गुरुवार, 25 जनवरी 2024

विजयदान देथा की कहानियाँ- डॉ.मनु शर्मा


 

विजयदान देथा की कहानियाँ

 

विजयदान देथा 'बिज्जी' ने खुद अपने बारे में काफी विस्तार से लिखा है। दूसरे लोगों ने उन पर अपेक्षाकृत कम लिखा है। इसकी वजह शुरू में उनके लेखन की भाषागत सीमायें हो सकती है। आगे चलकर उनके रचनाकर्म के जब पर्याप्त अनुवाद उपलब्ध हुए तो उनकी लोकधर्मी किस्सागोई और भाषायी सम्मोहन से लोग चकित हो उठे। उनकी कहानियाँ कौतूहल प्रधान लोककथाओं के ताने-बाने से बुनी हुई और दैनन्दिन जीवन की समस्याओं का विलक्षण हल देने वाली है। उत्सुकता और अनुरंजन जैसे कहानी के मूल तत्त्वों की रक्षा करते हुए उन्होंने कथानक प्रधान राजस्थानी लोककथाओं का घटना प्रधान पुनसृजन करके अपनी रचनात्मक मौलिकता सिद्ध की है।

अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में लिखते हुए बिज्जी कहते है-"मैंने राजस्थानी की कदीमी 'वातों' जिन्हें हिन्दी में लोककथायें कहते हैं, को जस का तस लिपिबद्ध नहीं किया है। कथाओं के अभिप्राय को जैसा बीज हाथ लगा, उसे उसी तरह विकसित किया। मोध्ये के बीज को मोथ्ये जैसा। आक के बीज को आक के अनुसार। बेर और खेजड़ी के बीज को उनके मुताबिक। बरगद-पीपल के बीजों को उनके माफिक, उन्हें वैसा ही फैलाव दिया। "(समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-65, पृ. 13)। कहना न होगा कि कहानियों का कथ्य (थीम) तो उन्होंने लोक कथाओं से लिया लेकिन उसे बरता अपने ढंग से। उसे रंग-रूप और स्वभाव ठीक आज के जीवन सन्दर्भों के अनुसार दिया। युगीन यथार्थ से जोड़कर बिज्जी ने उन लोक कथाओं को मार्मिक और बहुआयामी कहानियों के रूप में ढ़ाल दिया है। उनकी इसी खूबी के चलते लोक की वाचिक परम्परा का हिस्सा रही लोककथायें उनकी मौलिक कहानियाँ बन गई हैं। अद्भुत कल्पनाशीलता, सूक्ष्म पर्यवेक्षण, जागरूकता, सामाजिक प्रतिबद्धता, पतनशीलता का विरोध और गहन मानवीय सरोकारों को विज्जी ने अपनी ऐन्द्रिक भाषा से ऐसा मंडित किया है कि उनका एक-एक वाक्य मानस पटल पर अंकित होता चला जाता है। कथानक को गौण बनाकर घटनायें इतनी प्रभावी हो जाती हैं कि पाठक मुग्ध भाव से उनके साथ आगे बढ़ता चला जाता है, और 'आगे क्या हुआ यह जानने के लिए उत्कंठित बना रहता है। आख्यानपरकता का उनकी कहानियों में ऐसा वितान निर्मित होता है कि भाषा, भाव और विचार के स्तर पर पाठक स्वयं को घिरा हुआ पाता है। इसी रचनात्मक सामर्थ्य के बल पर बिज्जी ने लोककथाओं की लोकपरकता या कहना चाहिए स्थानीयता को वैश्विक मानवता के सन्दर्भ दे दिए हैं।

 

वैसे लोककथाओं की विश्वसनीयता उनमें चित्रित स्थानिक परिवेश में निहित होती है। लोककथा के सम्पूर्ण तत्त्वों को सुरक्षित रखते हुए उसे सजीव और सशक्त बनाकर बिज्जी कथा के लिखित रूप में उन जीवन सत्यों और मूल्यों की ओर संकेत करते हैं, जो जीवन को भव्य एवं गरिमामय बनाते हैं। साथ ही उन विकृतियों, गर्हितपन और अनैतिकता को दिखाते हैं, जिनसे मानवीय जीवन शर्मिन्दगी झेलता है। लोक चेतना को प्रस्तुत करने की कोशिश में बिज्जी अपनी कहानियों को उस बिन्दु पर ले जाते हैं, जहाँ से कहानी खुद को गढ़ने लगती है और कहानीकार केवल 'नैरेटर' होकर रह जाता है। बिज्जी लोक व्यवहार के शिल्पी है। उनकी कहानियों में जो जीवन निरूपित हुआ है, उसमें राज्य सत्ता के प्रति घोर उपेक्षा और तिरस्कार का भाव व्यापक पैमाने पर मौजूद है। वहाँ पग-पग पर साधारण लोग अपनी शक्ति, समझ और सामाजिक सरोकारों से राज्यतंत्र को खोखला, पाखण्डपूर्ण और भय के भ्रम से परिचालित सिद्ध करते हैं। राज्यतंत्र से जुड़े भय का वातावरण बनाने में व्यवसायी, पुरोहित और दरबारी मनोवृत्ति के लोगों की जन विरोधी भूमिका को भी उन्होंने मौके-बे-मौके उजागर किया है। उल्लेखनीय है कि यह सब बिज्जी ने पशु-पक्षियों के बहाने किया है, यानी उनकी कहानियों 'फेबल्स' की बुनावट में आश्चर्यलोक निर्मित करती हैं।

'बाता री फुलवाड़ी' के तेरह खण्डों में उन्होंने जो लोककथायें संकलित की हैं, वे वस्तुतः आम लोगों से उनके द्वारा सुनी हुई कहानियाँ हैं। स्पष्ट है कि आम लोगों ने उन कथाओं को ठीक उस रूप में नहीं सुनाया होगा, जिस रूप में बिज्जी ने उन्हें लिपिबद्ध किया है। सुनी हुई कहानी को लिखते समय बिज्जी ने भी उसमें अपनी ओर से काफी कुछ जोड़ा-घटाया होगा। यानी फुलवाड़ी की लोककथायें भी कमोबेश उनकी रचनाशीलता की द्योतक हैं। लोक कथा को बीज के तौर पर ग्रहण करके उसे फला-फूला विशाल पेड़ बनाने के लिए जो खाद-पानी काम में लिया, वह सर्वथा उनका अपना है। इसलिए यह कहना अन्यायपूर्ण है कि बिज्जी की कहानियाँ मौलिक नहीं है। उनकी कहानियों में लोककथायें उसी तरह विद्यमान है जैसे हमारी महान रचनाओं में प्राचीन आख्यान। उन लोककथाओं में समकालीन जीवन यथार्थ के लिए 'स्पेस' तलाश लेना भी मौलिकता है।

बिज्जी की कहानियों को हम पुरानी बोध कथाओं की सगी बड़ी बहनें कह सकते हैं। बोध कथाओं में किसी लोक व्यवहार की ओर केवल संकेत भर होता है। वहाँ यह नहीं बताया जाता कि भूखा व्यक्ति कोई भी पाप करने से क्यों नहीं हिचकता? वे कौनसी परिस्थितियाँ होती हैं, जो उसे भूखा मरने के लिए विवश करती हैं और ऐसी परिस्थितियों के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? बिज्जी ने इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए लोककथाओं को बड़ा बनाया है। लोक व्यवहार के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की खोज की है। इसलिए वे बोध कथाओं की बड़ी बहने हैं। प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध 'वार्त्ताओं' को इन लोक कथाओं और बोध कथाओं का आरम्भिक रूप माना जा सकता है। उनमें कल्पना की जो उड़ान रहती थी, वहीं गल्प का आधार बनी। गल्प गढ़ते हुए बिज्जी ने जहाँ कल्पना को विस्तार दिया, वहीं अपने सपनों को भी साकार किया। उनमें तरह-तरह के रंग भरे। सपनों के द्वारा जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को प्रकट किया। जीवन के प्रति बिज्जी की धारणाओं और आकांक्षाओं का मूर्तिमान रूप उनकी कहानियों है। लोक जीवन की जाने कितनी ही गौरवमयी भ्रान्तियों को लेकर अपनी गल्य रचनाओं को उन्होंने व्यंग्यात्मक छटा दी है। ये भ्रान्तियाँ उनकी कहानियों की रीढ़ हैं। देखा जाए तो रचनात्मक यथार्थ और वस्तुगत यथार्थ के बीच यह विभ्रम ही वह पार्थक्य रेखा बनता है, जो दर्शाता है कि रचनाकार ने किस सीमा तक जाकर यथार्थ का पुनसृर्जन किया है।

बिज्जी की कहानियों में आख्यानपरकता के अलावा किस्सेबाजी का कौशल भी मिलता है। यह ठीक वही शैली है जो सिंहासन बत्तीसी, वैताल पच्चीसी' या हातिमताई और अलिफ लैला के किस्सों में मिलती है। हिन्दी में प्रेमचंद इस शैली के प्रभावी प्रयोक्ता रहे है। इस शैली में रचनाकार खुद किस्से का हिस्सा बनकर उसे रोचक, उत्सुकतापूर्ण और विश्वसनीय बनाता है। नाटकीयता इन किस्सों को गतिशील बनाये रखने का काम करती है।

बिज्जी की कहानियों के कथासूत्र ठीक वैसे ही है जैसे दादी-नानी की कहानियों में हुआ करते थे। जिन्हें हम कथा सूत्र कहते हैं, वे और कुछ नहीं बल्कि वे कल्पित तत्त्व है, जिनके द्वारा कहानियों को विकसित कर अंत की ओर ले जाया जाता है। जो है उसमें से जो होना चाहिए' की संभावना तलाशना या कहना चाहिए घटित यथार्थ में से संभावित यथार्थ की खोज करके उसके लिए 'स्पेस पैदा करने में जिन तत्त्वों का उपयोग किया जाता है, वे सब कथा सूत्रों की श्रेणी में आते हैं। बिज्जी की 'सपनप्रिया' कहानी के हवाले से इसे ज्यादा स्पष्टता से समझा जा सकता है।

'सपनप्रिया' कल्पना और यथार्थ में से यथार्थ की स्वीकृति की कहानी है। राजकुमार अपने सपने की कुंकुमवर्णी पद चिह्नों वाली राजकुमारी के लिए क्रियाशील होता है। उसके माता-पिता भी जीवन यधार्थ को समझाने के लिए उसे सपने वाली राजकुमारी की खोज के लिए प्रेरित करते हैं। सपने को साकार करने की कोशिश में राजकुमार जीव मात्र के प्रति करुणा और सहयोग करना सीखता है। उसे लगता है संकट के समय किसी के लिए किया गया सहयोग कभी अकारथ नहीं जाता। सपनों को साकार करने के लिए भी निष्ठा, समर्पण और अनन्यता चाहिए। कहानी में सपना कुंकुमवर्णी पदचिह्नों वाली राजकुमारी है और यथार्थ दीवान की बेटी, जो वस्तुतः राजा की अवैध सन्तान है। यहाँ पर देथा जी सामन्ती समाज के कटु यथार्थ और विवाहेतर संबंधों की विकृतियों को दिखाते हैं। राजा की बेटी होते हुए भी राजकुमारी की बहन को वह अधिकार हासिल नहीं है, जो राजकुमारी को है। राजकुमारी की बहन उससे अधिक सुन्दर, समझदार और संवेदनशील है। वह राजकुमार को चाहती है, लेकिन राजकुमार सपनों वाली कुंकुमवर्णी पदचिह्नों वाली राजकुमारी के पीछे पागल है। सपनप्रिया की अपनी शर्तें है। उन्हें पूरा करने वाला ही उसका वरण कर सकता है। यहाँ देथा जी ने नाटकीयता और कल्पना का भरपूर उपयोग किया है। राजकुमारी को पाने के लिए जिन शर्तों की कल्पना की गई है वे उन प्राणियों की गतिविधियों से जुड़ी हैं, जिनकी राजकुमार ने समय-समय पर सहायता की थी। एक कथासूत्र का सिरा यहाँ आकर दूसरे से मिल जाता है। प्राणियों के सहयोग से राजकुमार सभी शर्तें जीत जाता है। राजकुमारी को ब्याह के लिए तैयार होना है। वह माँ के पास जाती है और अपने मरने के बाद शव को न जलाने के लिए माँ से कहती है। उसके मरने की वजह तहखाने में रखा वह नौलखाहार है, जिसे तहखाने में रखे संदूक से निकालकर उसकी सौतेली बहन ने पहन लिया है। राजकुमारी के मर जाने पर राजा अपनी अवैध सन्तान को राजकुमार से ब्याह देता है। सपना पीछे छूट जाता है। यथार्थ सामने है। वह बुरा भी नहीं है। लेकिन यथार्थ की स्वीकृति यदि छद्म के साथ हो, तो यथार्थ को बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है। सौतेली बहन हार को ज्यों ही गले से उतारती है, राजकुमारी जीवित हो जाती है। इसलिए सौतेली बहन ने इस छद्म के साथ न जीने का निश्चय कर राजकुमार को उसके सपनों की राजकुमारी से मिला दिया। उसने अपने गले का हार ज्यों ही राजकुमारी को पहनाया वह फिर से जी उठी। कहानी यहाँ कई प्रश्नों के साथ खत्म होती है। पाठक सोचता है कि इसके बाद राजकुमार ने किसे अपनाया होगा? कुंकुमवर्णी देहधारी सौतेली बहन को या आभूषणों के बूते जीने-मरने वाली कुकुमवर्णी पदचिह्नों वाली राजकुमारी को।

मानवीय संवेदनाओं को नकार कर जानलेवा सपनों के पीछे दौड़ने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। जिन शर्तों को पूरा करने में ही जीवन खप जाये, तो ऐसी शर्तों और शर्त रखने वालों की समझ पर तरस ही आ सकता है। कहानी मानवीय भावों के साथ जीने वाली सौतेली बहन और शर्तों व आभूषणों के लिए जीने वाली सपनों की राजकुमारी में से चयन का विवेक जगाती है। साथ ही इस सच्चाई को भी उजागर करती है कि राज्य सत्ता यथार्थ में कम और सपनों में ज्यादा विश्वास रखती है। वह कल्पना में, सपनों में और जो संभावित है, उसमें ज्यादा रूचि लेती है। नतीजतन वर्तमान का चेहरा सँवर ही नहीं पाता है। ठकुर सुहाती, दरबारीपन, चापलूसी, झूठी शान राज्य सत्ता का चरित्र बन जाती है। बिज्जी के घनिष्ठ मित्र और कलाविद् कोमल कोठारी के अनुसार 'विजयदान देथा की कहानियों में राज्य कथा का नायक नहीं बल्कि सामाजिक, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में स्वयं सिद्ध एवं चिरन्तन नायक है।' (प्रतिशोध पृ. 21) यह नायक अपनी अकथ क्रूरताओं, मूर्खताओं और निष्कृटताओं के साथ वहाँ मौजूद है। कहीं पर हिंस्र पशुओं के प्रतीक रूप में और कहीं लोकतंत्र में पनपती सामन्त शाही के रूप में।

लोकविश्वासों को आधार बनाकर बिज्जी ने कई अ‌द्भुत कहानियाँ लिखी हैं। 'भगवान की मौत' के तीडा का शगुन विचार या 'दुविधा' की नव-नवेली दुल्हन का भूत से प्रेम प्रसंग ऐसे ही लोक विश्वास हैं। बिज्जी के कथापात्र वर्गीय चेतना के साथ मिथकीय चेतना से भी सम्पन्न है। इन दोनों में सामान्य तत्त्व सामूहिकता है। सामंती और पूंजीवादी मूल्यों में रचा-बसा समाज मानवीय मूल्यों का महत्त्व नहीं समझता। वह तो एक दिन ईश्वर के दिवालिया होने का सपना देखता है। बिज्जी की कहानियों का 'पैटर्न' फेबल्स या पशु-पक्षियों की कहानियों की फंतासी से निर्मित है। यह फंतासी कहीं आश्चर्यलोक रचती है, तो कहीं भूतों को जिन्दा इंसानों से अधिक संवेदनशील दिखाती है। फंतासी को आवश्यकता के अनुसार समसामयिक सन्दर्भों में सहज कहनपन के साथ प्रस्तुत कर देने का कौशल कोई बिज्जी से सीखे। यह कहनपन ऊपर से जितना सहज-सरल दिखता है, उसके निहितार्थ उतने ही व्यापक, सूक्ष्म और गहन होते हैं।

 

किस्सों या धार्मिक कथाओं में जैसे हर दुख का अंत सुख में, संघर्ष का सुकून में या व्यथा का आनन्द में दिखाया जाता है, वैसे ही बिज्जी की कहानियाँ भी 'अन्त भला तो सब भला' को चरितार्थ करती हैं। लोककथा को कहने का ढंग उनकी कहानी के शिल्प को तय करता है। 'फेंफा के फूल' कहानी की नायिका, एक बावड़ी में रहती है। वह लम्बे समय तक सोती है और लम्बे समय तक जागती है। उसकी सुरक्षा के लिए विकराल पहाड़ हैं। बत्तीस भैरव और चौसठ जोगनियों का पहरा है। पलंग के चारों पायों के साथ चार सिंह अपलक बैठे हैं। कहानी में फैंटेसी का उत्कर्ष वहाँ होता है, जब पता चलता है कि फेंफा का फूल न किसी बेल पर मिलता है, न किसी पेड़ पर, न किसी पौधे पर। वह तो राजकुमारी फेंफा की मुस्कान में, उसके हँसने में मिलता है। दरअसल राजकुमारी फेंफा की हँसी राज्य सत्ता के वे तौर तरीके हैं, जो प्रजाजनों को बड़ी से बड़ी तकलीफ को भूल जाने का विभ्रम रचते हैं।

व्यंग्य बिज्जी की अभिव्यक्ति को विशेष तेवर देता है। उन्होंने कोई स्वतंत्र व्यंग्य कथायें लिखी हो, ऐसा नहीं है। लोककथाओं को विस्तार देने के दौरान ही उन्होंने व्यंग्य को अपनी रचना शक्ति बनाया। इस शक्ति को उनकी वाक्य रचना के बीच में खोजा जाना चाहिए। कागपंथ कहानी में अकाल की भयावहता को काँव-काँव करते कौओं द्वारा निश्चेष्ट जानवरों की देहों पर चोंच मारकर मजे लेने में व्यंग्य देखा जा सकता है। कौओं के चोंच मारने पर जानवरों के पूंछ न हिलाने का जिक्र करते हुए कहते हैं: पूछ हिलाने के लिए भी ताकत चाहिए।' इस छोटे से वाक्य में निहित व्यंग्य ने जीवन के न जाने कितने पक्षों को अपने निशाने पर ले लिया है।

उत्तरआधुनिक स्त्रीविमर्श के लिए बिज्जी की कहानियों में पर्याप्त संभावनायें हैं। ग्रामीण स्त्री, सामंती समाज में स्त्री, नवधनाढ्य वर्ग में स्त्री. कृषक स्त्री, इनकी सामाजिक स्थिति, उनकी निजता, शारीरिक-मानसिक शोषण, उनकी खरीद-फरोख्त, भोग्य वस्तु में तब्दील हुआ उनका व्यक्तित्व और स्त्री-विद्रोह जैसे प्रश्नों को विस्तार के साथ उन्होंने कहानी का विषय बनाया है। सामाजिक विकृतियों, कुप्रथाओं, अन्ध-विश्वास और पतनोन्मुख समाज की मनोरचना का बिज्जी ने बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण किया है। ग्रामीण यथार्थ कितना विकट और संघर्षपूर्ण होता है, यह उनकी कहानियों से भली भांति समझा जा सकता है। ग्रामीण समाज का ऐसा प्रामाणिक और ऐतिहासिक अध्ययन कम ही कहानीकारों ने किया है। लोककथाओं की महान सम्पदा को लिपिबद्ध करके बिज्जी ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक विकास यात्रा को सुरक्षित किया है। इस देश की सृजन परम्परा को यह उनकी अनूठी देन है।

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