सोमवार, 22 जनवरी 2024

औरतें- पल्लवी मुखर्जी


 

औरतें

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औरतें

जो हो गई हैं संसार से विरक्त

दुख की आत्यंतिकता की वजह से

भटक रही हैं इधर-उधर

अपने नन्हे बच्चों को

छाती से चिपकाए

बच्चों की देह

उधड़ चुकी है बमों के हमलों से

और फैल गई है गंध

कच्चे माँस की चारों ओर

बेसुध बच्चों को

किसी तरह थामे

तलाश रही हैं औरतें

बच्चों के पिता को

मलबे के हज़ारों ठीहों में

बचा लेना चाहती हैं औरतें

अपने भीतर के

दम तोड़ रहे विश्वास

और आशा को

धरती की हरियाली

और घरौंदों को

कर रही हैं औरतें

अपनी आवाज़ बुलंद

दुख के सागर में डूबे

प्रेम के टापू पर

मज़बूती से अपने पाँव टिकाकर ....

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...