रविवार, 7 जनवरी 2024

संजीव की प्रेरणा - स्रोत ---------- अजित कुमार राय (कवि- आलोचक और शिक्षाविद)


 संजीव की प्रेरणा - स्रोत ----------

  वरिष्ठ कथाकार संजीव को उनके उपन्यास "मुझे पहचानो" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। मैं उन्हें उनकी एक कहानी के माध्यम से पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ। वे ग्राम - चेतना के नागर बोध के सुष्ठु शिल्पी हैं। राजेन्द्र यादव के साथ वे 'हंस' के सह संपादक रह चुके हैं। संजीव के 'प्रेरणास्रोत' में ग्रामीण यथार्थ और जीवन के तलस्पर्शी अनुभवों और अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करते हुए एक स्त्री के संघर्ष का आख्यान निरूपित है जो बाहर से भोली भाली दिखती है लेकिन अन्याय और अत्याचार के मुखर प्रतिरोध की चेतना से लैस है । वस्तुतः 'जंगली बहू' नाम से संज्ञापित यह नायिका समाज के आन्तरिक भूगोल में व्याप्त जंगलराज से मुठभेड़ करती है । कहानी का अन्तिम वाक्य बड़ा अर्थवाही है । लेखक ने या नैरेटर ने नायिका को जन्म दिया अथवा नायिका ने लेखक को पुनर्जीवित किया ---- यह प्रश्न साहित्य मात्र का सनातन सवाल बन जाता है । जीवंत अन्तःक्रिया करते हुए दोनों एक दूसरे को निर्मित करते हैं , दोनों एक दूसरे की प्रेरणा हैं । सामाजिक , आर्थिक और दैहिक शोषण की शिकार एक दलित महिला के भीतर प्रतिरोध - चेतना कल्पित करती हुई यह कहानी लेखक और उसके विषय के बीच के अन्तराल को पाटने का आह्वान करती है ।

इस कहानी की भाषा में जीवंतता लेखक की अनुभूति की प्रामाणिकता से आई है। किन्तु कहीं - कहीं गालियों का प्रयोग वितृष्णा या जुगुप्सा पैदा करता है। वैसे लेखक ने प्रायः शालीन और संयत प्रतिरोध का आश्रय लिया है। कहानी के भीतर एक कहानी चल रही है और लेखक स्वयं कहानी का एक पात्र है। कहानी की रवानी देखते ही बनती है और उसमें पूर्व दीप्ति ( फ्लैश बैक) शैली का भी प्रयोग परिलक्षित होता है। इस कहानी में दलित प्रतिरोध दबे स्वर में सवर्ण स्त्रियों को भी शामिल करता है और अन्याय तथा शोषण की वैष्णवी चाल का पर्दाफाश करने के साथ ही संघर्ष करते हुए पराजित होता है। दुविधा ग्रस्त लेखक अपनी नायिका के प्रति मसृण भाव रखते हुए भी उसके साथ खुलकर खड़ा नहीं हो पाता। और युयुत्सु जंगली बहू धूल के बगूलों में कहीं गुम हो जाती है। लेखकीय संकल्पना तो यह है कि " एक दिन ये बगूले मिलकर किसी बड़ी आंधी की शक्ल अख्तियार कर इन पुराने खोढ़राए बरगद, पीपल और पाकड़ के दरख्तों को उखाड़ कर मेड़ों पर रख देंगे। उनके साए में घुटते बेशुमार पौधों को आसमान खुल जाएगा। सात परदों में रहने वालों की धोतियां बगुले के परों सी आसमान में उड़ती नज़र आएंगी और वे नंगे होकर उसे पकड़ने को दौड़ेंगे। मगर यह खयाली पुलाव था। " इस उद्धरण से लेखक के सवर्णों के प्रति क्या खयाल हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। पराजित जंगली बहू जब साही की तरह अपने कांटों को फुलाए अकेली रह गई और लाठियां खाकर उसकी फौज छूमंतर हो गई और लेखक स्वयं को लाचार महसूस करते हुए साथ खड़ा नहीं हो पाता तो वह बड़बड़ाते हुए कहता है कि यह जीवन तो व्यर्थ गया। काश, इसे फिर से जिया जा सकता! यह कहानी उसका पुनर्जन्म है।

 किन्तु इन कहानियों की एक सीमा यह है कि इनमें ऐकान्तिक रूप से सवर्ण संस्कृति को खलनायक और दलित को देवता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है , जबकि ऐसा सरलीकरण सम्भव नहीं है और इस व्यवस्था में जो एक जगह पीड़ित है वही दूसरी जगह पीड़क भी है । यदि परम्परा की विकृति शोषण का उदात्तीकरण करती है तो उसी के भीतर की एक धारा बुद्ध , कबीर , निराला और प्रेमचंद के रूप में उसका निषेध भी करती है । इसलिए विवेकानंद और गाँधी तक की हजारों वर्षों की ऋषि - परंपरा का सामाजिक विखंडन समीचीन कैसे कहा जा सकता है जिसमें सत्य , अहिंसा , परोपकार , सेवा , बलिदान , सहिष्णुता , उदारता तथा सर्वधर्मसमभाव एवं विश्वबन्धुत्व जैसे जीवन - मूल्य अर्जित किए गए हैं । वर्तमान समय में अतार्किक कथानकों वाले नियंत्रित अधिकांश धारावाहिकों में भी सवर्ण - विरोध की यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है । जबकि उनके अधिकांश दर्शक इसी समाज से आते हैं और वंचितों के पक्ष में लिखने वाले अधिकांश रचनाकार भी गैरदलित ही हैं । यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि ब्राह्मणवाद का सबसे अधिक विरोध करने और झेलने वाले ब्राह्मण ही हैं लेकिन अनुभूतिपरक भावबोध और सहानुभूतिमूलक भावपट के द्वंद्व ने समग्र जीवन - बोध को खंडित कर दिया । पंकज मित्र विमर्शों को कहानीपन की राह में स्पीड ब्रेकर के रूप में देखते हैं तो "बैल बैल के लिए सोचे" की अन्तश्चेतना से परिस्फूर्त विमर्शवाद से मधु काँकरिया भी आतंकित हैं । महुआ माजी को भी लगता है कि विमर्श हों लेकिन लादे न जाएँ ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जब अपने संस्मरणों को अभिव्यक्ति दे रहे थे तो वह उनका अनुभव - यथार्थ था किन्तु जे एन यू के प्रोफेसर जब दलित विमर्श के अनुष्ठान में उतरते हैं तो यह पाखंड की सृष्टि करता है। 'मुझे पहचानो' में संजीव राय साहब और लाल साहब के सामंती चरित्र को पहचानने में तत्परता दिखाते हैं लेकिन क्या ये लेखक मायावती के सामंती चरित्र का उद्घाटन कर सकते हैं? ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'शवयात्रा' दलित समुदाय के भीतर मौजूद भेदभाव और स्तरीकरण के कटु अनुभव की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। कल्लन महसूस करता है कि "चमारों की नजर में भी हम सिर्फ बलहार हैं। " उसकी बेटी की चिकित्सा करने से डाक्टर मना कर देता है और चमारों के श्मशान में उसके मुर्दे को फूंकने की इजाजत नहीं है। उसके मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गाँव का कोई व्यक्ति नहीं आता। मेरे कालेज में भी कोई दलित शिक्षक रमेश वाल्मीकि के हाथ का छुआ पानी नहीं पीता। यह कहानी दलित चेतना में आत्मालोचना का एक संस्कार विकसित करती है।

 

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...