्मन को मार दूँगा ।) बोलना सीख
लिया था। तुतली आवाज़ में उसकी मीठी मीठी बातें सुनकर घरवाले वारी-वारी जाते थे ।
डैडीजी के घर आने पर उनकी बैरे-बेल्ट-बूट्स
पर डाका डालना उसका ख़ास शग़ल था । अपने चिड़िया जैसे मुख से दुगुने आकार
की बैरे पहन कर जब वो सैल्यूट की मुद्रा में ‘ जे इन्द ‘ का नारा लगाता तो अड़ोसी
-पड़ोसी भी निहाल हो जाते थे । दिलजीत की लंबी अथक दौड़ देखकर बलजीत के मन में ये
विश्वास गहरी जडें जमा चुका था कि उसका बेटा भी देश के नाम समर्पित होने की तैयारी
में है। परिवार में हँसी-ख़ुशी महीना गुज़ार कर बड़े ही सुकून से वो रेजीमेंट में
ड्यूटी ज्वाइन कर लिया करता था । बलजीत देश का सच्चा सिपाही था ।
और अब तो दिलजीत ने भी डैडीजी जैसा
रुतबा हासिल करने की ठान कर पूरे गाँव का
दिल जीत लिया था । मूँछ ज़ाहिर होते होते तो गाँव की सबसे सोणी कुडी़ से रिश्ता
बँध गया था दिल जीत का। इधर हुआ ब्याह और उधर बना दिलजीत फ़ौज का सिपाही । पर आदत
अभी भी वही छुटपन के दिल जीते जैसी । पहले डैडी जी की बैरे लेकर भाग छूटता था, अब अपनी दिल्लो की चुन्नी छीन कर उसे दौड़ाता
फिरता उन्हीं धौरों पर ,जहॉं उसके और डैडी के पैरों के निशान अभी भी मिटे नहीं थे।
“दिल्लो, मुझे याद करेगी”
“मैं क्यों करने लगी याद करेगी मेरी जुत्ती!”
“ठीक है, मत करना । तू नहीं तो
तेरी सहेली सुखविंदर कर लेगी ।”
और फिर होते दिल्लो की मोजरी और दिलजीत का सिर ! दे दनादन जो कुटाई
होती उसकी कि उसका हुलिया बिगाड़ कर ही छोड़ती थी दिल्लो । और इस धुनाई में उसके
परिवार सहित सारा गाँव हँस-हँस कर साथ देता था दिल्लो का । बलजीत-दिलजीत का परिवार
इस गाँव की शान था , अभिमान था । आए दिन
होने वाली इन चुहलबाज़ियों का गवाह वो कुईंयॉं पर झुका खेजड़ी का पेड़ इस बात का
भी साक्षी था कि इन आठ सालों में बामुश्किल चौदह महीने ही साथ मिला था दिल्लो को
दिलजीत का। कहते हैं ना इतिहास ख़ुद को दोहराता ज़रूर है ,तो
धोरों पर दौड़ाने के लिए उसकी बेल्ट-बैरे लेकर भागने वाला एक नन्हा सा रणजीत और आ
चुका था अब ।
एक दिन ऐसे ही दौड़ता-दौड़ता वो थक कर
खेजड़ी के नीचे बैठा ही था कि पीछे-पीछे भागता हुआ उसका दोस्त गुरमीत भी आ पहुँचा
।
“ओए दलजीते, वापस चल, तुझे पलटन से बुलावा आया है । पाकिस्तान हवाई गोले बरसा रहा है ।जंग छिड़
गई है।”
रणजीत को गोदी में उठा फ़ौरन दौड़ा था
दिलजीत घर को । विदा के वक़्त क्या पता था कि अपनी बेबे, मम्मीजी , डैडीजी , दिल्लो और दिल के टुकड़े रणजीत को
वो आख़िरी बार देख रहा है। दुनिया के इतिहास में सबसे छोटी जंग के रूप में दर्ज़ 3
से 16 दिसम्बर सन् एकहत्तर की इस 13 दिवसीय इंडो-पाक-वॉर ने दिलजीत को अपने परिवार से हमेशा के लिए जुदा कर
ज़िंदगी का सबसे बड़ा घाव दिया था ।
“लाइटें बंद करो !” दिसंबर की उन तेरह सर्द रातों
में कुछ हिन्दुस्तानी राज्यों की सड़कों से इस तरह की आवाज़ें उठना आम बात थी ।
यहाँ के परिवार शाम होते होते सारे काम निपटाकर रज़ाइयों में घुस जाते एक आतंकी सा
पसरा रहता दिलों में भी कहीं ज़रा सी मोमबत्ती भी जली तो दुश्मन का आसमानी हमला हो
सकता है । सड़कों पर इन चंद समाज सेवियों के पदचापों के बीच घोर सन्नाटा फैला
रहता। ये थी सन एकहत्तर की इंडो-पाक-वॉर
जिसमें हम जीते थे और एक स्वायत्त सत्ता के रूप में जन्म हुआ था बांग्लादेश
का।
हम तो अमनपरस्त हैं । हम आगे होकर कभी
लड़ना नहीं चाहते । मगर हमारे आस पास के दुश्मनों का सामना करने के लिए हमारे
फ़ौजी भाई हमेशा सजग रहते हैं । यह जंग भी पाकिस्तान ने हमारे 11 एयरबेस पर हवाई हमले करके शुरू की थी । उससे पहले
भी वहाँ के पूर्वी भाग में रह रहे बंगाली अल्पसंख्यकों पर उनका क़हर जारी था ,
जिससे आज़ादी के लिए वो लोग संघर्ष कर रहे थे । इन अल्पसंख्यकों के
विरुद्ध मौत का तांडव जो पाकिस्तान रच रहा था उसमें तीन से तीस लाख लोगों की मौत
हुई थी । वहाँ से पनाह लेने के लिए रिफ्यूजी हमारे देश में प्रवेश कर रहे थे ।
परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थी कि हमारी सरकार को न चाहते हुए भी हथियार उठाने पड़े
थे । ऐसा पहली बार हुआ था कि हमारी तीनों सेनाएँ एकजुट होकर किसी रण में साथ लड़ी
हों। हमने फ़ौरन उसकी 15, हज़ार किलोमीटर टेरिटरी कैप्चर कर
ली थी और जल्द ही दुश्मन देश के जनरल नियाजी ने समर्पण कर दिया था । 16 दिसंबर को पाक की फ़ौज ने हिन्दुस्तान की आर्म्ड-फ़ोर्सेज़ और मुक्ति
वाहिनी सेना जो कि अब बांग्लादेश की थी , के सामने ढाका में
घुटने टेक दिए थे । इस सरेंडर को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा सरेंडर
माना जाता है , जिसमें पाकिस्तान अपने वतन का आधा हिस्सा और
सेना खो चुका था और हमारे जनरल सैम मानेकशॉ के सुयोग्य नेतृत्व में हम ने विजय
पताका फहरायी थी ।
युद्ध तो हो जाते हैं , पर कितनी जानें जाती हैं । कितने बच्चे अनाथ हो
जाते हैं , महिलाएँ बेवा हो जाती हैं , इस बारे में कभी नहीं सोचा जाता । इस युद्ध में भी ऐसा ही हुआ । दोनों
देशों के असंख्य सिपाही मारे गए और क़ैद कर लिए गए । हमने पाकिस्तान के 93,
हज़ार बंधक बनाए थे जिन्हें बाद में दो अगस्त उन्नीस सौ बहत्तर को
तत्कालीन सरकार ने शिमला समझौता के तहत रिहा कर दिया था ।
हमारे देश के भी कई जॉंबाज वहाँ बंधक
बनाए गए थे। उसमें से अनेक पायलट्स भी थे जिनके फाइटर प्लेन हवा में क्रैश होने की
वजह से उन्हें पैराशूट से कूदना पड़ा था पर दुर्भाग्य से वह दुश्मन के इलाक़े में
पहुँच गए और बंदी बना लिए गए थे । हमारे सिपाहियों में से ही एक था जांबाज़ दिलजीत
सिंह।
दिल जीत पैदल सेना का जवान था । दिन
भर न जाने कितने दुश्मनों को खेत करके अपने साथियों के साथ सुस्ताने लगा था ।
चारों तरफ़ सैंड-बैग्स और अम्यूनिशन के बक्से पड़े हुए थे । सभी सिपाही इन्हीं के
ऊपर बैठे थे । कोई पानी पी रहा था , तो
कोई खाने की तैयारी में व्यस्त था । दूर कहीं से अब भी किसी हथगोले के फटने की
आवाज़ आती , तो कहीं किसी के दर्द से चीत्कार सुनाई देता ।
कहीं कोई ‘जय हिन्द ‘ कहकर अपने प्यारे वतन की मिट्टी को अंतिम सलामी देता सुनाई
देता , तो कहीं किसी के अंतिम क्षणों तक लड़ने के जज्बे के
साथ धीरे धीरे सरकने की आवाज़ आती । खाना खाकर सभी जवान सोने ही लगे थे कि एक साथ
ही ने दूर से आती रौशनी की तरफ़ दिलजीत का ध्यान आकर्षित किया । आँखें मलते हुए
दिलजीत उठ भी नहीं पाया था कि चारों तरफ़ से दुश्मनों से उसने ख़ुद को और अपने
साथियों को घिरा हुआ पाया । इन सभी की आँखों पर पट्टी बांधकर बलात् धकेलते हुए
कहीं ले जाया जा रहा था । कुछ दूर चलवाकर
इन्हें एक वनटन में बिठाया गया और उसके बाद दिल जीत की आँख एक काल कोठरी में ही
खुली थी , जहाँ वो इन साथियों समेत कई बंदियों के साथ रखा
नहीं इस तरह ठूस कर रखा गया था कि ये लोग ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते थे। कमरे
में कोई रोशनदान नहीं था पर इन्हें ज़िंदा रखने के लिए एक तरफ़ नीचे कही से
समुद्री हवा के झोंके रह रह कर आ जाते थे । आख़िर समंदर किसी तानाशाह की बपौती तो
नहीं होते हैं ना ! वो हवा दिलजीत की सांसों को भी थाम रही थी और आस को भी । कई
दिनों तक इन्हें ना पानी दिया गया था ना भोजन । भूख ,थकान और
कमज़ोरी ने कितने दिन इन्हें उकड़ूँ बैठे ही सुलाए रखा था, इन्हें
खुद ही नहीं पता था। जिस दिन इन्हें अन्य जेलों में भेजा गया , तब इन्हें न वक़्त का अंदाज़ा था , न दिन का या
महीने का । एक कालकोठरी से दूसरी तक का सफ़र , डावांडोल मन
मस्तिष्क के विचार और जाम हुआ शरीर ; लेकिन इंसान उम्मीद
करना फिर भी नहीं छोड़ता । उम्मीदों का दामन थामे रहने से सॉंसे तो चलती रह सकती
थीं , मगर दुविधा का निवारण तो दुश्मन के ही हाथ में था ना!
इस बार जो कोठरी दिलजीत को मिली वहाँ से अब उसकी अर्थी निकलनी थी । इस बार की
कोठरी में पहले से बंदियों की संख्या भी कम थी और रोशनदान भी थे । यहाँ पैर पसार
कर सोने को जगह मिल गई थी । रात होते होते यहाँ सैकड़ों के हिसाब से रंगबिरंगे
छोटे बड़े पतंगे इकट्ठे हो जाते । उड़ते , दीवारों पर चिपकते,
बंदियों के सिर के ऊपर से गुज़रते और कभी कभी उनके चेहरों से टकरा
जाते । धीरे धीरे दलजीत को इन्हें देखने की आदत हो होती जा रही थी । अब दिन भर वो
रात का इंतज़ार करने लगा था इन कायनात की ख़ूबसूरत तोहफों की हरकतों से मनबहलाव
करने के लिए ।
इस तरह आठ महीने गुज़र चुके थे । एक
दिन जेल के कर्मचारियों को उसने बड़े जोश भरी खुद-एहतमादी से बातें करते पाया , जिसका सार यह था कि हिंदुस्तान ने जंग के कैदियों
को रिहा कर दिया है । यह जानकर दिलजीत सहित बाक़ी कैदियों में एक आशा का संचार हुआ
। ख़ुशी सी छा गई । और सारे मिलकर शहीद फ़िल्म का गीत गाने लगे ,” ऐ वतन , ऐ वतन , हमको तेरी
क़सम , तेरी राहों में जॉं तक लुटा जाएंगे “, चार लाइनें भी नहीं गा पाए थे कि
गार्ड ने आकर उनको हड़का दिया था,
“अबे चुप करो ! कौन सा वतन , कैसा वतन!”, और बाहर के सारे गार्ड्स मिल कर ठहाके लगाने लगे । इस बार इन्हें इस बात
का बुरा नहीं लगा था , क्योंकि एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही
थी कि बदले में इन्हें भी रिहा कर दिया जाएगा । ये अपने परिवारों से फिर से मिल
पाएंगे । दिलजीत की दिल्लो, बेबे, मम्मीजी
-डैडीजी और नन्हा रणजीत । एक बार फिर धोरों पर दिलजीत दौड़ेगा ।
कभी बैरे लेकर भागने वाले लाडले के पीछे ख़ुद दौड़ेगा , तो
कभी अपने दिल्लो की चुन्नी खींचकर उसे अपने पीछे दौड़ाएगा। ‘अहा! वाहेगुरु !जल्दी पुकार सुन लो हमारी
।’सोचते हुए सो गया था दिलजीत ।
अगले दिन की सुबह शायद कोई ख़ुशख़बरी सुनने को मिले ! पर क्या
सचमुच अगली सुबह अगर कुछ बदला हुआ था , तो वो थे इन बंदियों के मन , जो आस के अश्वों पर सवार होकर वतन की तरफ़ भाग रहे थे ।पर ऐसा कुछ नहीं
होने वाला था । बाक़ी दिनों की तरह यह दिन भी गुज़र गया और अगला दिन भी ; उससे अगला भी ; दिन , महीने ,
साल , ऐसे ही गुज़रते रहे । एक के बाद एक बंदी
साथी उसे छोड़ छोड़कर जाने लगे और अंत में बचा था सिर्फ़ दिलजीत , जिसने यहाँ आने के बाद की तमाम उम्र इन पतंगों से यारी काटकर गुज़ारी थी ।
आज उसके ज़ेहन से एक फ़िल्म की तरह पूरी ज़िंदगी गुज़र गयी थी । आज ये पतंगें भी
उसे काटने को दौड़ रहे थे । अब और इंतज़ार नहीं। आज उसकी रिहाई थी —- ज़िंदगी की
क़ैद से!
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