रविवार, 21 जनवरी 2024

नवगीत - विजय सिंह नाहटा



यह शिशिर की धूप

ढलने को हुई है

बात में ही ढह गया

लो !

भरभराकर

एक कच्ची भीत - सा दिन।

आस के सुनसान पथ पर

याद कोई झिलमिलाई

पर , यकायक---;

इक जरूरी मशविरे में

हो गया मशगूल --

जैसे गुफ्तगु -- सा दिन।

अर्चना का नवल स्वर है

प्रीत गोया अनछुई

कामनाओं की नदी में

बह गया --

लो ! शांत तट पर

आचमन - सा दिन।

राख में ढका हुआ

अंगार कोई पीर का

यूं  दिपदिपाया

शत सहस्रों दास्तां मन ने बुनी

मौन शाश्वत तोड़ता

आख्यान- सा दिन

              

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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