रविवार, 14 जनवरी 2024

हर बार- डॉ.प्रभा मुजुमदार


 हर बार

इतिहास की एक निर्णायक घड़ी

पराजित और पस्त हो जाती है,

अपने हो अंतरद्वंदों और दुविधाओं की छाया में.

बेबस हो जाती हैं,

अराजकता की भरकम मुट्ठियों में ,

कुचली जाती हैं

तानाशाही बूटों के तले।

 किसी संभावना को जन्म देती आँच

एक विस्फोट बन कर

अपने ही ध्येय को जला देती है ,

या अवसाद की गहराती परतों में

राख बन कर जम जाती है।

एक विश्वास

जो संबल बन कर उगता है-

नाइंसाफ़ी, निराशा और अविश्वास के रेगिस्तान में,

किसी फुलवारी का सुगंधभरा अहसास लेकर...

दोपहर की तेज धूप से

मुर्झा जाता है ।

साहस और संकल्पों के

ऊँचे पर्वतों से उद्गामित

छोटा सा एक झरना,

 जिसे बदलना था

समय की प्रदूषित धाराओं को ,

थोड़ी ही दूर जाकर

नालों में बदल जाता है ।

एक सूरज, जो अपनी प्रखरता से

बदल सकता था

ऋतुओं की परिभाषाएं ....

उदय होते ही,

संशय और उपहास के बादलों से ढंक कर

निष्प्रभ: हो जाता है।

 ऐसा क्यों होता है कि हर बार

सपनें झुठला जाते हैं,

संकल्प, मजाक में बादल जाते हैं

और उम्मीदें

नागफणियों का रूप ले कर

डँसने लगती हैं ?

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...