मुखौटे
हम सभी जी रहे हैं
अपना-अपना जीवन
सहजता के धरातल से दूर..
बहुत दूर!
कई मुखौटे लगाए हुए,
मुखौटे-
रंग के रूप के,
दर्प के असीमित ज्ञान के!
मुखौटे-
सत्य के मानवता के,
झूठी मुस्कानों के..
मगरमच्छी आंसुओं के!
और मुखौटे..
न जाने कौन-कौन से!
ये मुखौटे..
छिपाए रहते हैं सत्य को
राख में दबी किसी चिंगारी की तरह,
मगर कभी-कभी
हवा के किसी निर्मम झोंके से
यह राख उड़ भी जाती है
और प्रज्वलित होती है चिंगारी
शोलों की शक्ल में!
तब हृदय में जागती है
घृणा.. वितृष्णा
उस मुखौटेहीन चेहरे के लिए,
किंतु तब हम भूल जाते हैं
अपने चेहरे पर लगे मुखौटों को
क्योंकि आईने में भी हमें अपना प्रतिबिंब
मुखौटों सहित ही नज़र आता है!
कभी-कभी यह व्यथित मन
चीत्कार कर उठता है-
"कितनी कृत्रिम..
कितनी अस्वाभाविक है यह ज़िंदगी!"
पर तभी दूर क्षितिज से आवाज़ आती है-
यही स्वाभाविक है!
शायद यही स्वाभाविक है!!
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