उम्मीद
कि
दुनिया को बहुत ज़रूरत है
तुम्हारी
सी हंसी की
तुम्हारी
सी छुवन की
तुम्हारी
सी नमी की
बरसते
बमों की डरावनी आवाज़
और
पसरती हिंसा के बीच
ये जो
सिमटी हो तुम ख़ुद में
तो
सुनो
तुम्हारे
आंसुओं से अंकुराएगी फिर ये धरती
मची
भगदड़ के बीच एक फूल के लिए हुलसती
तुम्हारी
गोद में ये जो बच्ची है
अंततः
बचाएगी वही
उम्मीदों
के प्राण।
छूमंतर-
पहेली
था शहर हमारे लिए
जिसे
हम डरते थे सुलझाने से
हिचकते
थे उलझने से
कतराते
थे इसे हाथ लगाने से
दिल
लगाना तो दूर की बात थी
पर
जवाब में बोलते थे उसी की भाषा
कई बार
हम हंसी थे तो कई बार ज़िल्लत
गंवार
तो थे ही हम
पर
बुरा तब लगता था जब कुछ भी नहीं होते थे
इंसान
भी नहीं
घड़ी
में बजे नौ से नौ के बीच वाले समय में
रगड़ता
था हमें
और
बदले में देता था गुजारे भर रूपया
अंजुरी
भर नींद
मुठ्ठी
भर सपना
चुटकी
भर उम्मीद
और रात
के अंधेरे बराबर याद
समुद्र
भर पसीना
आकाश
भर अपना मन अनमना
हमारी
हथेलियों से फूटती थी उसकी सारी जगमग
हमारी
आंखों में दिखती थी उसकी पूरी निस्सारता
और एक
दिन हो जाते थे छूमंतर
या तो
शहर के बाहर
या फिर
शहर के भीतर।
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