डॉ.मनु शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक
टोंक (राजस्थान)
वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक
टोंक (राजस्थान)
कविता में अभिव्यक्ति की तलाश
लुहार जब लोहे को आग में तपाना शुरू करता है तभी से यह सोचना शुरू
कर देता है कि उसे कुल्हाड़ी बनानी है या संडासी। कुल्हाड़ी में बेंटा लगाने की
जगह को गोल बनाना है या चौकोर । कुल्हाड़ी के निचले हिस्से में कोई कोण देना है या
उसे सपाट रखना है। लोहा गर्ग होने तक यह विचार प्रक्रिया उसके मानसिक स्तर पर
बराबर चलती रहती है और गर्म हो जाने के बाद वह लोहे को घन, एरन, हथोड़े और संडासी के
माध्यम से एक निश्चित आकार में ढाल देता है। कवि भी ऐसा ही करता है। जीवन और जगत्
से प्राप्त अनुभवों को वह मानसिक स्तर पर फिर से जीता है। उन्हें नये सिरे से रचता
है। अपने अनुभवों की पुनर्रचना कर लेने के बाद वह उन्हें भाषा के माध्यम से व्यक्त
करता है। वस्तुतः अनुभवों की पुनर्रचना के दौरान उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप तय हो
जाता है। कहां कल्पना का विस्तार दिखाना है, कहां कौनसे भाव
को तीव्र और सघन बनाना है, किस संवेदना के लिए कौनसा बिम्ब
अर्थवान होगा। यह सब वह मानसिक स्तर पर पहले से तय कर लेता है फिर भी यह प्रक्रिया
तब तक जारी रहती है जब तक प्राप्त अनुभव की वह सार्थक अभिव्यक्ति नहीं कर देता।
एक कवि के लिए अपनी अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति को अलग-अलग कर पाना
बड़ा मुश्किल है। इन दोनों के मेल से ही कविता एक संश्लिष्ट इकाई बनती है। कविता
में अनुभूति और अभिव्यक्ति की स्थिति ऐसी ही है 'कनक मांहि आभरण लौह में जैसे शस्तर । आभूषण सोने का और शस्त्र लोहे का एक
रूप विशेष है। आभूषण को सोने से और शस्त्र को लोहे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
इसी तरह कविता में भी क्या कहा गया है और कैसे कहा गया है, इन
दोनों पक्षों के तंतु एक-दूसरे में इतने उलझे रहते हैं कि सतही तौर पर कोई
निष्कर्ष निकाल लेना ठीक नहीं है।
कविता में कवि ने अपने इन्द्रिय बोध, भावों और विचारों को किन-किन रूपों में प्रकट किया है, इसे जान लेना ही अभिव्यक्ति की खोज है।
'शोकः श्लोकत्वमागतः' के
सन्दर्भ से तो सभी परिचित है। क्रोंच पक्षी के वध से उत्पन्न शोक की तीव्र अनुभूति
एक श्लोक के रूप में व्यक्त हुई। देखा जाय तो महर्षि वाल्मीकि ने 'मा निषाद श्लोक में वस्तुस्थिति का वर्णन मात्र किया है। वहां न कोई
सादृश्य है, न सम्मूर्तन और न प्रतीक। भाषा भी सीधी-सादी और
अकृत्रिम है। फिर भी शोक की ऐसी सशक्त अभिव्यक्त्ति विश्व साहित्य में ढूंढने पर
शायद ही मिले। इसका एक मात्र कारण है अनुभूति की मार्मिकता। उसकी तीव्रता ने
वस्तुगत यथार्थ को गौण कर दिया है। एक तरह से अनुभूति की तीव्रता और मार्मिकता ही
इस श्लोक में पुनर्रचना का विकल्प हो गई है। दूसरे शब्दों में अनुभूति ने कल्पना
को किंकर्त्तव्य- विमूढ़ कर दिया। उसके उठान को एक धक्के से रोक दिया है। इससे
स्पष्ट है कि मार्मिक अनुभूतियों के क्षणों में किया जाने वाला वस्तु वर्णन भी अत्यन्त
प्रभावकारी हो जाता है। ऐसी अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए कवि को किसी चमकदार
भाषा का मोहताज नहीं होना पड़ता। यह भी देखा गया है कि कलात्मक अभिव्यक्ति के
चक्कर में कई बार कवि अनुभूति की सहजता को चौपट कर देते है।
यह कहना कि अनुभूति खुद अभिव्यक्ति का स्वरूप तय कर लेती है, आंशिक सत्य है। अभिव्यक्ति भी निरन्तर अनुभूति को
प्रभावित करती चलती है। कभी-कभी तो अभिव्यक्ति अनुभूति की दिशा ही बदल देती है।
कवि कहना कुछ चाहता है और कह कुछ और जाता है। मिल्टन का 'पैराडाइज
लास्ट' इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। मिल्टन ने पाप और पुण्य
के जिस संघर्ष के जरिये ईश्वरीय न्याय को दिखाना चाहा वह उनके आत्मसंघर्ष में
परिणत हो गया है। मुक्तिबोध की फंतासी उनकी संवेदनाओं को निरन्तर अपनी गिरफ्त में
रखती है।
दरअसल अनुभूति और अभिव्यक्ति एक-दूसरे की पूरक है। जहां अभिव्यक्ति
का माध्यम भाषा अनुभूति में काट-छाँट करती है, वहीं
अनुभूति भाषा को नयी अर्थवत्ता देती है। जब कभी कवि किसी खण्डित अनुभूति को रचना
का आधार बनाता है, तब अभिव्यक्ति ही उसे पूर्ण करती है। इसका
कारण यह है कि भाषा एक सामाजिक माध्यम है। वह समाज के समस्त जीवन अनुभवों से
संवलित रहती है। कवि अपनी खण्डित अनुभूति को जब उन जीवन अनुभवों के समानान्तर रखता
है, तो उसका परिप्रेक्ष्य स्वतः विकसित होता चला जाता है।
यों कह सकते हैं कि शब्दों के अर्थ में निहित सामाजिक सत्य से संयुक्त होकर कवि का
खण्डित अनुभूत सत्य पूर्ण हो जाता है। कई बार कवि को यह लगता है कि वह जो कुछ कहना
चाहता है, उसे कह नहीं पा रहा है। तीव्र से तीव्रतर होती
अपनी अनुभूतियों को वह शब्दों में बांध पाने में असमर्थ हो जाता है। उसकी
अनुभूतियां जितनी गतिशील होती हैं, उसके मुकाबले में भाषा
उतनी ही ठस साबित होती है। परिणामतः उसे अपनी बात इतनी घुमा-फिरा कर कहनी पड़ती है
कि अनुभूति का काम्य रूप ही नष्ट हो जाता है। दरअसल अभिव्यक्ति और माध्यम के बीच
भी द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है। माध्यम की सीमायें जहां अभिव्यक्ति पर दबाव बनाये
रखती हैं, वहीं अभिव्यक्ति माध्यम को विकसित करती है। उसकी
सृजनात्मक संभावनाओं को उद्घाटित करती है।
कविता ही नहीं किसी भी कलाकृति में माध्यम के जरिये अभिव्यक्त होने
वाले भाव, विचार और संवेदन ही हमारे लिए महत्वपूर्ण होते
हैं। माध्यम के उपयोग से पहले कवि ने अपनी संवेदनाओं आदि को कौनसा रूप दिया था और
माध्यम के जरिये ये कौनसा रूप पा गये है, इसे जानने का हमारे
पास कोई आधार नहीं होता। वह कवि का व्यक्तिगत मामला है। और यह व्यक्तिगत मामला तभी
तक रहता है जब तक कवि अपने भीतरी संसार को बाहर नहीं ला देता है। भाषा के द्वारा
उसे मूर्त रूप नहीं दे देता है। बाह्यकृत हो जाने के बाद उस भीतरी दुनिया के मूल
रूप का कोई महत्त्व नहीं रहता और मैं समझता हूँ कवि स्वयं भी उस रूप को लेकर किसी
तरह के तनाव में नहीं जीता। कवि का सारा सृजनात्मक तनाव अनुभूतियों आदि को एक
ऐन्द्रिक माध्यम में प्रस्तुत करने तक रहता है। अभिव्यक्ति उसे सृजनात्मक तनाव से
मुक्ति दिलाती है।
अभिव्यक्ति का उत्कर्ष कवि की रचना प्रक्रिया और रचना के बीच देखा
जा सकता है। इन दोनों छोरों के मध्य वस्तु की सत्ता बराबर बनी रहती है। यानी उस
वस्तु को प्रस्तुत करने का तरीका ही अभिव्यक्ति का ठाठ है। एक सहृदय के लिए
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि का अनुभव विश्वसनीय और प्रामाणिक है या नहीं।
महत्त्वपूर्ण यह है कि उस अनुभव की अभिव्यक्ति विश्वसनीय है या नहीं। कुशल
अभिव्यक्ति के अभाव में विश्वसनीय अनुभव भी कोई खास असर पैदा नहीं कर पाते। जबकि
कई बार अविश्वसनीय से लगने वाले अनुभव माध्यम के उचित इस्तेमाल और सार्थक अभिव्यक्ति
से सहृदय को बांध लेते हैं।
कविता में अभिव्यक्त वस्तु का सम्बन्ध कवि से और अभिव्यंजित वस्तु
का सम्बन्ध सहृदय से होता है। अपनी कल्पना से कवि वस्तु के विभिन्न रूप तैयार करता
है। उनमें एकसूत्रता कायम करके उन्हें एक व्यवस्था देता है। वस्तु के अभिव्यक्त
रूपों से क्या प्रकट हो रहा है, यह पाठक का विषय क्षेत्र है। कवि भावों आदि को अपने अनुभव का
हिस्सा एक ढंग से बनाता है और उनकी अभिव्यक्ति दूसरे ढंग से करता है। कवि खुद जो
जीवन जीता है, वह तो उसके अनुभव का हिस्सा होता
ही है। दूसरों के द्वारा जिए गये जीवन को भी वह अपने अनुभव का हिस्सा बनाता है।
दुष्यन्त का जीवन स्वयं कालिदास का जीवन नहीं है और न ही राम का जीवन तुलसीदास का
जीवन है। परम्परागत ज्ञान के सहारे कालिदास और तुलसीदास ने इन चरित्रों के जीवन को
अपने अनुभव का अंग बनाया है और उसे आधार बना कर काव्यकृतियों की रचना की है। यहां
यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कवि की अभिव्यक्ति उसके अनुभव का यथातथ्य
प्रतिबिम्ब नहीं होती है। कवि अपने मन्तव्य के हिसाब से अनुभवों में बराबर कुछ
घटाता-बढ़ाता रहता है। वह कभी-कभी उन पर अपनी कल्पना का ऐसा रंग चढ़ाता है कि उनके
वास्तविक रूपों की खोज मुश्किल हो जाती है। कवि के अनुभवों की कलात्मक अभिव्यक्ति
ही उसकी पहचान का एक मात्र रास्ता है। इस रास्ते को छोड़ देने पर हम कवि और कविता
के बारे में संगत निष्कर्षों तक नहीं पहुँच सकते।
कलात्मक होने के अलावा अभिव्यक्ति में एक गुण और होना चाहिए। जिसकी
ओर संकेत करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है –
कीरति भनिति, भूति मली सोई।
सुरसरि सम हित सब कह होई।।
कवि की 'भनिति' यानी अभिव्यक्ति का ढंग ऐसा हो, जिससे लोक कल्याण का
मार्ग प्रशस्त हो सके। जो सबके लिए हितकर हो। प्रश्न यह है कि हितकर अभिव्यक्ति
कैसी होती है? मैं समझता हूँ जीवन के विशद् अनुभवों को
मानवीय संवेदनाओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत करना ही हितकर अभिव्यक्ति हो सकती है।
कवि यदि कोरी वाग्मिता दिखाने में ही प्रवृत्त रहता है और पाठक में कोई भाव नहीं
जगाता तो उसकी अभिव्यक्ति हितकर नहीं कही जा सकी। संवेदनाओं समृद्ध अनुभव कोरे
ज्ञान का विषय नहीं रह जाते हैं। काव्य को इसीलिए हमारे पुराने आचार्यों ने ''कान्ता सम्य उपदेश'' की श्रेणी में रखा है। प्रिया
की कही हुई बात जैसे सीधे मन पर छा जाती है. ऐसे ही संवेदनाओं में ढला हुआ जीवन
अनुभव भी हमारे मन को छूता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो चीज मन पर छा जाती है,
उसका असर लम्बे समय तक रहता है और यह मनुष्य के स्वभाव एवं आचरण को
संशोधित करती है।
अभिव्यक्ति पर विचार करते समय दो बातों पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। पहली है रूप और दूसरी है शैली। जिसे हम रूप पक्ष कहते हैं वह अभिव्यक्ति का प्रारम्भिक चरण है। रूप का सम्बन्ध वस्तु जगत की पुनर्रचना से है। कवि अपनी कल्पना और यथार्थ में कितना संतुलन रखता है। यथार्थ के समान प्रकृति वाले तत्वों में कहां तक समानता दिखाता है और विपरीत प्रकृति के तत्त्वों में वैषम्य की सृष्टि कितनी करता है। विभिन्न इन्द्रिय बोधों में से वह सर्वाधिक बल किस इन्द्रिय बोध पर देता है। किन-किन इन्द्रिय बोधों का आपस में संक्रमण दिखाता है। भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए किस तरह के प्रतीक चुनता है और उनके अर्थ सन्दर्भों का विकास कैसे करता है। इन सबका अध्ययन अभिव्यक्ति की खोज का विषय है। दूसरी चीज है शैली। शैली से कवि की कल्पना की प्रसार विधि का पता चलता है। कल्पना की प्रसार विधि ही कविता के स्थापत्य को निर्धारित करती है।
कुछ लोगों का मत है कि कविता शब्दों से लिखी जाती है और बकौल डॉ. नामवर सिंह वह निरर्थक होती है। शब्दों से कविता के लिखे जाने की बात कहने वालों की जड़ें क्रोचे के अभिव्यंजनावाद में है और अभिव्यंजनावाद ब्रेडले के 'कला, कला के लिए' सिद्धान्त से निकला है। कविता को शब्दों तक सीमित कर देने वाले लोग पूरी तरह से माध्यम पर निर्भर दिखाई पड़ते है। कोरा चाक घुमाकर कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता और न ही अच्छे से अच्छा बढ़ई मात्र बसूले से कोई कुर्सी बना सकता है। घड़ा बनाने के लिए कुम्हार को चाक पर मिट्टी चढ़ानी पड़ेगी और बढ़ई लकड़ी को बसूले से छील-छाल कर ही कुर्सी बना पायेगा। कवि की गांठ में जब तक भाव, विचार और संवेदन की पूंजी नहीं होगी, वह खाली शब्दों से कविता नहीं लिख सकता।
चाक को कुम्हार की और बसूले को बढ़ई की अभिव्यक्ति कोई नहीं कहेगा।
शब्द कवि की अभिव्यक्ति नहीं है। सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है। कविता में भाषा
का अध्ययन अभिव्यक्ति के माध्यम के तौर पर ही होना चाहिए। देखना यह चाहिए कि
अभिव्यक्ति के लिए कवि ने माध्यम का कितना सही इस्तेमाल किया है। कवि के शब्द चयन, शब्द प्रयोग, शब्द निर्माण,
पद रचना, वाक्य रचना और ध्वनि संयोजन पर विचार
करके ही यह बताया जा सकता है कि माध्यम का सही उपयोग हुआ है या नहीं।
अभिव्यक्ति का मूल स्रोत कवि की कल्पना है। यही उसकी रचना शक्ति है। कल्पना के जरिये ही कवि वस्तु जगत की मानसिक पुनर्रचना करता है। अपने इन्द्रिय बोध, भाव बोध और विचारों में संगति बिठाता है। उन्हें एक निश्चित आकार देता है। कविता में रहने वाले सादृश्य, सम्मूर्तन और प्रतीक उन आकारों की ही अभिव्यक्ति होते हैं। सादृश्य, सम्मूर्तन और प्रतीक कवि की अभिव्यक्ति के घटक हैं। इन्हीं के अध्ययन से हम जान सकते हैं कि अभिव्यक्ति सार्थक है या नहीं। ये घटक अभिव्यक्ति ही नहीं अनुभूति के स्वरूप को भी उद्घाटित करते हैं। वस्तुतः कविता का सारा सौन्दर्य इन्हीं में निहित होता है। मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि किसी रचना में यथार्थ का वर्णन पर्याप्त नहीं होता। महत्वपूर्ण यह है कि यथार्थ की पुनर्रचना कैसे की गई है। आपको ऐसी कई रचनाएँ मिल जायेगी जिनमें यथार्थ का चित्रण इस ढंग से किया गया है कि वह अस्वाभाविक और बनावटी हो गया है। समर्थ भाषा होने के बावजूद भी ऐसी कविताओं की अभिव्यक्ति को उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
कविता में सम्प्रेषणीयता का प्रश्न भी अभिव्यक्ति से जुड़ा है।
सम्प्रेषणीयता पर विचार करते ही हमारा ध्यान कवि और कविता के अतिरिक्त सीधा पाठक
पर जाता है। कविता में कवि जो कुछ कह रहा है, उसे
पाठक ग्रहण कर रहा है या नहीं। यदि कविता को पाठक ग्रहण नहीं कर रहा है; तो उसका एक कारण भावों आदि के प्रस्तुतीकरण का ढंग है और दूसरा भाषा का
आलंकारिक होना है। भाव और अनुभूतियाँ तो सभी मनुष्यों में मिलती हैं। इसलिए यह
नहीं माना जा सकता कि पाठक कवि की अनुभूतियों से सर्वथा अपरिचित होता हो। इसका
मतलब यह है कि कवि की अभिव्यक्ति में कोई ऐसा पेच है जो कविता को ग्रहण करने में
आड़े आ रहा है। या फिर कवि इतना वाग्छल कर रहा है कि अनुभूति का बारीक रेशा रह
रहकर झटके खाने लगता है। कुशल अभिव्यक्ति वही है जो पाठक को कवि की भाव भूमि पर
सहजता से पहुँचा देती है।
अतः कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति कवि की रचना प्रक्रिया का
महत्वपूर्ण सोपान है। अभिव्यक्ति का उत्कर्ष कवि की अनुभूति के स्वरूप और माध्यम
के उचित प्रयोग पर निर्भर करता है। प्रतिभाशाली कवि उस चीज का चित्रण करता है जो
संभावना युक्त है। यानी जो विश्वास करने लायक है। अविश्वसनीय चीजों का चित्रण कवि
की विश्वसनीयता को आघात पहुँचाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें