कविता की सृजनात्मकता
भाग-1
संसार में ऐसा कुछ नहीं है जो काव्य का विषय न हो सके। अपनी सारी भव्यता और विद्रूपता के साथ यह दुनिया काव्य की परिधि में समायी हुई है। कवि किसी भी चीज पर कविता लिखने के लिए स्वतंत्र है। यहां तक कि उस पर प्रकृति के नियम भी लागू नहीं होते। वह नदी को नाव में डुबोने का सामर्थ्य रखता है- 'नाव बिच नदिया डूबी जाय।' वह मेंढक की टर्र-टर्र और ब्रह्मचारियों के वेद पाठ में भी साम्य ढूंढ़ लेता है। और उसके जरिये किसी विडम्बना को संकेतित कर जाता है। कवि एक दूसरी दुनिया का सिरजनहार है। जो सर्वथा उसकी अपनी दुनिया होते हुए भी उसकी अपनी नहीं होती।
कवि संसार के मौजूदा रूपों पर अपनी
रुचियों, संस्कारों, सोच और समझ को आरोपित
करता है। दुनिया वैसी नहीं है, जैसी कविता में दिखाई जाती
है। नीलम की घाटियाँ आज तक किसने देखी है? कीचड़ किस
रासायनिक प्रक्रिया से हरिचंदन बनता है? जब परमाणु ही
सामान्यतः दिखाई नहीं पड़ता तो उसका पराग शायद ही किसी ने देखा हो। परमाणु में
पराग प्रकृति की कौनसी लीला है? पहाड़ों को किसने रोते हुए
देखा है? और किसी ने देखा हो या नहीं पर कवियों ने पहाड़ों
को जरूर रोते देखा है। मेघ गर्जन होते ही कवि को कीचड़ हरिचंदन में परिणत होता नजर
आने लगता है। उसकी दृष्टि परमाणुओं के पराग को भी देख लेती है।
यही तो कवि का अपना संसार है। जो
वास्तविक संसार से एकदम अनूठा, भव्य, मोहक, रमणीय और जादुई है। कवि भी एक तरह का जादूगर
है। लेकिन जादू और कविता में बहुत फर्क है। जादू सिर्फ विभ्रम और सम्मोहन पर टिका
होता है। जबकि कविता का सम्मोहन यथार्थ की पुनर्रचना से पैदा होता है। कवि अपनी
कल्पना से असंभव को भी संभव कर दिखाता है। कवि की सृष्टि स्वयं उसकी कल्पना या
प्रतिभा के अतिरिक्त अन्य किसी के अधीन नहीं होती-'नियतिकृत
नियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्य परतंत्राम्।'
कवि अपनी कविता में जगत् के मनमाने
रूप को प्रस्तुत करता है। यह जगत् उसे जिस रूप में रुचिकर लगता है, उसी में वह उसे ढाल देता है। सिर्फ कविता ही नहीं
प्रत्येक रचना वस्तुगत यथार्थ की आत्मगत संरचना होती है। कवि वस्तु जगत् में जो
कुछ देखता और अनुभव करता है, उसे अपनी कल्पना से यादृच्छिक
रूप प्रदान करता है। इसी अर्थ में उसकी सृष्टि निजी होते हुए भी निजेतर होती है।
गौतम बुद्ध ने चित्र को चित्त का ही चिन्तन कहा है- 'चित्तम्
चित्तेनेव चिन्तति ।' प्रश्न यह है कि कवि यह सब करता कैसे
है? और जगत् के मौजूदा रूपों में हेर फेर वह सिर्फ चमत्कृत
करने के लिए करता है या उसका और कोई उद्देश्य होता है?
शुक्ल यजुर्वेद में कहा गया है- 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः।' यहां
पर 'परिभू' और 'स्वयंभू'
ये दोनों शब्द द्वन्द्वात्मकता के द्योतक हैं। 'परिभू' यानी अपने चारों ओर जो कुछ व्याप्त है उससे
कवि अपने को सामान्यजन की भांति संलिप्त करता है। दूसरे शब्दों में सबसे पहले वह
स्वयं को वस्तुगत यथार्थ का हिस्सा बनाता है। तत्पश्चात् उसमें से स्वयं को बाहर
निकालता है। यह 'स्वयंभू की स्थिति है। 'स्वयंभू वाला रूप ही उसका असली कवि रूप होता है। सृजन की प्रक्रिया इसी
अर्थ में द्वन्द्वात्मक कही गई है। वह जितनी वस्तुगत होती है उतनी ही आत्मगत।
सृजन के दौरान कवि को वस्तुगत
यथार्थ में बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ता है। उसके विद्यमान रूपों में काट-छाँट
करनी होती है। उसमें परिवर्तन-परिवर्धन करना पड़ता है। यह सब उसकी सृजन प्रक्रिया
का हिस्सा है। काट-छाँट कर कवि अनगढ़ यथार्थ को इतना भव्य बना देता है कि हम उस पर
मुग्ध हो उठते हैं। कवि की मनमानी दुनिया को अपनी दुनिया मान बैठते हैं। यही कवि
कर्म की सार्थकता है। कवि की वाणी की इसीलिए जय-जयकार की गई है - 'भारती कवेर्जयति।' उसे ब्रह्म,
ईश्वर, प्रजापति, मनीषि,
स्वयंभू और न जाने क्या-क्या कहा गया है।
ऐसा माना गया है कि कवि अपनी कल्पित
सृष्टि को वास्तविक सृष्टि पर आरोपित करके आत्मसुख प्राप्त करता है। लेकिन यह
अर्धसत्य है। इसके अतिरिक्त वह जीवन और जगत् के प्रति अपने महास्वप्न (विजन) को
प्रस्तुत करता है। जो है उससे बेहतर का विकल्प देता है। वाल्मीकि के राम एक
वैकल्पिक मानव चरित्र हैं। राम जैसा धीर-गंभीर, धर्मज्ञ,
नीतिज्ञ, दृढ़प्रतिज्ञ, पराक्रमी
और मर्यादित आचरण वाला मनुष्य वाल्मीकि का महास्वप्न था। वह तत्कालीन समाज को एक
आदर्श मनुष्य का विकल्प देना चाहते थे। तुलसी का रामराज्य पूर्णतः मनोराज्य है। एक
यूटोपिया है। लेकिन है विकल्प। जरूरी नहीं है कि विकल्प के तौर पर प्रस्तुत
मनोराज्य की व्यावहारिकता प्रमाणित हो। मनोराज्य में कवि अपने दिक्काल का अतिक्रमण
करता है। विकल्प उसे यह सुविधा उपलब्ध कराता है। अपने संवेगों, अनुभूतियों, विचारों और सपनों को विकल्प के साँचे
में ढाल कर वह उन्हें देश-काल की परिधि से बाहर ले जाता है। जो न तो अतियथार्थवादी
होकर किया जा सकता है। और न जादुई यथार्थवाद के जरिये ।
देखने की बात यह है कि कवि अपनी
कविता में यथार्थ का घेरा कहाँ-कहाँ तोड़ता है। वे कौनसे जीवन संदर्भ है, जहाँ वह ऐसा कर पाता है। जैसे संत कवियों ने कर्मकाण्ड,
अंध-विश्वास, जातिप्रथा आदि का तो विरोध किया!
पर जीवन की अध्यात्मवादी व्याख्या को वे नहीं नकार पाये।
निरंतर...
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