औरत और आग-1
उसने कहा :
तुममें बहुत आग है।
मैंने कहा : आग और औरत
उतना ही पुरानी है,
जितनी पुरानी है ,सभ्यता
इंसान के इंसान बनने की।
किन्तु
फर्क सिर्फ इतना
कि इंसान बनने की इस
प्रक्रिया में
हम स्त्री और पुरूष बने।
मैं और तुम बने।
पुरुष ने अपने हिस्से
में रख लिया आग का
संचित कोश।
औरत के हिस्से में
आग का बंटवारा भी रहा
असमान।
इसलिए..पुरुष जब चाहें
जहाँ चाहें ,जैसे चाहें
उगल देते हैं,
अपने हिस्से की आग।
किन्तु..
औरत ने अपनी आग
संभाल कर रखी है,
सदी दर सदी ।
खर्चती आई है,
बड़ी किफायत से।
औरत और आग-2
औरत समझ चुकी थी ,
प्रारंभ में हुए छल से ,
गर्भधारण की प्रक्रिया तक
प्रजनन की
असहनीय पीड़ा से
संतान की उत्पत्ति तक।
कि पुरुष के हिस्से
आई ज्यादा आग विध्वंसक
हो सकती है,या फिर
विनाशक समुची सृष्टि की।
इसलिए ..
ज़रूरी है,सहेजना
इसे भिन्न भिन्न रुपों में।
प्रकृति और संतति को
बचाये रखने की इस अनंत
कोशिश में स्त्री खुद ही बनती
रही प्रयोगशाला ।
औरत और आग -3
पुरुष नही सीख पाया आग
को स्वयं में ढालने का गुण
और तपता रहा कभी, ईर्षा
कभी क्रोध तो कभी द्वेषभाव
की भट्टी में।
औरत तय करती आई है
एक अंतहीन सफर
उसने सीख ही लिया आखिर
ये हुनर
कभी खुद की आग को
थामकर तो कभी पेट की।
औरत ने बांट ली है अपने
हिस्से की आग । भीतर
और बाहर । कुछ आग
रख छोड़ी है ,दिल के
किसी
अंधेरे गीले कोने में,
तांकि सुलगती रहे, धीरे धीरे
उतनी ही जितनी जरूरी है
रिश्तों की गर्माहट के लिए।
औरत और आग
कुछ आग रख छोड़ी है उसने
अपने घर के आले में
सदियों पहले।
तांकि रोशन रहे घर का आंगन।
कुछ आग दे दी घर के
चूल्हे को तांकि घर में
जलता रहे चूल्हा,मिलता रहे निवाला।
शांत करने को सबके पेट की ज्वाला।
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