जिनकी
धरती नहीं है
तमाम
जुगत -जुगाड़ बैठाए
मैंने
कोशिश की
किसी
से कर्जा भी इज्जतदार आदमी की तरह लूँ
मैं
चोरी और बेइमानी भी करता
शरीफ़
आदमी की तरह करता
मेरे
बीबी - बच्चें भी जानने लगे हैं
मेरी
विवशता
और यह
सारा गाँव भी जानता है
रात के
अंधेरों में पत्नी बड़बड़ाती है
गहने
बेच दिए, जमीन बेच दी
रहने
की जगह को गिरवी रख दिया है तूने
इसने
बेटियों का मोल किया हैं
खुद की
उम्र के किसी दूजवर आदमी से
एक को
किसी बस कंडक्टर साथ भेज दिया
दूसरी
को चंबल की तरफ बेच आया है
कोई
किसी का भी हो सकता है
खेत, घर और आदमियों के बारे में क्या कहें
तुम्हारा
देस भी किसी दूसरे का हो सकता है
लेकिन
किसी सताये हुए आदमी का जीवन
दूसरे
का नहीं होता
मेरी
नहीं तो तुम्हारी बेटियों को देखकर खुश हूँ
और मै
खुश हूँ पहाड़ के नीचे सरकारी जमीन पर रहकर
जो कम
से कम इस गाँव की तो नहीं है
बस एक
चिंता सताए जाती है रात - दिन
जिनका
कोई हिस्सा नहीं बचा है इस धरती पर
उन्हें
उजाड़ने के लिए
पहले
सरकार आयेगी या मृत्यु !
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी कविता
शुक्रिया
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