सोमवार, 22 जनवरी 2024

खुशहाल परिवार की औरतों के रोज़गार नहीं होते- मनीषा सिंह 

आदमी मना कर देता है ख़र्च देने से,

औरतें बना कर अचार -मंगौड़ी या टोपी क्रोशिया की बेचने लगती हैं दोपहर की नींदें

आदमी का हाथ तँग हो तो औरतों के बटुए छोटे होते जाते हैं

ये बटुए उनकी कांचली या फिर ब्लाऊज़ में ही कहीं छिप जाते हैं

मानो कलेजा हो उनका

आदमी कहता है फीस बढ़ गई है बच्चों की औरतें दूध लेना कम कर देती हैं

जो औरत कल तक बच्चों को कहती थी दूध पीने से दिमाग़ तेज़ होता है

अचानक बच्चों को समझाने लगती है

चाय पीने से कैसे सुस्ती उड़ जाती है

आदमी का धंधा जब अच्छा चलता है तब वह अपने घर की औरतों को मना कर देता है धूप में निकलने से

जैसे ही तंगी हो जमी धूल वाली डिग्रियों को लेकर अदद टीचर बनने निकल पड़ती हैं औरतें घर से

बहाना बना देती हैं मन नहीं लगता अब बच्चे जो बड़े हो गए हैं

अमीर घर की औरतें अगर नौकरी करें तो ताज़्ज़ुब होना चाहिए

ये तो बड़ी हिम्मत का काम है

उस पर भी अगर नौकरी हो 4 से 5 शून्य वाली तो अजूबा ही है

आदमी की तंगहाली ही बनी है औरतों का रोज़गार

खुशहाल परिवार की औरतों के रोज़गार नहीं होते हैं

यूं ही है औरतों का मालकिन बन जाना

ये दुनिया अजूबा

ये दुनिया तहखाना

आदमी नमूना

औरत बस जैसे तैसे कोई सतूना

 

कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...