दुनिया में थी जिसकी शायरी की धूम, मशहूर कहानीकार सआदत हसन
मंटो भी थे जिसके दीवाने
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एम.असलम. टोंक
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कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता। कोई हम-दर्द
ज़माने में न पाया 'अख़्तर', दिल को
हसरत ही रही कोई हमारा होता..।
हां, ये वहीं रोमांसवादी शायर
अख्तर शीरानी के अशआर है। जो एक समय उर्दू जगत में अपनी शायरी की धूम मचाएं हुए
थे। उस जमाने में दुनिया के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो भी उनके बहुत बड़े फैन
थे। शीरानी उर्दू जगत के एक बहुत बड़े रोमांसवादी शायर कहे जाते हैं। कभी उनकी शायरी
का डंका बजता था। लेकिन आज उनकी शायरी भी गुम सी होती जा रही है। जो शायरी लोगों
की जबान पर बची है, वो आज भी वाह, कहने
को मजबूर कर देती है।
यूं तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई,
ऐ मोहब्बत मेरे पहलू से मगर तू न गई।
मिट चले मेरी उम्मीदों की तरह हर्फ मगर,
आज तक तेरे ख़तों से तेरी खुशबूं न गई।
वतन की मोहब्बत में अपना सब कुछ न्यौछावर करने की तमन्ना अख्तर शीरानी के
दिल में भी धड़कती थी। वो शायरी के रुप में भी सामने आई। देश की मोहब्बत को
सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने कहा -
इश्को आजादी बहारे जीस्त का सामान है,
इश्क मेरी जान आजादी मेरा ईमान है।
इश्क पर कर दूं फिदा में अपनी सारी जिंदगी,
लेकिन आजादी पे मेरा इश्क भी कुरबान हैं।
4 मई 1905 में टोंक में पैदा हुए रोमानी शायर अख्तर
शीरानी का नाम मोहम्मद दाऊद खां था। शायरी करने लगे तो अपना तखल्लुस "अख्तर'
रख लिया। उनके पिता हाफिज मेहमूद शीरानी फारसी साहित्य एवं इतिहास
के बडे़ विद्वान थे। वो अख्तर शीरानी को पहलवान एवं अपनी तरह उच्च पदों पर आसीन
करना चाहते थे। लेकिन 19 वर्ष की आयु में अख्तर शीरानी की
जाैगन नामक नज़्म प्रकाशित हुई। जिसने काफी धूम मचाई।
मुद्दते हो गई बिछड़े हुए तुम से लेकिन,
आज तक दिल से मेरे याद तुम्हारी न गई।
उन्होंने कई पत्र पत्रिकाओं में
भी संपादन का कार्य किया। कई परेशानियों एवं सदमों से टूटते गए अख्तर शराब में डूब
गए। शीरानी के बारे में काफी कुछ प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक पुस्तक में भी लिखा
गया है।
साकी मरे खुलुस की शिद्दत तो देखना,
फिर आ गया हूं गर्दिशे दौरा को टालकर।
भारत विभाजन से पहले अख्तर के पिता मेहमूद शीरानी लौहार से सेवानिवृत
होकर सह परिवार टोंक आ गए। लेकिन अख्तर शीरानी का यहां दिल नहीं लगा। उनकी प्रेयसी
सलमा, रेहाना, अज़रा आदि रही। लेकिन वो कौन थी, आज तक कोई जान नहीं
पाया।
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए,
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए।
वीराँ हैं सहन-ओ-बाग़ बहारों को क्या हुआ
वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए।
वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई
वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए।
दिन रात मैकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी,
'अख़्तर' वो बेख़ुदी के ज़माने किधर गए।
शीरानी ने पहली बार उर्दू अदब में अपनी प्रेमिकाओं को रुह शनास किया। भले
ही वह टोंक से दूर चले गए। लेकिन टोंक उनके रोम-रोम में समाया हुआ था। वाे टोंक की
याद को भुला नहीं पाए।
बुझा सा रहता है दिल जब से टोंक छुटा है,
वह सहने बाग नहीं, सेरे माहताब नहीं।
अपने प्राकृतिक प्रेम एवं यहां की हसीं नजारों को भी वह इस तरह याद करते
हैं। उनकी मशहूर नज़्म
ओ देस से आने वाले बता..।
ओ देस से आने वाले बता!
किस हाल में है याराने वतन।
क्या अब भी वहां मेलों में वही बरसात का जोबन होता है?
फैले हुए बड़ की शाखों में झूलों का निशेमन होता है?
उमड़े हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है?
ओ देस से आने वाले बता..
क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह बता,
क्या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई? आह बता,
ओ देश से आने वाले बता लिल्लाह बता,
लिल्लाह बता।
ओ देस से आने वाले बता..
क्या अब भी वहां पनघट पर,
पनहारियां पानी भरती है।
अंगड़ाई का नक्शा बन बन कर,
सब मांथे पर गागर धरती है,
और अपने घरों को जाते हुए,हंसती हुई चौहलें करती है।
ओ देस से आने वाले बता..।
किताब "अख्तर शीरानी फन और शख्सियत' में लिखा है कि टोंक को गर्व है कि इसकी सरजमीन पर अख्तर
शीरानी जैसे शायर पैदा हुए, जिसने उर्दू शायरी को नया मोड
दिया, परंपरागत शायरी की दीवारें तोड़कर नए आयाम, नई मंजिलें दी। जिस आदमी को पंजाब और पूरे हिंदुस्तान ने अपने सिर पर बिठाया उसे हमारी आने वाली नस्लें और वर्तमान
पीढी भूलती जा रही है।
मेरा हर शेर है "अख्तर'
मेरी जिंदा तस्वीर,
देखने वालों ने मुझे हर हाल में देखा है।
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गरज "अख्तर' की सारी जिंदगी का ये खुलासा है,
कि फूलों की कहानी कहिए, शोलो का बयां लिखिए।
अख्तर शीरानी उर्दू अदब में रोमांटिक शायरी के सबसे बड़े फनकार थे। शीरानी
के बारे में उर्दू के बहुत बडे़ नामवर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी सिर दूंना करते थे, उनकी रोमांटिक शायरी से वह
भी काफी प्रभावित रहे।
ऐ इश्क़ कहीं ले चल, इस पाप की बस्ती से,
नफ़रत-गहे-आलम से, लानत-गहे-हस्ती से।
उसकी मृत्यु के बाद, उसके परम मित्र नय्यर वास्ती का कहना है कि जब एक टूटी-फूटी संदूकची,जाे उनकी एकमात्र संपत्ति थी को खोला गया, तो उसमें
से चंद मुसव्विदों (पाण्डुलिपियों) और हसीनों के चंद ख़ुतूत (पत्रों) के सिवा कुछ
न निकला। मानो ‘ग़ालिब’ ने अपने लिए नहीं ‘अख़्तर’ शीरानी के लिए यह शेर कहा था :-
चंद-तस्वीरे-बुता, चंद हसीनों के ख़ुतूत
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला।
अख्तर शीरानी 9 सितंबर 1948 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया,
वरना सफर हयात का बेहद तवील था।
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