ऐसे ही जलती बुझती है
मेरे सीने में उम्मीद की लौ
आधी रात दूर जंगल में हुल्लड़
मचाते सियार
भय पैदा करते हैं तो अगले ही पल
महक उठती है तुम्हारी आंखों की
रात रानी
तुम देख रहे हो नदी के उथले
किनारे
और मैं देख रही हूं बीच का भंवर
तुम दूर क्षितिज में जमीन आसमान
को मिलते देख
खुश हो रहे हो
मैं उदास आंखों से देखती हूं
उनके बीच कभी न मिटने वाला अंतराल
यूं तो हम दोनों के शहर की छत
पर बैठा है चांद
मगर कितनी अलग हैं हमारे हिस्से
की रातें
पूर्णिमा का गोल दूधिया चांद
उतरता है तुम्हारे स्वप्न थाल में
और मैं तीज की बारीक हंसिया ले
काटने लगती हूं अपना पाथर दुःख
सच कहूं तो मुझे अपनी नाउम्मीदी
से नहीं
तुम्हारी उम्मीदों से डर लगता
है
दिन दहाड़े ठगे जाओगे किसी दिन
प्रेम में सुख पतझड़ी पेड़ की
पत्तियों सरीखा होता है दोस्त!
इतना भरोसा ठीक नहीं
जिस वक्त खबरों के केंद्र में
हो युद्ध, प्रशंसा के केंद्र में हत्यारे
वणिक मस्तिष्क बन बैठा हो हृदय
की हरित भूमि का स्वामी
उस समय में प्रेम के जीवित बचे
रहने की कितनी उम्मीद है?
अभी भी समय है
उतर जाओ कल्पना के स्वर्ण रथ से
नीचे
प्रेम को सुला आओ जमीन की कोख
में कहीं गहरे
अभी अनुकूल नहीं है मौसम
जो प्रेम किया जाए
अभी नथुनों में भरती है बारूद
और खून की मिलीजुली गंध
कान के परदों में अनवरत चुभ रही
है चीख पुकार की नुकीली सुई
दृश्य ऐसे की दृष्टि खो देने का
जी चाहे
पहले रंगमंच पर खेला जा रहा
नफरत का मंचन रोको
परदा गिराओ
फूल, नदी, पहाड़, चिड़िया के चित्र लगाओ
अंधेरा समेटो आशाओं का दीप जलाओ
आपदाओं के अभेद चक्रव्यूह में
उतरो
खंड खंड होती दुनिया में एक
होने के लिए लड़ो
हारोगे या जीत जाओगे
कहा नहीं जा सकता
प्रेम में कुछ भी निश्चित नहीं
सिवाय दुख के...
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