शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

लाल किले की प्राचीर से भी बिस्मिल की शायरी ने दिया था मोहब्बत का पैगाम - एम.असलम. टोंक


 लाल किले की प्राचीर से भी बिस्मिल की शायरी ने दिया था 
मोहब्बत का पैगाम

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एम.असलम. टोंक

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 "सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते, हर दर पे जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते, कहते हैं मोहब्बत फ़क़त उस हाल को 'बिस्मिल' जिस हाल को हम उन से भी अक्सर नहीं कहते..।

हां, ये शायरी देश के नामवर शायर रहे बिस्मिल सईदी की हैं। जिनके बिना एक ज़माने में राष्ट्रीय पर्व पर आयोजित लाल किले का मुशायरा भी फीका माना जाता था। बिस्मिल सईदी मुशायरे का संचालन के साथ ही अपने कलाम के ज़रिए अपने शीरीं लहजे के साथ मुहब्बत की खुशबूं जिस अंदाज से बिखेरा करते थे, वो काबिले तारीफ था। जिसपर राजस्थान की सरजमीं आज भी फख्र करती है। देश के नामवर शायर मख़मूर सईदी भी उनके शार्गिद रहे। 

 "हमने कांटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर,

लोग बेदर्द है फूलों को मसल देते हैं।

 टोंक की सरजमीं पर 6 जनवरी 1902 में पैदा हुए सैयद ईसा मियां तखल्लुस बिस्मिल सईदी को शायरी का फन विरासत में मिला था। उनके वालिद उर्दू, अरबी व फारसी के कवि होने के साथ ही नामवर हकीम भी थे। बताया जाता है कि उर्दू और फारसी की प्राथमिक शिक्षा बिस्मिल सईदी ने घर पर ही हांसिल की। 1920 में अलीगढ यूपी गए, वहां अंग्रेजी एवं फारसी की कुछ किताबें पढ़ीं। उन्होंने भी तिब की तालीम हांसिल की। उनकी बेबाकी एवं स्वतंत्र स्वभाव कई बार उनके लिए परेशानी का भी सबब बना।

"खुशबू को फैलने का बहुत शौक है मगर

मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किए बगैर।'

बिस्मिल सईदी 1939 में टोंक से दिल्ली गए तथा वहां पर उनकी शायरी परवान चढी। 1946 से बिस्मिल स्थायी रूप से दिल्ली में रहने लगे। उन्होंने जाम टोंकी एवं सीमाब अकबराबादी से भी इस्लाह ली। दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “बीसवीं सदी” से भी वह जुड़े. उन्हें ग़ालिब और नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। राजस्थान उर्दू अकादमी द्वारा भी उनके नाम से अवार्ड दिया जाता है।

"कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम,

दो अश्क पोंछने को तिरी आस्तीं से हम।

दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़,

कुछ वो कहीं से भूल गए हैं कहीं से हम ।

उनके कलाम के चार संग्रह निशाते ग़म, कैफे अलम, मुशाहदात और औराक़े ज़िन्दगी प्रकाशित हो गए हुए। उनका पूरा काम ‘कुल्लियाते बिस्मिल सईदी’ शीर्षक से साहित्य अकादमी द्वारा 2007 में प्रकाशित किया गया। विश्व प्रसिद्ध अरबी-फारसी शोध संस्थान ने भी एक पुस्तक प्रकाशित की है। बिस्मिल का 26 अगस्त 1977 को दिल्ली में इंतेक़ाल हो गया। वो इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हो गए। उनके बारे में पुस्तक शान-ए-बनास भाग प्रथम में भी जानकारी समाहित की गई।

 "बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर,

ठहरा हुआ हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर,

"बिस्मिल तुम आज रोते हो अंजामे इश्क को,

हम कल समझ गए थे कुछ आसार देखकर।'

बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर,

ठहरा हुआ हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर,

"बिस्मिल तुम आज रोते हो अंजामे इश्क को,

हम कल समझ गए थे कुछ आसार देखकर।'

1975 में जब टोंक में प्रियदर्शी ठाकुर कलेक्टर थे, उस समय बिस्मिल की शायरी सुनकर प्रियदर्शन ठाकुर शायर हो गए तथा एक कवि सम्मेलन में महाकवि नीरज भी उनका कलाम सुनकर दाद देते नजर आए। वो ग़ज़ल के शायर थे तथा उन्होंने शायरी की हर विधा में लिखा।

"जमाना आंख से मुझको गिरा के भूल गया,

इक अश्क था मैं जमाने की चश्मे तर के लिए।'

बिस्मिल साहब मोहब्बत के शायर थे। उनकी शायरी आज भी मोहब्बत का पैगाम देती हैं।

"हवस की दुनिया में रहने वालो को मैं मोहब्बत सीखा रहा हूं।

जहां पे दामन बिछे हुए हैं वहां पे आँखें बिछा रहा हूं।

अदम के तारीक रास्ते में कोई मुसाफ़िर न राह भूले,

मैं शम्मे हस्ती बुझा के अपनी चराग़े दिलबर जला रहा हूं।-

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...