शनिवार, 27 जनवरी 2024

हिन्दी कविता : पाठक की तलाश में- डॉ.मनु शर्मा


 

हिन्दी कविता : पाठक की तलाश में

 

कविता के पाठकों में हो रही कमी के बहाने हम आज साहित्य को पढ़ने वालों की खोज पर बात कर रहे हैं। साहित्य के पाठक इस उत्तर आधुनिक समय में खोज का विषय हो गये हैं। हालांकि पहले भी कविता, कहानी या उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या बहुत नहीं होती थी। महाकवि भवभूति तो अपने किसी समानधर्मा के उत्पन्न होने की आस में ही लिखते रहे। गोस्वामीजी भी कह गये हैं- 'जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।' इसलिए साहित्य रसिकों की प्रजाति के एकदम लुप्त होने का खतरा पैदा हो जाने जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन कभी-कभी यह प्रश्न काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आज सृजनात्मक साहित्य के रूप में जो कुछ लिखा जा रहा है, वह किसके लिए है?

अब तो लगता है जो लिख रहे हैं, वे ही अपने लिखे हुए के पाठक हैं। यह स्थिति खुद कवियों ने ही बनाई है। उनकी ठसक के चलते सामान्य समझ के पाठक ने तो उनको दूर से प्रणाम करने में ही अपनी बेहतरी समझी है। वररुचि ने तो यह कहकर सामान्य पाठक से किनारा कर लिया कि 'अरसिकेषु रसस्य निवेदनं शिरषि मा लिख, मा लिख, मा लिख।' कौन रसिक है और कौन अरसिक इसकी कोई सर्वमान्य कसौटी तो हो नहीं सकती। 'भिन्नाः रुचिर्लोकाः ।'

कविता की पठनीयता को लेकर गुरुदेव टैगोर ने एक महत्त्व पूर्ण बात कही है। उनके अनुसार 'जिन सब कविताओं में प्रथागत भाषा और छन्द का अनुसरण किया जाता है, उनमें अन्ततः बाहर की ओर से पाठकों के चलने-फिरने में रुकावट नहीं होती। लेकिन कहीं-कहीं विशेष किसी रस के अनुसंधान में कवि को अभ्यास का पथ लांघना पड़ता है। तब कुछ न कुछ समय के लिए पाठक के आराम में बाधा पड़ती है। इसीलिए वे नये रस को इस तरह भीतर ले आना अस्वीकार करते हैं और दण्ड देने की बात कहते हैं।' (रवीन्द्र रचना संचयन, पृ. 665) पाठक द्वारा किसी कवि की उपेक्षा ही उसके लिए सबसे बड़ा दण्ड है। और कवि को यह तब भुगतना पड़ता है जब कोई कवि काव्य रचना की प्रचलित परिपाटी को छोड़कर अपने लिए नई राह खोजता है। निस्सन्देह ऐसे कवियों के साथ पाठक अपने काव्य संस्कार का तालमेल नहीं बैठा पाता। वह उसे कवि के द्वारा बनाई गई नई राह पर चलने से रोकता है। कवि के द्वारा वस्तु और शिल्प के स्तर पर किये गये प्रयोग पाठक को अपने अर्जित काव्य संस्कार को ध्वस्त करते प्रतीत होते हैं। वस्तुतः काव्य विधान की प्रचलित परिपाटी से बनी उसकी मनोरचना का नई उपमाओं, नये बिम्बों, बदले हुए प्रतीकों और नई काव्य भाषा से अनुकूलन नहीं हो पाता है। इसलिए उसे लगता है कि कविता का चरित्र बदल गया है। उसकी बोली-बानी इन कविताओं में नहीं है। वह भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में कवि से यह उम्मीद करता है: 'जैसा हम बोलते हैं/वैसा तू लिख/फिर हमसे बड़ा दिख।'

'उस पार' की बातें करके कोई कवि पाठक का विश्वास नहीं पा सकता। आम जनता के दुख-दर्द की समझ, उसके प्रति करुणा का भाव, उसके जीवन संघर्ष में सहभागी बने होने का सन्देश, जो उसकी बोलचाल की भाषा में प्रकट हुआ हो, वही पाठक को स्वीकार होता है। बाकी कविता के नाम पर किये जाने वाले तमाम प्रयोग पाठक की प्रतीक्षा में केवल काव्य संग्रहों का हिस्सा बन कर रह जाते हैं।

यह सच है कि कविता रचते समय कोई कवि उसकी पठनीयता के बारे में नहीं सोचता । और उससे यह मांग भी नहीं की जा सकती। इस फेर में पड़ जाने पर कवि के लिए कविता लिखना ही संभव नहीं रह जायेगा। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि एक लिखित या प्रकाशित कविता कवि की निजी सम्पत्ति नहीं रह जाती है। वह सामाजिक सम्पत्ति होती है। अतः केवल स्वान्तः सुखाय की बात कहकर कवि अपनी सामाजिक जवाबदेही से हाथ नहीं झाड़ सकता। कवि होने के नाते पाठक या कह लीजिए जनसाधारण की तुलना में उसकी जिम्मेदारी ज्यादा होती है। संस्कृतिकर्मी होने के कारण कवि को सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के संरक्षण हेतु सदा पहल करनी पड़ेगी। इतना भर मान लेने से काम नहीं चलता कि हमने तो लिख दिया अब कोई समझे या न समझे। ऐसी सोच रखने वाले कवियों ने ही यह कहने का दुस्साहस किया है : 'आगे सुकवि समुझे तो कविताई, न तु राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।' सुकवियों की तो बात ही छोड़िये ऐसे कवियों की कविता को साधारण पाठक ने भी कविता का गौरव प्रदान नहीं किया। पाठक के विवेक को इतना कमतर नहीं आँकना चाहिए कि कविता के नाम पर जो कुछ भी अंटशंट बक दिया जाये, उसे वह स्वीकार कर लेगा।

कविता में साधारण पाठक को आकर्षित करने वाला तत्त्व है, विह्वलकारिता। यहाँ विह्वल कर देने से अभिप्राय भावाकुल कर देना नहीं है। बल्कि पाठक की निजता का लोप है। कई कवितायें ऐसी होती है जिन्हें पढ़कर या सुनकर कुछ देर के लिए हम अपने आपको भूल जाते हैं। वे हमारे मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह छा जाती है। और यह तभी होता है जब कविता के रचना तत्त्वों में सामंजस्य हो। यानी उसमें भाव, विचार, संवेदन और भाषा के स्तर पर विलक्षण संतुलन हो। इसी को काव्य सौन्दर्य कहते हैं।

जो कविता सरल हो और जिसे सुनकर शत्रु भी बैर भाव मूल जाये, वही सहृदय और विचारशील लोगों द्वारा सराही जाती है -

सरल कवित्त कीरति विमल सोइ आदरहि सुजान।

सहज बयर बिसराई रिपु जो सुनि करहि बखान।।

कविता सुनकर शत्रु का बैर भाव भूल जाना और कुछ नहीं उसकी निजता का अतिक्रमण है। उसका मनुष्यता की उच्च भावभूमि में प्रवेश है। एक कवि की संस्कृतिकर्मी के रूप में यही भूमिका होती है। प्रसिद्ध काव्यवेत्ता कॉडवेल ने ठीक ही कहा है 'कविता वह है, जो पढ़ने पर घटित होती है। यानी जो कविता पढ़ने पर पाठक में ठीक वे ही अनुभूतियाँ जगाती है, जैसी उसकी रचना करते हुए स्वयं कवि के मन में पैदा हुई। ऐसी कविताओं के लिए किया गया श्रम व्यर्थ नहीं होता।

एक बाता में यहॉं विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि कविजन आम जगता से अलग अलग होकर कविता लिखने की जुगत में न रहे। कविता लिखने के अभ्यास, कल्पनाशीलता और काव्यशिल्प को सामा लेने से कविता का ढाँचा तो बन जाता है, लेकिन वह निर्जीव होता है। जीवन और जगत से घनिष्ठ सम्पर्क ही कविता में प्राण फूकता हैं। उस पार की कवितायें अपने शब्दाडम्बर से कुछ देर के लिए पाठक को चमत्कृत अवश्य कर देती है, लेकिन वे उसकी स्मृति का जा नहीं बन पाती। जीवन यथार्थ की मार्मिक व कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाले कवियों से किसी पाठक को यह शिकायत नहीं होती कि वे सरल चीजों को जटिल क्यों बनाते है।' यह शिकायत केवल उन्हीं से है, जो कविता के नाम पर व्यर्थ का तूमार बांधते है।

 

 

 

इससे यह निष्कर्ष निकालना सरासर भूल होगी कि वर्तमान में जो कवितायें लिखी जा रही हैं, वे सब व्यर्थ का श्रम है। कई कवि आज भी अच्छी कवितायें लिख रहे हैं। उनकी कविताओं में जीवन अपनी सम्पूर्ण भव्यता और भयावहता के साथ उपस्थित है। पर कोयले के ढेर में काला हीरा खोजना आसान नहीं होता। जब अधिकाश कवि एक जैसी कवितायें लिख रहे है, तो अच्छी कवितायें अम्बार में दबी रह जाती हैं। पाठक के पास इतना अवकाश नहीं है कि वह यह खोज करे। हाँ, बदले हुए काव्य परिदृश्य को ध्यान में रखकर पाठक को अपना 'माइण्डसैट' अवश्य बदलना चाहिए। उसे अपनी अभिरुचियों और काव्य संस्कार को परिष्कृत करना चाहिए। यदि अभी तक वह भक्तिकालीन या छायावादी कविताओं की आस में है तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। हर युग की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, काव्य के प्रेरक तत्त्व अलग होते हैं। उन्हीं से कविता की बुनावट होती है। उन परिस्थितियों और प्रेरक तत्त्वों को ध्यान में रखकर पाठक यदि आज की कविताओं को पढ़े तो मुझे विश्वास है कि उसे निराश नहीं होना पड़ेगा।

2 टिप्‍पणियां:

उपेन्द्र यादव ने कहा…

बहुत खूब

manorama pant ने कहा…

बहुत बढिया आलेख

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