मोकों कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में
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सातवीं-आठवीं
कक्षा में ही महापंडित राहुल सांकृत्यायन के प्रसिद्ध लेख धर्म की क्षय,जात-पांत की क्षय और ईश्वर की क्षय पढ़ चुका था।
यशपाल के साहित्य में भी धर्म और ईश्वर पर खूब कटाक्ष किया गया है। भगतसिंह का
प्रसिद्ध लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' भी
उसी दौरान पढ़ा।
आज १२ जनवरी
को ही स्वामी विवेकानंद के अनेक उद्धरण सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं। उनमें से एक
प्रस्तुत कर रहा हूं--मैं ऐसे भगवान में विश्वास नहीं करता जो जिन्दा रहते हुए तो
मुझे रोटी नहीं दे सकता लेकिन मरने के बाद स्वर्ग देगा।
मैंने अपने
एक संस्मरण में दशरथ पुत्र राम को भगवान मानने से इंकार किया था। विवेकानंद तो
भगवान के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं।
ईश्वर के
बारे में संक्षेप में कुछ चर्चा कर लेते हैं। हमारी सबसे प्राचीन सभ्यता वैदिक काल
है। उसमे प्रकृति को ही ईश्वर माना गया है। जैसे सूर्य, प्रथ्वी,आकाश, वायु,जल, अग्नि आदि। जाहिर है
इनके बिना जीवन ही संभव नहीं है। इनके लिए किसी मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता भी
नहीं थी।
मैंने अपने
बचपन में बुजुर्गो को सुबह उठते ही धरती को नमन करते देखा है।उदय होते सूरज को हाथ
जोड़ते देखा है। जिस माटी के चुल्हे पर रोटियां सेंकी जाती, उस चुल्हे पर हम बच्चे पैर रख देते तो डांट पड़ती
थी।इसे पाप समझा जाता। अग्नि के पैर लगाना पाप था।कुएं या जोहड़ में नहाने की
मनाही थी।जेठ-आसाढ में पहली बारिश होती और किसान खेत में हल जोतते तो वे प्रकृति
से ही अरदास करते। इस प्रार्थना में अपने परिवार के साथ ही मेहमानों, संतों, भिखारियों, सभी जीवों
के लिए अन्न देने की याचना की जाती। मैंने कभी भी किसी देवता या भगवान का नाम लेते
नहीं सुना।उन दिनों घर के चुल्हे की आग का बुझना अपशकुन माना जाता।
वैदिक काल
में इन्द्र को राजा माना जाता था। वर्षा गीत गाते हुए मैंने महिलाओं को सुना
जिसमें भी इन्द्र का उल्लेख होता था। यह अलग बात है कि वैदिक काल के बाद पौराणिक
काल में इन्द्र को देवताओं का राजा माना गया।साथ ही उसे लफंगा भी दिखाया गया।
बचपन में
स्कूल में पढ़ते समय जन्माष्टमी की छुट्टी अवश्य होती थी लेकिन गांव में केसरिया
जी की नोक दी जाती थी। दूसरे दिन नवमी को गोगाजी की धोक के लिए खीर और गुलगुले
बनाए जाते। घरवालों को इस बात का आश्चर्य था कि केसरिया जी की छुट्टी होती है जबकि
गोगाजी की नहीं होती।ये सब लोक देवता हैं।
इसी तरह
रामनवमी की छुट्टी होती थी किन्तु गांव में इसे त्योहार के रूप में नहीं मनाया
जाता। जिनकी कुलदेवी काली माता,राय माता या जीण
माता होती,उनकी धोक नवमी को लगाई जाती।लोक देवता की धोक के
लिए खीर-चूरमा या खीर लापसी बनाई जाती।
इसी तरह
दशहरे की छुट्टी होती तो घरवालों को आश्चर्य होता कि यह कोई त्योहार नहीं है, फिर भी छुट्टी होती है।(क्रमशः)
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