रविवार, 14 जनवरी 2024

मुखशाला- मानस रंजन महापात्र ओड़िया से अनुवाद : राधू मिश्र


 मुखशाला

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प्यार में कुछ इस तरह बीत गया

एक पूरा जीवन,

जिससे भी मिला, लगा

न मिलता तो अच्छा होता,

और जिससे मिल न पाया

रात-दिन सताने लगी यादें उसी की।

 

कोई तो देख रहा, नहीं जानता

कब, कहाँ से, किस तरह

पर देख तो रहा है।

 

मुखशाला उस दिन से खड़ी है

टूट गई है, पर चमक उतरी नहीं।

 

समय के साथ यहाँ सहवास भी

कितनी मुश्किल है

गुजरते रहते लोग बेहिसाब,

बीच में एक अदृश्य झंडा उठाये

खड़े हैं हम किसी अनजान चौक पर,

मैं, मुखशाला और मेरे

कल, आज और कल।

 

कभी-कभी मन करता

सीमित इस जीवन को पसार दूँ

कुछ इस तरह कि कोई मुझे छू न पाए,

पर अगले ही पल कोई रोक लेता,

न जाने क्यों।

 

न चाहने पर भी मैं बंध जाता

हमेशा एक सीमित दायरे में।

 

आजकल दिनों को खबर नहीं

सरकारी घोषणाओं से चल रहा देश,

अवांछित अनजान जुलूसों में

बेशुमार भीड़,

बस, बहुत हो गया

अब खत्म हो यह सिलसिला,

बार-बार कहता मैं

पर यात्रा खत्म नहीं होती,

हर पल टूटता रहता मेरा मंदिर,

अब तो अजनबी यह मुखशाला,

अजनबी-सा लगता मेरा धुंधला अतीत,

पुराने कैलेंडर-सा टंगा मेरा

सारा इतिहास।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...