हर शाम ढ़ल जाती है
सूरज के ढ़ल जाने के साथ
कभी सिंदूरी होकर
तो कभी मटमैली-सी शाम !!(१)
कभी बादलों की छांव में
ओढ़ लेती है तारों की चूनर
तो कभी गुनगुनाने लगती है
उमड़ती लहरों संग सुहानी शाम!!(२)
उठते ज्वार-भाटे में भी,जब
कभी समा जाता है सूरज
फिर बरखा की बूंदों के संग
इंद्रधनुष के सतरंगी रंगों में
ढ़ल रंगीन हो जाती है शाम!!(३)
मवेशियों के गले की बजती
घंटियों संग सूरज जब
लौटने लगता है अपने घर
तो नादमय हो जाती है शाम!!(४)
चूल्हे के उठते धुएं के संग
राह अपनी तलाशते हुए
कहीं दूर पहाड़ों में,जब
खो जाता है सूरज तो राह
तकते ही हो जाती है शाम!!(४)
दूर बियांबान रेगिस्तान में,
जाते ऊंटों के काफ़िले संग
खोजती हुई अपने प्रिय को
तकती है दर पर भोर से,वहां
इक आस लिए ढ़लती है शाम!!(५)
जहाजों में उड़ते पंछी,जहां
बनते हैं सहारा जीवन का!
मीठे सपनों को सजाती है
नव राह दिखाती सुनहरी शाम!!(६)
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