रविवार, 28 जनवरी 2024

कराह रहे होंगे कवि   - देवेन्द्र कुमार चौधरी


 कराह रहे होंगे कवि   

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वक्त आ गया है

कि सारे कवि घर से बाहर निकलें

और भाषा को

तमीज़ की तरह

जनता के बीच बाँचे

शब्दों को

लज़ीज़ व्यंजन की तरह

उनके थाली में पड़ोसें

उतना हीं

जितना कि पचा सके

और उनका हाज़मा दुरुस्त रह सके

वे बचे रहेंगे

भाषा में

शब्दकोष में

तो सारे कवि भी बचे रहेंगे

जैसे बचे हुए हैं कबीर

आज भी

उनके बीच

नहीं तो

कहीं दूर

काले अक्षरों में दबकर

कराह रहे होंगे कवि

किसी अन्य कवि की

आलमारी के किसी खाने में।

 

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