शनिवार, 20 जनवरी 2024

1-उम्मीद 2- छूमंतर आलोक कुमार मिश्रा


 

 उम्मीद

तुमसे मिलकर जाना ये मैंने 

कि दुनिया को बहुत ज़रूरत है 

तुम्हारी सी हंसी की

तुम्हारी सी छुवन की

तुम्हारी सी नमी की

नथुनों में घुलते बारूदी गंध

बरसते बमों की डरावनी आवाज़

और पसरती हिंसा के बीच

ये जो सिमटी हो तुम ख़ुद में

तो सुनो

 एक दिन

तुम्हारे आंसुओं से अंकुराएगी फिर ये धरती

मची भगदड़ के बीच एक फूल के लिए हुलसती

तुम्हारी गोद में ये जो बच्ची है

अंततः बचाएगी वही 

उम्मीदों के प्राण।



 छूमंतर-


हम गावों से आए हुए लोग थे

पहेली था शहर हमारे लिए

एक ऐसी पहेली 

जिसे हम डरते थे सुलझाने से

हिचकते थे उलझने से

कतराते थे इसे हाथ लगाने से

दिल लगाना तो दूर की बात थी

 शहर में हम फुसफुसाते थे अपनी भाषा में

पर जवाब में बोलते थे उसी की भाषा

कई बार हम हंसी थे तो कई बार ज़िल्लत

गंवार तो थे ही हम

पर बुरा तब लगता था जब कुछ भी नहीं होते थे

इंसान भी नहीं

शहर क्रूर था हमारे लिए

घड़ी में बजे नौ से नौ के बीच वाले समय में

रगड़ता था हमें 

और बदले में देता था गुजारे भर रूपया

अंजुरी भर नींद

मुठ्ठी भर सपना

चुटकी भर उम्मीद

और रात के अंधेरे बराबर याद

बदले में हम शहर को देते थे

समुद्र भर पसीना

आकाश भर अपना मन अनमना

हमारी हथेलियों से फूटती थी उसकी सारी जगमग 

हमारी आंखों में दिखती थी उसकी पूरी निस्सारता

शहर से मिला सब कुछ बटोरते थे हम अपने खीसे में

और एक दिन हो जाते थे छूमंतर

या तो शहर के बाहर

या फिर शहर के भीतर।

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...