शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

कहानी-फ़ांस -आशा पाण्डेय (कवयित्री,कथाकार और लेखिका )


                                                                             फ़ांस

              दिसम्बर महीने के शुरुवाती दिनों की ये रात ठंड में काँप रही है | रात ढाई बजे ट्रेन से बाहर निकलते ही हवा का एक झोंका हड्डियों के भीतर तक उतर कर हमारा स्वागत किया | लपेटी हुई शाल को और कसते हुए हम लोग स्टेशन से बाहर निकलने के लिए सीढ़ियाँ उतर रहे हैं | ऑटो,जीप रिक्शेवाले हमारी ओर उम्मीद से देखते हुए आगे बढ़ते हैं,लेकिन ‘गोविंदपुर’ का नाम सुनते ही उदासीन होकर पीछे हो जाते हैं | इतनी रात में, इतनी ठंड में, इतनी दूर ... शायद नहीं जाना चाहते |

     पीछे की पंक्ति के कुछ ऑटो ड्राइवर हमें आवाज दे रहे हैं, किंतु पति एक रिक्शेवान से बात करने लगे | वो चलने को तैयार है |

    ‘बहुत दिनों से साइकिल रिक्शे पर नहीं बैठे हैं, चलो रिक्शे से ही चलते हैं |’

    ‘ इतनी रात को ! ... ठीक रहेगा ?’ मेरे मन में शंका उठती है | पति सिर झटक कर मेरी शंका को निर्मूल सिद्ध कर देते हैं | इस बीच रिक्शेवान एक और रिक्शे को बुलाकर हमारे सामने खड़ा कर देता है |       

 ‘लालच बुरी बला है बिटिया,किसी काम की नहीं होती | जिसको लग गई, समझो उसको खा गई |’

        रिक्शावान रिक्शे पर सामान लादता जा रहा है, बोलता जा रहा है |

‘किशोर बढ़ा आगे ...बाबू जी तुम बेबी के साथ उस रिक्शे पर बैठ जाओ और बिटिया तुम मुन्ना के साथ मेरे रिक्शे पर आ  जाओ |’

       मुन्ना और बेबी ! कितना आत्मीय नामकरण ! और मुझे भी अपनी बिटिया बना लिया | मन प्रेम का कितना भूखा होता है ! इस आत्मीय संबोधन मात्र से मेरा हृदय अंदर तक भीग गया | कितने गहरे रिश्ते जोड़ लिए इस रिक्शेवान ने ! मेरे ऊपर इस रिश्ते की मिठास का नशा चढ़ना शुरू हो गया है,किंतु इसमें पूरी तरह डूबने के पहले ही मैं सम्भल जाती हूँ | अब तक के अनुभवों ने सिखा दिये हैं मुझे कि ये रिश्ते पल भर के लिए भी नहीं टिकते | बस, इनकी डोर पकड़ कर बेवकूफ बनाने के लिए गढ़े जाते हैं ये | क्या मेरे साथ ही इस रिक्शेवान को इतनी आत्मीयता हो गई ! नहीं, ये आत्मीयता नहीं  है | रोज मुझ जैसी तमाम सवारियां इसके लिए मुन्ना, बेबी, बिट्टन और बिटिया बनती होंगी | इन रिश्तों की गहराई से इसे कुछ भी लेना देना नहीं है, ये सवारियों को प्रभावित करने का तरीका मात्र है, बस |

       मेरे मन मे एकदम से उमड़ आये मधुर भाव बिला गए हैं अब और दिमाग में संदेह का कीड़ा घुसने लगा है | मैं अपना सामान गिनती हूँ | एक बार, दो बार, तीन बार -  जितने सामान लेकर चली थी, सब हैं, पर लग रहा है जैसे कुछ गायब हो गया है, कुछ छूट गया है | पति से कहती हूँ, वे भी गिनते हैं | सारे सूटकेस, बैग-  सब है | मैं आश्वस्त होती हूँ | रात के तीन बज रहे हैं | रिक्शे पर बैठने के पूर्व मेरे पति ने दोनों रिक्शेवान को हिदायत दी कि वे साथ-साथ ही चलें |ही

       ‘चिंता मत करो बाबू जी, हम साथ-साथ ही चलेंगे | ... अरे वो किशोर, आगे पीछे ही चलना | इ ... ठीक से बैठ जाओ बिटिया, डरो नहीं | रिक्शा चलाते-चलाते पूरी उमर निकल गई, गिराऊंगा नहीं | धीरे-धीरे ही चलूँगा |’      

       मन में आया कह दूँ -  क्यों डरूँगी ? रिक्शे से डर ! इसी रिक्शे से तो इस शहर का चप्पा-चप्पा घूमी हूँ | तुम्हारे इस रिक्शे पर बैठते ही तो मैं वर्षों पहले के इलाहाबाद में पहुंच गई हूँ | कहना ये  भी चाह रही हूँ कि कुछ भी तो नहीं बदला है इलाहाबाद में | माँ की गोद जैसा हमेशा एक-सा ठंडक देने वाला ये शहर, किंतु रिक्शेवान से अधिक बात करना भी उचित नहीं लग रहा है | चुपचाप बैठी रह जाती हूँ |

         ‘लगता है बहुत दिनों बाद अपने शहर में आई हो बिटिया,’ रिक्शेवान पूछता है |

         ‘हाँ, पांच साल बाद |’ मैं अनमने मन से जवाब देती हूँ |

         ‘ अब बताओ भला, तुम लोग अपने शहर में इतने दिन बाद आये हो और बाबूजी हैं कि किराये का मोल-भाव करने लगे  ... मेरा भी कुछ फर्ज बनता है बिटिया | में ज्यादा पैसे क्यों लूँगा ? जो समझना, सो दे देना | ...अब महंगाई की मार तो देख ही रही हो बिटिया,|’ मैं मन ही मन मुस्कुराती हूँ | रिक्शेवान अधिक पैसा वसूलने की भूमिका बना रहा है | कितने चालाक होते हैं ये लोग !! पहले अपनी बातों में उलझा लेते हैं फिर रिश्ता जोड़ लेते हैं | बस, सवारियां फंस जाती हैं इनकी बातों में, किराया तय नहीं करती | उसका फायदा उठाकर ये बाद में अधिक पैसा ऐठने की कोशिश करते हैं | ...अब किया ही क्या जा सकता है, बैठ तो हम लोग भी गए हैं रिक्शे पर | उतरने पर पता नहीं ये कितने पैसे मांगेगा और कितनी देर तक बहस करेगा |

          दिसम्बर महीने के शुरुवाती दिन और रात का समय ! ठंड तेज पड़ रही है | नगरपालिका एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा रास्ते में जगह-जगह अलाव जल रहे | गरीब, मजदूर रिक्शेवान अलाव को चारो ओर से घेर कर आग तप रहे हैं |

        मेरा रिक्शेवान भी अलाव के पास दो मिनट रुककर अपने हाथों को सेंक लेना चाहता है | उसके दोनों हाथों की हथेलियाँ तथा उँगलियाँ रिक्शे की हैंडिल पकड़े –पकड़े अब तक ऐठ-सी गई हैं | रिक्शेवान की माने तो उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि उसने रिक्शे की हैंडिल पकड़ी है या नहीं | ठंड के मारे सुन्न पड़ गए हैं उसके हाथ |

       पति ने कहा , ‘पहले हमें पहुँचा दो यार,लौटते समय सेंक लेना हाथ |’   

         हम किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहते | इन आग तापते लोगों के साथ मिलकर ये रिक्शेवान हमें नुकसान भी तो पहुँचा सकता है | ...इन लोगों का क्या भरोसा !

        हाथ सेंकने से मना कर देने पर रिक्शेवान मन मसोस कर रह गया | रिक्शे की पैडिल पर अब उसके पैरों की गति अब कुछ तेज हो गई है | रिक्शा चलाते-चलाते ही उसने कान में लपेटे मफलर को और कस लिया तथा अपना बांया हाथ कोट की जेब में डाल लिया |

        कोट कई जगह से फट गई है, फटी जगह में दूसरे कपड़े का पैबंद लगाकर कोट को पहनने लायक बना लिया है | थोड़ी देर बाद उसने अपने बांये हाथ को कोट की जेब से निकाल कर उससे रिक्शे की हैंडिल पकड लिया तथा दायें हाथ को कोट की जेब में डाल लिया | ...हर थोड़ी-थोड़ी देर में अब वो हाथ बदल-बदल कर कोट की जेब में डाल रहा है |

       मैं उसे टोकती हूँ, ‘ दोनों हाथ से हैंडल पकड़कर ठीक से चलाओ, देख नहीं रहे हो कितने गड्ढे हैं सड़क पर  | ... रिक्शा कहीं उलट-पलट गया तो आफत हो जाएगी |’

      ‘कुछ नहीं होगा बिटिया,तुम दरो मत |’

      ‘मैं डर नहीं रही हूँ, बस तुम दोनों हाथ से हैंडिल पकड़ कर ठीक से चलाओ रिक्शा | मुझे तुम्हारा स्टंट नहीं देखना है |’ बिलकुल सपाट और तीखे शब्द हैं मेरे |

       रिक्शेवान स्टंट का मतलब समझ पाया या नहीं, किंतु जेब से हाथ निकाल कर दोनों हाथ से हैंडिल संभाल लिया | मेरी चिंता कम हुई |

       यूँ तो हम लोग गरम कपड़ों से लड़े हैं | यहाँ तक कि हमारे हाथ-पैर की उँगलियाँ भी दस्तानों और मोजो से ढकी हुई हैं, किंतु ठंड है कि रास्ता बनाते हुए हमारी हड्डियों तक में घुसी आ रही है | ठंड से ध्यान हटाने के लिए मैं सड़क किनारे की दुकानों और मकानों को देखने लगी हूँ |

       कुछ इमारतें पुरानी किसी न किसी याद को ताजा कर रहीं हैं |

कम्पनीबाग से आगे बढ़ रहे हैं हम | बाई तरफ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की इमारतें खड़ी हैं | गोल गुम्बद वाली ऊंची बिल्डिंग – यहीं तो हुई थी मेरी बी.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा | अर्थशास्त्र का पेपर था| गुम्बद के ठीक नीचे मेरी सीट थी | जब मेरे सर पर कुछ गीला-गीला गिरा तो मैं चौंक गई | ऊपर देखने के लिए सर उठा ही रही थी किटेबल पर भी टप की आवाज करता हुआ कुछ टपक पड़ा | यह कबूतरों का कमाल था | मेरी उत्तरपुस्तिका सुरक्षित थी इसलिए मैंने भगवान को धन्यवाद दिया | मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे, मैंने बेवश नजरों से कबूतरों को देखा और तेज रफ़्तार से लिखने में जुट गई | उत्तरपुस्तिका जमा कर बाहर निकली तो हमारे कालेज का चपरासी शिवचरण दिखाई दिया | उसको मैंने सारी बातें बताकर अपना सिर दिखाया, मुस्कुराते हुए उसने बाहर रखे मटके से एक जग पानी लाया,उससे मैंने अपने सिर को साफ किया |

         इस घटना की याद ने इतनी ठंड में भी एक स्फूर्ति-सी भर दी मन में | रिक्शा आगे बढ़ रहा है और मैं पीछे यादों में लौट रही हूँ |

         कटरा की सब्जी मंडी पीछे छूट रही है | अब आगे लगभग दो किलोमीटर का रास्ता एकदम सूना है | दूसरा रिक्शा,जिस पर मेरे पति बैठे हैं वह भी साथ ही साथ चल रहा है, जब वह रिक्शा एकदम मेरे नजदीक हुआ तो मैंने धीरे से कहा, ‘बहुत बड़ी भूल हुई | ऑटो रिक्शा या जीप से आना चाहिए था | साइकिल रिक्शे पर बैठने का शौक कहीं मंहगा न पड़ जाये |’

         मेरी चिंता को सुनकर रिक्शेवान ने कहा, ‘बिटिया, डरो मत | पहले हमें कुछ होगा तब तुम लोगों पर आँच आयेगी | बस, भगवान का नाम लेती रहो |’

        पति ने घड़ी देखकर कहा, ‘अब चार बज गए हैं, डरने की कोई बात नहीं है |’

        थोड़ी देर बाद हम सुनसान रास्ते को पीछे छोड़ते हुए अपट्रान के सामने पहुंच गए | कुछ दूर चढ़ाई है | रिक्शेवान सीट से उतर कर रिक्शा खींचते हुए पैदल चलने लगा | मैं रिक्शे से उतरना चाहती हूँ,जिससे उसकी मेहनत कम हो जाये,पर रिक्शेवान मुझे उतरने नहीं दिया, बोला, ‘ दो मिनट की तो बात है बिटिया, अधिक दूर तक चढ़ाई नहीं है | हम लोगों की तो आदत पड़ गई है रिक्शा खींचने की | चाहे पैडल मार कर खींचूँ,चाहे पैदल चल कर |’

        बस, पांच मिनट का रास्ता और घर आ गया | रिक्शेवान दोनों रिक्शे का मात्र दो सौ रुपये ही लिया | मुझे लग रहा है कि उचित किराये से भी कम लिया है शायद | मैं नाहक इसके बारे में अनाप-शनाप सोच रही थी | मन ही मन मुझे कुछ ग्लानि हुई, किंतु अधिक देर तक मैंने इस  विचार को अपने दिल पर लदने नहीं दिया | गुंजाइश भी नहीं है, क्योंकि घर का दरवाजा खुल गया है | हम एक दूसरे से गले लगे , खुश हुए और किराये की बात भूल गए |

        कुछ देर बाद फिर से दरवाजा खटका |  पति ने दरवाजा खोलकर देखा तो सामने वही रिक्शेवान मेरी सूटकेस लिए खड़ा है, बाबूजी ये लीजिये आपका बक्सा, सामान उतारते समय इसपर ध्यान ही नहीं गया | सीट के पीछे रख दिये थे न ... इंजीनियरिंग कालेज के सामने एक सवारी बैठाने लगा तब मेरा ध्यान इस बक्से पर गया | सवारी को मना कर मैं बक्सा देने आ गया |’

      हम सब अवाक् | पति ने उसकी ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए सूटकेस ले लिया | रिक्शेवान चला गया | उस सूटकेस में कपड़े-लत्ते के अलावा कुछ पैसे भी रखे थे | रिक्शेवान के लिए ये बड़ी रकम होती | सूटकेस से कुछ ऊनी कपड़े उसे मिलते जो इस सर्दी में बहुत उपयोगी होते,लेकिन बिना किसी लालच में पड़े, मिली हुई सवारी को भी छोड़कर यहाँ तक दौड़ा आया सूटकेस लौटाने !!

      घर में सब लोग रिक्शेवान की ईमानदारी पर दो-तीन मिनट बात करके फिर से हंसी- मजाक में लग गए | बात तो मैं भी सबके साथ कर रही हूँ पर मेरा उत्साह अब समाप्त हो गया है | रास्ते भर मैं इस रिक्शेवान को शंकालु नजर से देखती रही | इसकी सीधी-सादी बातों में भी चालाकी खोजती रही | अब,जब वह सूटकेस लौटाकर चला गया तो जी कर रहा है कि उसकी अपनत्व भरी बातों का प्रेम से जवाब दे दूँ | कह दूँ कि, ‘काका हम पांच मिनट रुके रहेंगे,तुम ठंड में अकड़ गए अपने हाथों को सेंक लो| अपट्रान की चढ़ाई पर उसके मना करने के बाद भी उतार जाऊं और कह दूँ कि अब तुम्हारी उमर नहीं रही कि सवारियों को बैठा कर चढ़ाई पर रिक्शा खींचो | या फिर किराये के रूप में कुछ अधिक पैसा देकर कह दूँ कि फ़र्ज सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है काका,मेरा भी है | इन पैसों को रख लो | ये किराया नहीं है बेटी का प्रेम है |

   बेटी का प्रेम !

   रिक्शेवान के बार-बार बिटिया कहने पर भी जो नहीं उमड़ा !!          

  प्रेम भरे शब्दों को जमा दे, इतनी ठंड तो नहीं है इस शहर में !!

 ‘बेटी’ शब्द फ़ांस- सा अटक गया है गले में |

 

                                     

कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...