संदेह
अर्धरात्रि में टूटती है नींद
और गहरे स्याह सन्नाटे में
बढ़ने लगतीं हैं फुसफुसाहटें लगातार।
टटोल रहे हैं कुछ
और संदिग्ध माने जाने के भय से भयभीत
उम्मीदें
तलाश रही हैं सुरक्षित कोने।
विलुप्त हो रहे हैं किरदार
यह रुत इतनी शुष्क है कि
कविताओं से भी कम हो रही है नमी।
उग आईं है अनेकों आंखे
जो किसी गुप्तचर सी झांक रहीं हैं
भीतर।
और मेरी ही एक आंख
मेरी दूसरी आंख की जासूस।
दीवाल पर टँगा यह समय
लगता है युगों से नहीं बीता।
आखिरी सांसें भरता सत्य
प्रार्थनाओं को दोहराते हुए
मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है।
पुकार
कुछ नर्म होने लगी है धूप
रात से मिलने की आतुरता में
जल्दी ढलने लगे हैं दिन।
झरने से पूर्व अपने हरे में
कुछ देर और ठहर जाना चाहते हैं।
और फिर झर जाएंगे
घनी उदासी का गहरा पीला ओढ़कर।
लोकधुनों की मीठी तान पर
फिर से गूंजेगा विरह का कोई सर्द गीत।
दुःस्वप्नों की लम्बी श्रृंखलाएं
रचेंगे
और भविष्य की यह एकाकी यात्रा
बेहद कुरूप दिखेगी दर्पण में।
तुम बार-बार पुकारना मुझे
और मेरी यात्राओं की सारी थकान को
इस पुकार के माधुर्य में घोल लेना।
रोज़ एक नया निर्वात पनपेगा भीतर।
तुम रोज़ उस खालीपन को
अपनी उपस्थिति से भर देना।
1 टिप्पणी:
बहुत आभार आपका
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