गुरुदेव रवींद्रनाथ की एक कविता
जहांँ चित्त भय से शून्य हो
जहांँ हम गर्व से
माथा ऊंँचा करके चल सकें
जहांँ ज्ञान मुक्त हो
जहांँ दिन रात
विशाल वसुधा को
खंडों में विभाजित कर
छोटे छोटे आंँगन
न बनाए जाते हों
जहांँ हर वाक्य
हृदय की गहराई से
निकलता हो
जहांँ हर दिशा में
कर्म के अजस्त्र नदी के
स्रोत फूटते हों
और निरंतर
अबाधित बहते हों
जहांँ विचारों की सरिता
तुच्छ आचारों की मरुभूमि में
न खो जाती हो
जहांँ पुरुषार्थ
सौ सौ टुकड़ों में
बंँटा हुआ न हो
जहांँ पर सभी कर्म
भावनाएंँ, आनंदानुभूतियाँ
तुम्हारे अनुगत हों
हे पिता!
अपने हाथों से
निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में
इस सोते हुए भारत को जगाओ!
बांग्ला से अनुवाद:
डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन
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