रविवार, 7 जनवरी 2024

संदेह , पुकार - अशोक कुमार


 अशोक कुमार

संदेह

 किसी अनिष्ट की आशंका से अचानक

अर्धरात्रि में टूटती है नींद

और गहरे स्याह सन्नाटे में

बढ़ने लगतीं हैं फुसफुसाहटें लगातार।

 लगता है कि कुछ अदृश्य हाथ

टटोल रहे हैं कुछ

और संदिग्ध माने जाने के भय से भयभीत उम्मीदें

तलाश रही हैं सुरक्षित कोने।

 आधी पढ़ी गई कहानियों से अचानक

विलुप्त हो रहे हैं किरदार

यह रुत इतनी शुष्क है कि

कविताओं से भी कम हो रही है नमी।

 लगता है कि रौशनदानो के बाहर

उग आईं है अनेकों आंखे

जो किसी गुप्तचर सी झांक रहीं हैं भीतर।

 मेरा अपना एक हाथ दूसरे हाथ का मुखबिर बना है

और मेरी ही एक आंख

मेरी दूसरी आंख की जासूस।

 सुइयों की अनवरत गति के बावजूद

दीवाल पर टँगा यह समय

लगता है युगों से नहीं बीता।

 और सूचनाओं के समंदर की तलहटी में

आखिरी सांसें भरता सत्य

प्रार्थनाओं को दोहराते हुए

मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है।

 

 

पुकार

 कार्तिक के इस उत्तरार्द्ध में

कुछ नर्म होने लगी है धूप

रात से मिलने की आतुरता में

जल्दी ढलने लगे हैं दिन।

 सबसे खूबसूरत दरख्तों के पत्ते

झरने से पूर्व अपने हरे में

कुछ देर और ठहर जाना चाहते हैं।

 वे कुछ देर और ठहरेंगे यहाँ

और फिर झर जाएंगे

घनी उदासी का गहरा पीला ओढ़कर।

 शिशिर की शीतरात्रियों से पहले

लोकधुनों की मीठी तान पर

फिर से गूंजेगा विरह का कोई सर्द गीत।

 स्मृतिलोप से उपजे ये संदेह

दुःस्वप्नों की लम्बी श्रृंखलाएं रचेंगे

और भविष्य की यह एकाकी यात्रा

बेहद कुरूप दिखेगी दर्पण में।

 किन्तु इस ऋतु-अंतराल में

तुम बार-बार पुकारना मुझे

और मेरी यात्राओं की सारी थकान को

इस पुकार के माधुर्य में घोल लेना।

 गहरे कोहरे-कुहासे के बीच

रोज़ एक नया निर्वात पनपेगा भीतर।

तुम रोज़ उस खालीपन को

अपनी उपस्थिति से भर देना।


1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बहुत आभार आपका

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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