गुरुवार, 25 जनवरी 2024

जिनकी धरती नहीं है - अमर


 

जिनकी धरती नहीं है

 मैंने इज्जतदार आदमी की तरह जीने के लिए

तमाम जुगत -जुगाड़ बैठाए

मैंने कोशिश की

किसी से कर्जा भी इज्जतदार आदमी की तरह लूँ

मैं चोरी और बेइमानी भी करता

शरीफ़ आदमी की तरह करता

 ऐसे तो मेरी सारी हकीकत मालूम हैं मुझे

मेरे बीबी - बच्चें भी जानने लगे हैं

मेरी विवशता

और यह सारा गाँव भी जानता है

 

रात के अंधेरों में पत्नी बड़बड़ाती है

गहने बेच दिए, जमीन बेच दी

रहने की जगह को गिरवी रख दिया है तूने

 कहने को तो लोग यह भी कहते हैं

इसने बेटियों का मोल किया हैं

खुद की उम्र के किसी दूजवर आदमी से

एक को किसी बस कंडक्टर साथ भेज दिया

दूसरी को चंबल की तरफ बेच आया है

 इस दुनिया में रहते हुए

कोई किसी का भी हो सकता है

खेत, घर और आदमियों के बारे में क्या कहें

तुम्हारा देस भी किसी दूसरे का हो सकता है

लेकिन किसी सताये हुए आदमी का जीवन

दूसरे का नहीं होता

  अब मेरे नहीं तो तुम्हारे खेतों को देखकर खुश हूँ

मेरी नहीं तो तुम्हारी बेटियों को देखकर खुश हूँ

और मै खुश हूँ पहाड़ के नीचे सरकारी जमीन पर रहकर

जो कम से कम इस गाँव की तो नहीं है

 इस उजाड़ पहाड़ के नीचे रहते हुए

बस एक चिंता सताए जाती है रात - दिन

जिनका कोई हिस्सा नहीं बचा है इस धरती पर

उन्हें उजाड़ने के लिए

पहले सरकार आयेगी या मृत्यु !

2 टिप्‍पणियां:

विजय राही ने कहा…

बहुत अच्छी कविता

Amar ने कहा…

शुक्रिया

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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