गुप्तकाल प्राचीन भारतीय
संस्कृति की श्रेष्ठता प्रमाणित चीन के बौद्ध विश्वमृद्धि, शान्ति, भावियान द्वारा
वर्णित सं सीम्राज्य की सुख समृद्धि, शान्ति भीषण अपराधों की
कमी तथा सादयालुता प्रमाणित होती है। इन दिनों में भारतीय संस्कृति की उन्नति स्तर
पर थी जो बाद में उसे कभी प्राप्त नहीं हुई। इस काल में मारत संसार का अधिकतम
समृद्धिशाली और सुसंस्कृत देश था जबकि कमजोर रोमन साम्राज्य अपने पतन के नजदीक था।
गुप्तकालीन बौद्ध कला का
सर्वश्रेष्ठ नमूना है अजंता की चित्रावली। यद्यपि इस चित्रावली में ईसा की पहली
सदी से लेकर सातवीं सदी के चित्र शामिल हैं, तथापि अधिकतर गुप्तकालीन ही है। ये चित्र वास्तविक जैसे सजीव और सहज लगते
हैं। आश्चर्य यह है कि चौदह सौ साल के बाद भी उनके रंगों की चमक में कोई अंतर नहीं
आया है। गुप्तकाल लौकिक साहित्य की सर्जना के लिए स्मरणीय है। भास के तेरह नाटक
इसी काल के हैं। शूद्रक का लिखा नाटक मृच्छकटिक प्राचीन नाटकों में सर्वोत्कृष्ट
माना जाता है। परन्तु जिस कृति को लेकर गुप्तकाल का सबसे ऊँचा नाम है वह है
कालिदास की कृति अभिज्ञानशाकुंतलम। इसका स्थान विश्व की एक सौ उत्कृष्टतम
साहित्यिक कृतियों में है। अभिज्ञानशाकुंतलम प्रथम भारतीय रचना है जिसका
अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ। ऐसी दूसरी रचना है श्रीमद्भगवद्गीता। इस काल में धार्मिक साहित्य की रचना की भी
भारी प्रगति हुई है। गुप्तकाल की अधिकाँश रचनाओं में प्रबल धार्मिक रूझान है। दो
महान गाथाकाव्य रामायण और महाभारत ईसा की चौथी सदी में आकर लगभग पूरे हो चुके थे।
भगवद्गीता महाभारत का महत्वपूर्ण अंश है।
पुराण उपर्युक्त दोनों
महाकाव्यों के ढर्रे पर ही लिखे गए हैं। इनमें जो अधिक पहले के हैं, उनका अंतिम संकलन-सम्पादन गुप्त काल में हुआ।
गुप्तकाल में पाणिनी और पतंजलि के ग्रंथों के आधार पर संस्कृत व्याकरण का भी विकास
हुआ। यह काल विशेषरूप से स्मरणीय है अमरकोश को लेकर, जिसका
संकलन चन्द्रगुप्त द्वितीय की सभा के नवरत्न अमरसिंह ने किया है। कुल मिलाकर
शास्त्रीय साहित्य के इतिहास में गुप्तकाल एक उज्जवल इतिहास है। यूं तो इस काल में
ब्राह्मण धर्म विषयक साहित्य की बहुतायत है, फिर भी पहली बार
धर्मनिरपेक्ष साहित्य की इसमें बहुत सी रचनाएँ पाई जाती है।
गुप्तकालीन शिल्पकारों ने अपना
चमत्कार लोह और कांस्य कृतियों में दिखाया है। लोह शिल्पकारी का सबसे अच्छा उदाहरण
दिल्ली में स्थित लौहस्तम्भ है। इसका निर्माण ईसा की चौथी सदी में हुआ और तब से
सोलह सौ वर्षों के बीत जाने पर भी इसमें जंग नहीं के बराबर है। यह स्तम्भ
शिल्पकारी के महान तकनीकी कौशल का प्रमाण है। 18
आर्यभट्ट
ने अपनी नई स्थापनाओं को सन 499 में पूरी की गई किताब 'आर्यभटीय' में प्रस्तुत किया है जिस पर विस्तार
से चर्चा उनके परवर्ती ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर और भास्कर
जैसे गणितज्ञों और खगोलशास्त्रियों की रचनाओं के अरबी अनुवाद में भी की गई थी। जिन
मूल और मुख्य स्थापनाओं पर चर्चा हुई उनमे प्रमुख है: 1. आर्यभट्ट द्वारा पृथ्वी
के सूर्य की परिक्रमा करने (जबकि साफ दिखता है की सूरज ही पृथ्वी के चारों ओर
घूमता है) की बात करना, 2. पृथ्वी के घूमते रहने और बाहर न
गिरने के लिए गुरुत्वाकर्षण बल का सिद्धांत देना, 3. पृथ्वी
में कौन 'ऊपर' है और कौन 'नीचे' स्थित है इस बारे में आनुपातिक परिवर्तनशीलता
(पैरामीट्रि वैरिएबिलिटी) के आधार पर मान्यता तय करना, और 4.
चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के बारे में स्थिति को स्पष्ट करना कि
पृथ्वी और सूर्य के बीच चन्द्रमा के आने से सर्यग्रहण और पृथ्वी की छाया पड़ने से
चंद्रग्रहण लगता है। दरअसल, खगोलशास्त्र पर ब्रह्मगुप्त के
अग्रणी संस्कृत शोध प्रबंध का सबसे पहले आठवीं सदी में इब्न इब्राहिम अल-फजारी ने
अरबी में अनुवाद किया था फिर तीन सौ वर्ष बाद, ग्यारहवीं सदी
में अलबेरुनी ने इसका दोबारा अनुवाद किया। नौवीं सदी तक आयुर्वेद, विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी में अनुवाद हो
चुका था। अरबों के माध्यम से ही भारतीय दशमलव प्रणाली और अंक विज्ञान यूरोप पहुंचा
था। इसी तरह गणित विज्ञान और साहित्य की रचनाएं भी आम तौर पर इसी रास्ते यूरोप
पहुंची। 10
"आर्यभट्ट
ने पश्चिम के केप्लर से एक हजार वर्ष पहले ही ग्रहों की अंडाकार कक्षाओं का पता
लगा लिया था। बाद में केप्लर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे (सभी यूरोपियों की तरह
पहले यह मानते हुए कि ग्रहों की अंडाकार कक्षाएँ अंडाकार की बजाय वृताकार थी )
आर्यभट्ट ने वर्ष के कुल दिनों की गणना भी ठीक-ठीक कर ली थी-365 दिन, 6 घण्टे 12 मिनट और 30 सेकेण्ड। वर्तमान गणना के अनुसार एक वर्ष 365 दिन
और 6 घण्टों से थोड़ा कम है। तेरहवीं सदी में आर्यभट्ट के
ग्रन्थ के लैटिन अनुवाद के बाद यूरोपियों ने उनसे बहुत कुछ सीखा। उन्हें यह भी पता
चला कि भारतीयों ने बहुत-सी बातें एक हजार वर्ष पहले ही जान ली थी जिन्हें यूरोप
के वैज्ञानिक अब खोज रहे थे।"
"वैदिक
सभ्यता एक वृताकार पृथ्वी की धारणा में विश्वास करती थी, जबकि
यूनानियों समेत पूरा विश्व पृथ्वी को सपाट मानता था। पाँचवीं सदी तक भारतीयों ने
पृथ्वी की आयु का अनुमान 4.3 अरब वर्ष लगा लिया था, जबकि उन्नीसवीं सदी तक भी अंग्रेज वैज्ञानिक पृथ्वी की आयु 10 करोड़ वर्ष मानकर चल रहे थे। बीसवीं सदी के अंत तक पश्चिमी वैज्ञानिक इस
नतीजे पर पहुँचे चुके थे कि पृथ्वी की आयु 4.6 अरब वर्ष थी।
भारतीयों ने ही ऋणात्मक (नेगेटिव) संख्याओं का आविष्कार किया। छठवीं ईसवी सदी में
जैन विचारक परिमेय (रैशनल) संख्याओं की असीमितता की धारणा के बारे जानते थे। हमारे
पूर्वजों ने ही ज्यामिति (ज्योमेट्री), त्रिकोणमिति
(ट्रिग्नोमेट्री) और गणनागणित (कैलक्युलस) की खोज की। शुरूआती ईसवी सदियों के एक
छाल के 70 पत्तों से बनी दुर्लम पांडुलिपी से पता चलता है कि
उस युग में भी भारतीय अपूर्ण अंकों, समीकरणों, ज्यामिति के साथ-साथ ब्याज के साथ लाभ और घाटे की गणना करने में निपुण
थे।"
500 से 800 ईसवीं सन् में रचित सुलभ सूत्र' से पता चलता है कि
महान वैज्ञानिक पाइथोगोरस के जन्म से बहुत पहले से ही भारत में 'पाइथोगोरस थ्योरम (प्रमेय) का ज्ञान था और भारतीय पाँच दशमलव (डेसिमल)
स्थानों तक का वर्गमूल (स्क्वेयर रुट) निकालना जानते थे "केरल के महान
गणितज्ञ नीलकांत पश्चिमी विश्व से बहुत पहले ही 'पाय'
के मान और महत्व का सटीक वर्णन कर चुके थे। लगभग 500 ईसवी सन् में रचित 'वेदांग ज्योतिष' में लिखा है-समूचे ज्ञान के शिखर पर गणित उसी तरह विद्यमान है जैसे किसी
मयूर की कलंगी या किसी अजगर के मस्तक का नाग। हमारे गणितज्ञ काव्य रचना भी जानते
थे। 20
न्यूटन के सर पर सेव के गिरने
से लगभग चौबीस सदियों पहले ऋग्वेद ने घोषित कर दिया था कि गुरूत्वाकर्षण इस सृष्टि
को थामे हुए है। संस्कृत के विद्वानों ने गणना से जुड़ी उनकी खोजों के बारे में कम
से कम 250 वर्ष पहले ही पता लगा लिया था। खगोल विज्ञान और
गणित के बारे में भारतीय 'सिद्धांत श्रृंखला' विश्व के प्राचीनतम ग्रंथों में शामिल है। लगभग 400 ईसवीं
सन् में रचित 'सूर्यसिद्धांत' में
ग्रहों के अधिरोहणों (चढ़ाव) और ग्रहणों के समय जानने की विधि का वर्णन है। इन
प्राचीन ग्रंथों में गुरूत्वाकर्षण की भी अवधारणा मौजूद है। आधुनिक विज्ञान की
प्राचीन और गैर-पश्चिमी आधारशिलाओं के विस्तृत अध्ययन पर केंद्रित एक सार गर्भित
पुस्तक 'लास्ट डिस्क्वरीज' में अमेरीकन
लेखक डिक टेरेसी ने साफ-साफ लिखा है कि पाइथोगोरस से 200 वर्ष
पहले उत्तर भारत के दार्शनिक यह जान चुके थे कि गुरूत्वाकर्षण ही सौर मंडल को
संभाले हुए है, इसलिए सबसे भारी तत्व सूर्य को ही इसका
केंद्र होना चाहिए। 21
ईसा की पहली शताब्दी से बारहवीं
शताब्दी तक हमारे देश में विज्ञान ने खूब उन्नति की। चरक, सुश्रुत, वाग्मट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कर
व नागार्जुन जैसे महान वैज्ञानिक इसी काल में पैदा हुए। पर बारहवीं शताब्दी के बाद
भारतीय विज्ञान की अवनति का काल शुरू हो गया। आगे के लगभग सात सौ साल के लम्बे
अरसे में हमारे देश में चोटी का वैज्ञानिक पैदा नहीं हुआ, विज्ञान
के किसी मौलिक ग्रन्थ की रचना नहीं हुई। इस काल में अधिकतर टीकाएँ लिखने का काम
होता रहा। बारहवीं शताब्दी तक भारतीय विज्ञान संसार के किसी भी देश के विज्ञान से
पीछे नहीं था, बल्कि दो कदम आगे ही था। संस्कृत भाषा से
विज्ञान के सैंकड़ो ग्रन्थों के अरबी भाषा में अनुवाद हुए। खलीफा अलमंसूर (753-774ई०) के शासनकाल में सिंध से कुछ भारतीय विद्वान बगदाद पहुंचे थे। ये अपने
साथ ज्योतिष, गणित तथा चिकित्सा के संस्कृत ग्रन्थ बगदाद ले
गये थे। वहां अरबी में इनके अनुवाद हुए। इसी काल के ब्रह्मगुप्त के
ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत तथा खण्ड-खाद्य ग्रंथों का अरबी में अनुवाद हुआ। आयुर्वेद के
कुछ ग्रंथों और पंचतंत्र का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। इसी काल में भारतीय
अंकपद्धति का अरब देशों में प्रचार हुआ। अलख्वारिज्मी (825) जैसे
महान अरबी गणितज्ञों ने भारतीय गणित पर ग्रन्थ लिखे। नौवीं दसवीं शताब्दी में
मूरों (अरबों) के माध्यम से अंकपद्धति और गणित का स्पेन और इटली में प्रवेश हुआ।
वहां स्पेन के विद्या केंद्रों में अरबी के सैंकड़ों ग्रंथों के लैटिन भाषा में
अनुवाद हुए। अरबी के माध्यम से संस्कृत और यूनानी ग्रंथों का ज्ञान-विज्ञान जब
यूरोप पहुंचा, तभी वहां बौद्धिक नवजागरण का युग शुरू हुआ। 22
ईसा की आठवीं सदी में सिद्ध नागार्जुन जैसे महायानी बौद्ध ने भारतीय
रसायन के विकास में बड़ा योगदान दिया। नागार्जुन का 'रसरत्नाकर'
भारतीय रसायन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'सुश्रुत-संहिता' के 'उत्तरतंत्र'
की रचना भी नागार्जुन ने ही की थी। नवीं सदी (850 ई.) में 'गणितसार-संग्रह' के
रचनाकार महावीराचार्य जैसे बहुत से जैन आचार्यों ने गणित के विकास में योगदान दिया
है। बारहवीं सदी के महान गणितज्ञ-खगोशास्त्री भास्कराचार्य (जन्म 1114) का खगोलक्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।23 यह
ठीक है कि पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रान्ति और अठारहवीं सदी के
ज्ञानोदय के बाद से अधिकांश वैज्ञानिक प्रगति पश्चिम में ही हुई और इस काल में
भारत समेत पूरा एशिया सोया रहा और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कोई हलचल नहीं हुई
किन्तु इस पश्चिमी वैज्ञानिक प्रगति में निश्चय ही गणित और विज्ञान के क्षेत्रों
में अरबों, चीनियों, भारतीयों और अन्य
लोगों का योगदान अवश्य ही रहा है। संस्कृति और परम्परा की व्याख्या सिर्फ
ज्ञानमीमांसा भर न होकर अनिवार्यतः सामान्य व्यावहरिक तर्क से जुड़ी चीज है। अगर
भारत के भविष्य के हिसाब से उसके विज्ञान और तकनीक की समकालीन प्रगति महत्वपूर्ण
है तो हमें यह साबित करने की कोई बाध्यता नहीं है कि इतिहास में भी भारत विज्ञान
और तकनीक के मामले बहुत आगे था।
गजनवी के भारत में आक्रमण काल
ग्यारहवीं सदी में मध्य एशिया से एक गणितज्ञ और खगोलशास्त्री पर्यटक अलबेरूनी भारत
आया था। उसने 'तारीख-ए-हिन्द' एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में वह लिखता हैं, "यह
बहुत आवश्यक है कि एक देश के निवासी यह जानें और समझें कि अन्य देशों के लोग कैसे
रहते हैं, सोचते हैं।" दुर्व्यवहार, जिसे अलबेरूनी ने महमूद गजनवी के भारत पर बार-बार बर्बरतापूर्ण एवं लूटपाट,
विनाश भरे आक्रमणों को बहुत अच्छी तरह से देखा था, के बारे में कहना है कि, "भारतीय लोग हम लोगों
से अपने रहन-सहन आदि में इतने अलग है कि हमारे परिधान, रहन-सहन
और व्यवहार का हवाला देकर वे अपने बच्चों को डरा सकते हैं, हमें
शैतान की औलाद कह सकते हैं और हमारे सभी कार्यों को उचित व सद्व्यवहार के विपरीत
घोषित कर सकते हैं। किन्तु हमें यह भी स्वीकारना होगा कि इस प्रकार से विदेशियों
के प्रति अविश्वास और घृणा का भाव केवल भारतीयों में ही नहीं है, यह प्रवृति तो प्रायः सारे देशों में विदेशियों के प्रति पाई जाती
है।"
यह पुस्तक न केवल अलबेरूनी के
पांडित्य का परिचायक है वरन एक विशिष्ट प्रकार का गौरव ग्रन्थ है। अरबी फारसी का
विद्वान अलबेरूनी महमूद गजनवी के बर्बरतापूर्ण एवं क्रूर व्यवहार के गवाह रहे हैं
और उन्होंने महमूद की कार्यवाइयों की घोर निंदा करते हुए लिखा है-"महमूद ने
देश की समृद्धि को बर्बादी में बदल डाला। उसने इतने जबरदस्त आक्रमण किए कि
हिन्दुओं को जगह-जगह बिखरे धूल के कणों जैसी हालत में पहुंचा दिया। उसका कहना है
कि इसी के परिणामस्वरूप हिन्दू सभी मुसलमानों के प्रति गहन अविश्वास और नफरत के
भाव अपने मन में संजोए हुए हैं। फिर भी अलबेरूनी ने संस्कृत के विद्वानों से
सम्पर्क कर यहाँ उसने संस्कृत केवल बोलचाल के माध्यम की भाषा के रूप में ही नहीं
सीखी वरन उसका गहनतम अध्ययन कर यहाँ के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद भी अरबी
भाषा में किया। यह पुस्तक इतिहास की अन्य पुस्तकों की भाँति केवल उस समय के
राजनैतिक इतिहास का लेखा जोखा मात्र न होकर उस समय के भारतीय समाज की राजनैतिक, सामाजिक, सांकृतिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक, आर्थिक
व्यवस्था की पूरी जानकारी उपलब्ध कराती है। भारतीय जीवन के सभी पहलुओं पर लिखना
उसके पांडित्यपूर्ण अध्ययन, चिंतन मनन को तो दर्शाता ही है
साथ ही उसका यहाँ के जन सामान्य में रच बस जाना और खास बात यह भी दर्शाती है कि
एक विदेशी यात्री का यहाँ के समाज की हर गतिविधि का गहराई से अवलोकन (Observation)
करने की क्षमता और उसका बाहरी दुनिया से परिचय कराना निश्चय ही सुखद
आश्चर्य और गर्व का विषय है। अलबेरूनी के अलावा और कई अरबी विद्वान भारतीय बौद्धिक
परम्पराओं का अध्ययन कर अरबी भाषा में अनुवाद करते रहे हैं। नवीं सदी तक
चिकित्साशास्त्र, विज्ञान और दर्शन सम्बन्धी भारतीय ग्रंथों
का अरबी में अनुवाद हो चुका था।
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